सामाजिक अपराध एक गहरी जड़ वाली बीमारी की अभिव्यक्ति है, जिसे हम अहंकार भी कह सकते है. इस साल मई में लिव-इन पार्टनर श्रद्धा वालकर (Shraddha Walkar) की आफताब पूनावाला (Aaftab Poonawala) द्वारा की गई कथित हत्या के मामले के साथ–साथ देश के कई हिस्सों से आ रही खबरों ने देश के नागरिकों का ध्यान एक बार फिर से महिलाओं की सुरक्षा (Women Security) की ओर खींचा है.
कितनी है महिलाओं की कामकाज में भागीदारी?
वैसे तो पिछले दो दशकों में वैश्विक स्तर पर महिलाओं की शिक्षा में वृद्धि दर्ज की गई है और प्रजनन दर (Fertility Rate) में गिरावट देखी गई है. इन दोनों स्थितियों ने विश्व भर में वैतनिक श्रम बल (Paid Labour Force) में महिलाओं की भागीदारी की वृद्धि में योगदान किया है, लेकिन भारत में ऐसा संभव नहीं हो सका है.

डेटा को लेकर रिसर्च करने वाली कंपनी Statista के अनुसार भारत की महिला श्रम बल भागीदारी दर (Female Labour Force Participation Rate- FLFPR) जो वर्ष 2011 में 24.51 फीसदी थी वो 2021 में गिरकर 19.23 फीसदी रह गई है. घरेलू उत्तरदायित्व, सामाजिक मानदंड, सीमित अवसर के अभाव जैसे कारकों के साथ ही यौन हिंसा का भय एक प्रमुख कारण है, जो श्रम बल से महिलाओं को दूर करता है.
कहां है समस्या?
2018 के एक पेपर में पाया गया कि यौन हमलों की बढ़ती मीडिया रिपोर्टिंग से महिला के नौकरी पाने की संभावना कम हो जाती है. वर्ल्ड डेवलपमेंट में प्रकाशित एक पेपर में भी इस संभावना को सटीक माना था. इसके अलावा यह भी पाया गया कि बलात्कार जैसे अपराध के बढ़ने से भी महिलाएं वैतनिक कार्यों से दूर रहती हैं.
धारणाओं और आशंकाओं के अलावा, कुछ अध्ययन, जैसे कि 2021 का IWWAGE द्वारा किये गये विश्लेषण के अनुसार, अपराध दर और महिलाओं की श्रम शक्ति भागीदारी के बीच सीधा संबंध है. पेपर समग्र अपराध दर और श्रम बल की भागीदारी के बीच एक कम लेकिन नकारात्मक सहसंबंध पाता है, जिसका अर्थ है कि कम अपराध दर का मतलब अधिक श्रम बल की भागीदारी होगी.
ऑक्सफैम इंडिया (Oxfam India) द्वारा हाल ही में जारी की गई इंडिया डिस्क्रिमिनेशन रिपोर्ट में कहा गया है कि महिलाओं और हाशिये के समुदायों को नौकरी में भेदभाव का सामना करना पड़ा. महिलाओं के खिलाफ भेदभाव इतना अधिक है कि धर्म या जाति-आधारित उप-समूहों या ग्रामीण-शहरी विभाजन में शायद ही कोई अंतर है. रिपोर्ट के अनुसार, महिलाओं के प्रति होने वाला भेदभाव वर्ष 2004-05 के 67.2 फीसदी की तुलना में 2019-20 में बढ़कर 75.7 फीसदी हो गया है.

रिपोर्ट ये भी बताती है कि पुरुषों और महिलाओं के बीच आय का अंतर ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में आकस्मिक श्रमिकों (Casual Workers) के लिये 50 फीसदी से लेकर 70 फीसदी के मध्य आय का अंतर भी ज्यादा है. हालांकि नियमित (Permanent) श्रमिकों के लिये यह सीमा कम है, पुरुषों की आय महिलाओं की आय से 20 से 60 फीसदी तक अधिक है.
महिलाओं के साथ होने वाले अपराध
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) द्वारा अगस्त में जारी कि गई “भारत में आकस्मिक मृत्यु और आत्महत्या रिपोर्ट 2021” के अनुसार देश में महिलाओं के खिलाफ अपराध की दर (प्रति 1 लाख जनसंख्या पर घटनाओं की संख्या) वर्ष 2020 में 56.5 फीसदी से बढ़कर वर्ष 2021 में 64.5 फीसदी हो गई.
महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों में 31.8 फीसदी उनके पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता के, 20.8 फीसदी उसकी विनम्रता को अपमानित करने के इरादे से महिलाओं पर हमले को लेकर, 17.66 फीसदी अपहरण और 7.40 फीसदी बलात्कार से जुड़े हुए हैं.
वर्ष 2021 में महिलाओं के खिलाफ अपराध की उच्चतम दर असम में 168.3 फीसदी दर्ज की गई, इसके बाद ओडिशा, हरियाणा, तेलंगाना और राजस्थान का स्थान रहा. राजस्थान में महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामलों की संख्या में कमी आई है, जबकि तीन अन्य राज्यों (ओडिशा, हरियाणा और तेलंगाना) में बढ़ोतरी दर्ज की गई है.

वहीं वर्ष 2021 में दर्ज मामलों की वास्तविक संख्या के संदर्भ में उत्तर प्रदेश शीर्ष स्थान पर है, इसके बाद राजस्थान, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और ओडिशा का स्थान आता है. उत्तर पूर्वी राज्य नगालैंड में पिछले तीन वर्षों में महिलाओं के खिलाफ अपराध के सबसे कम मामले दर्ज किये गए थे.
केंद्रशासित प्रदेशों में दिल्ली में वर्ष 2021 में महिलाओं के खिलाफ अपराध की उच्चतम दर 147.6 फीसदी थी. बड़े शहरों की बात करें तो दिल्ली में वर्ष 2021 में 13,892 मामले दर्जी किए गए थे, इसके बाद मुंबई, बेंगलुरु और हैदराबाद का स्थान था.
घरेलू हिंसा और दहेज से होने वाली मौतें (Domestic Violence and Dowry)
घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत वर्ष 2021 में देश में केवल 507 मामले दर्ज किये गए, जो महिलाओं के खिलाफ अपराध के कुल मामलों का 0.1 फीसदी थे. घरेलू हिंसा के सबसे अधिक मामले (270) केरल में दर्ज किये गए थे. वर्ष 2021 में दहेज हत्या के 6,589 मामले दर्ज किये गए, जिनमें सबसे अधिक मौतें उत्तर और बिहार में दर्ज की गई थी.

बाल विवाह (Child Marriage)
संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (United Nations Children’s Fund- UNICEF) के हालिया आकलन से पता चलता है कि भारत में प्रत्येक वर्ष 18 वर्ष से कम उम्र की कम-से-कम 15 लाख लड़कियों की शादी कर दी जाती है, जो दुनिया में होने वाले लड़कियों के बाल विवाह की संख्या का एक-तिहाई है और इस प्रकार अन्य देशों की तुलना में भारत में बाल वधुओं की सबस ज्यादा संख्या मौजूद है.
मई 2022 में जारी किए गए NFHS-5 के अनुसार, सर्वेक्षण में शामिल 3 फीसदी महिलाओं की शादी 18 वर्ष की कानूनी आयु (Legal Age for Marriage) प्राप्त करने से पहले हो गई, जो NFHS-4 में रिपोर्ट किये गए 26.8 फीसदी से कम है. पुरुषों में कम उम्र में विवाह का आंकड़ा NFHS-5 में 17.7 फीसदी और NFHS-4 में 20.3 फीसदी था.
NFHS-5 के अनुसार पश्चिम बंगाल और बिहार में बालिका विवाह का प्रचलन सबसे अधिक था. इसी सर्वेक्षण के अनुसार, जम्मू-कश्मीर, लक्षद्वीप, लद्दाख, हिमाचल प्रदेश, गोवा, नगालैंड, केरल, पुद्दुचेरी और तमिलनाडु में कम उम्र में शादियां सबसे कम हुई हैं.
हालांकि 20-24 वर्ष की आयु की महिलाओं की हिस्सेदारी जिन्होंने 18 वर्ष की आयु से पहले शादी की थी, पिछले पांच वर्षों में 27 फीसदी से घटकर 23 फीसदी हो गई है. राजस्थान, मध्य प्रदेश और हरियाणा में कम उम्र के विवाहों के अनुपात में सबसे अधिक कमी देखी गई.
समिति की रिपोर्ट
संसद में गृह मामलों से संबंधित स्टैंडिंग समिति ने ‘महिलाओं और बच्चों पर अत्याचार और उनके खिलाफ अपराध’ पर 15 मार्च, 2021 को अपनी रिपोर्ट सौंपी थी. इस रिपोर्ट में कहा गया था कि अक्सर पुलिस स्टेशनों में महिलाओं और बच्चों के साथ होने वाले अपराधों को दर्ज नहीं किया जाता. जिसको लेकर कई सुझाव दिए गए थे. वहीं, समिति ने ये भी पाया था कि महिलाओं और बच्चों के साथ होने वाले अपराधों में दोष सिद्धि (Conviction Rate) की दर बहुत कम है.
समिति ने कहा था कि अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की महिलाओं को अत्याचार और अपराध की शिकायत दर्ज कराने में बड़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. इसको लेकर समिति ने सुझाव दिया था कि कानून प्रवर्तन एजेंसियों को अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति की महिलाओं से बलात्कार और यौन उत्पीड़न के मामलों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निरोधक) एक्ट, 1989 के प्रावधानों को भी लागू करना चाहिए.
इस समिति द्वारा जो सबसे बड़ा सुझाव दिया गया था वो यह था कि पुलिस बलों में 33 फीसदी महिलाएं होनी चाहिए लेकिन उनका प्रतिनिधित्व 2021 तक 10.3 फीसदी ही पहुंच पाया था. उसने सुझाव दिया कि सभी स्तरों के पदों के लिए विशेष भर्ती अभियान चलाए जाएं. इस समिति कि रिपोर्ट में ये भी कहा गया था कि कोविड-19 महामारी और उसके बाद लगाये गये लॉकडाउन ने घरेलू हिंसा (Domestic Violence) और मानव तस्करी (Human Trafficking) को बढ़ाया है.