वह इतिहास दोहराया नहीं जा सकता, जब एक ऐसे शख्स का जन्म हुआ था जिसने इतिहास, भूगोल और मिज़ाज से पूरब और पश्चिम की दो अलग अलग दुनिया को धुनों के जादू से बांधने का काम किया। आज पंडित रविशंकर का जन्म-दिन है। यूं तो पंडित रविशंकर आज हमारे बीच मौजूद नहीं है, लेकिन संगीत के रुप में उनकी मौजूदगी का एहसास हमेशा दिल के करीब रहेगा। रविशंकर और संगीत मानो एक दूसरे के पूरक हैं और दोनों एक दूजे के लिए ही बने हो। पंडित रविशंकर को संगीत की धरोहर का राजदूत माना जाता है।

APN Grab आइए आज उनके जन्म-दिन पर उनको थोड़ा और  करीब से जानने की कोशिश करते हैं-

पंडित रवि शंकर का जन्म 7 अप्रैल, 1920 को बनारस, उत्तरप्रदेश में एक बंगाली परिवार में हुआ था। उनके पिता श्याम सुंदर चौधरी थे जो झालावाड़ रियासत के मंत्री थे, उनकी मां का नाम था हिमांगना। उनके जन्म के वक्त उनके बड़े भाई उदय शंकर लंदन में रहते थे, और जब रविशंकर नौ बरस के हुए, दादा उनको अपने साथ ले गए और बस ज़िंदगी का यह मोड़ जिसने रविशंकर को बदल कर रख दिया।  वो महज 11 बरस के थे जब अपने नृतक भाई उदय शंकर के साथ पेरिस के मंच पर थिरक रहे थे। 1934 में रविशंकर भारत आए, और मध्य-प्रदेश के मैहर राजदरबार में उस्ताद अलाउद्दीन खां के सितारवादन को सुना। उनके सितार पर थिरकती हुई उंगलियों ने मानो उनके दिल को तारों को छू सा दिया और 1938 में विलायती सभ्यता की चकाचौंध को छोड़कर सादगी से उस्ताद अलाउद्दीन खां की छत्रछाया में संगीत की साधना की। 6 साल संगीत की कठिन साधना में लीन रहने के बाद उन्होंने मैहर की रियासत छोड़ मुंबई को ओर रुख किया।

मुंबई की सुरयात्रा का सफर

यह वो दौर था जब पंडित रविशंकर वक्त से आगे देख रहे थे और वक्त उन पर इनायतें करने के लिए बेताब था। थिएटर से लेकर फिल्मों तक में पंडित रविशंकर के सितारवादन का जादू लोगों पर चला। 1946 में नीचा-नगर नाम से एक फिल्म ने पर्दे पर दस्तक दी जो रविशंकर के संगीत से सजी थी और इसी फिल्म को काऩ फिलोमत्सव में 11 पुरस्कारों को लिए नामांकित किया गया और यह पहली भारतीय फिल्म थी जिसने काऩ पुरस्कार जीता। इसके बाद फिल्मी दुनिया में एक रुतबा रखने वाले सत्यजीत रे की नजर उन पर पड़ी और उन्होंने रविशंकर को अपनी फिल्मों के लिए चुन लिया। फिल्मों का यह सिलसिला परवान चढ़ता रहा और 1981 में रिचर्ड एटेनबरो की फिल्म गांधी में उनके संगीत का ऐसा तराना छेड़ा कि फिल्म को सर्वश्रेष्ठ संगीत की श्रेणी में शामिल किया गया।

पंडित रविशंकर का विदेशी जादू

पंडित रविशंकर पहले शख्स हैं जो भारतीय शास्त्रीय संगीत को पश्चिमी मुल्कों तक लेकर गए और पूर्वी व पश्चिमी संगीत का मेल कराया। रॉक, पॉप के साथ सुर, लय, ताल के मेल ने लोगों को दीवाना बना दिया। पश्चिम में एक दौर था जब लोगों की बीटल्स म्यूजिक बैंड को सुनने के लिए भीड़ उमड़ती थी और इसी समूह के संगीतकार थे जॉर्ज हैरिसन जो रविशंकर के सितार की झंकार में लीन हो जाते थे, जॉर्ज इस कदर रविशंकर के सितारों के तारों में खो गए कि उन्होंने रविशंकर को अपना गुरु बना लिया और भारत आकर भारतीय संगीत के सुर सीखने लगे।

15 अगस्त 1969 में वुडस्टॉक, न्यूयॉर्क की तारीख अपने आप में एक इतिहास बन गई थी, जब रविशंकर के सितारवादन को सुनने के लिए 5 लाख से भी अधिक भीड़ जुट गई थी। रॉक, पॉप के दीवाने उनके संगीत को सुनने के लिए मचल उठे थे। उनके सितार से निकलता जादू विदेशी दीवानों की रुह तक होकर गुजर रहा था। ठीक उन्हीं पलों में भारत आजादी की 22वीं सालगिराह मना रहा था और पूरे भारत में गूंज रहा था भारत का समूहगान, सारे जहां से अच्छा, जिसको शायर अल्लामा इकबाल ने करीब एक सदी पहले लिखा था और इस तराना-ए-हिंद को अपनी धुन देकर जान फूंकी थी पंडित रविशंकर ने। यह समूह गान देश का गुमान माना जाता है और जो धुन रविशंकर ने इसको दी, उसे आज तक नहीं बदला गया।

रविशंकर ने निजी जीवन में तीन बार शादियां की, उनकी दो बेटियां है और दोनों की संगीत की दुनिया में अपनी मुकाम बना रही हैं। एक बेटी नोरा जॉन्स जो विदेश संगीत में सक्रिय है और दूसरी अनुष्का शंकर जिसने पिता से मिली संगीत की विरासत को संजोकर रखा है और आज उसको बेहतरीन सितारवादकों में शुमार किया जाता है।

सम्मान-

पंडित रविशंकर संगीत की दुनिया के ऑस्कर माने जाने वाले तीन बार ग्रैमी पुरस्कार ,पद्मभूषण और पद्मविभूषण मिल चुका है। रविशंकर भारत रत्न से भी सम्मानित हो चुके हैं।

विश्व संगीत के गॉडफादर 11 दिसंबर 2012 को 92 वर्ष की उम्र में इस संसार को अलविदा कह कर चले गए। पंडित रविशंकर भारत ही नहीं पूरे विश्व के लिए एक उपलब्धि है।

एपीएन न्यूज की तरफ से रविशंकर के जन्मदिन के मौके पर उनको श्रद्धापूर्वक नमन।

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