Ganesh Shankar Vidyarthi: हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में शायद ही ऐसा कोई हो जो स्वतंत्रता सेनानी गणेश शंकर विद्यार्थी के नाम से परिचित न हो। आज ही के दिन गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्म यूपी के फतेहपुर जिले में 1890 को हुआ था। गणेश शंकर ने अपनी शुरूआती शिक्षा पिता से ही हासिल की। उन्होंने जैसे-तैसे हाई स्कूल की पढ़ाई पूरी की। विद्यार्थी पढ़ने लिखने में अव्वल थे और उन्होंने 16 साल की उम्र में ही पहली किताब ‘हमारी आत्मोसर्गत’ लिखी। गरीबी के चलते वे आगे नहीं पढ़ सके और नौकरी करने लगे। नौकरी की शुरूआत उन्होंने क्लर्क की नौकरी से की। बाद में वे कानपुर स्थित स्कूल में पढ़ाने लगे। साल 1909 में उन्होंने चंद्रप्रकाशवती से विवाह किया।
गणेश शंकर की असल दिलचस्पी तो पत्रकारिता में थी। जब देश में राष्ट्रीय आंदोलन की अलख जगी तो विद्यार्थी ‘कर्मयोगी’ और ‘स्वराज्य’ जैसी पत्रिकाओं से जुड़ गए और लिखने लगे। वे विद्यार्थी नाम से लिखा करते थे। विद्यार्थी का लेखन देख सरस्वती पत्रिका के संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी ने उन्हें बुलावा भेजा और साथ काम करने के लिए कहा। हालांकि विद्यार्थी की दिलचस्पी साहित्य से ज्यादा राजनीति में थी इसलिए वे बाद में सरस्वती छोड़ ‘अभ्युदय’ के लिए काम करने लगे।
साल 1913 में विद्यार्थी कानपुर लौट आए और ‘प्रताप’ की शुरूआत की। प्रताप समय के साथ पत्रकारिता की मिसाल बन गया। यह साप्ताहिक रूप से छपता था। 1916 आते -आते प्रताप का सर्कुलेशन काफी बढ़ गया था। प्रताप के जरिए विद्यार्थी शोषितों की आवाज बने। उन्हें अपनी पत्रकारिता के लिए भारी जुर्माने देने पड़े और जेल भी जाना पड़ा।
जब देश में होम रूल की मांग उठी तो विद्यार्थी ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और मजदूरों की हड़ताल का नेतृत्व किया। किसानों की आवाज उठाने के लिए उन्हें दो साल जेल में रहना पड़ा। 1922 में फिर से एक भाषण के लिए जेल जाना पड़ा। 1924 आते-आते उन्हें भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिकारियों का साथ मिला।
इसके बाद 1925 में वे यूपी लेजिस्लेटिव काउंसिल का चुनाव लड़े और 1929 तक इसके सदस्य रहे, बाद में उन्होंने इस्तीफा दे दिया। वे 1929 में यूपी कांग्रेस के अध्यक्ष रहे। वे हिंदी भाषा के समर्थक थे । 1930 में सरकार ने उनको फिर से जेल में डाल दिया। गांधी इरविन समझौता हुआ तो वे भी रिहा हुए।
1931 में उन्हें कांग्रेस के कराची अधिवेशन में जाना था लेकिन वे दंगे शांत कराने के लिए कानपुर में रुके रहे। लोगों की जान बचाते-बचाते वे खुद दंगे की चपेट में आ गए और दुनिया को अलविदा कह दिया।
गांधी ने विद्यार्थी की मौत पर कहा था: ”गणेश शंकर विद्यार्थी को जैसी मौत मिली उससे हम सभी को जलन होती है। उनका खून हिंदू मुस्लिम को जोड़ेगा। गणेश शंकर विद्यार्थी की वीरता ने अंत में पत्थर दिलों को पिघलाने के लिए बाध्य किया, उन्हें एक कर दिया।”
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