जानिए जम्मू-कश्मीर के पहाड़ी (Pahari) समुदाय के लोगों को अनुसूचित जनजाति (ST) का दर्जा देने के ऐलान के क्या है मायने

जम्मू-कश्मीर में पहाड़ी (Pahari) समुदाय के लोग 1989 से मांग कर रहे हैं कि उन्हें भी बारामूला और अनंतनाग जिलों के अलावा पीर पंजाल क्षेत्र के दुर्गम और पिछड़े इलाकों में रहने वाले गुर्जर और बकरवाल की तरह अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया जाए.

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अपने तीन दिवसीय दौरे पर जम्मू पहुंचे केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने जम्मू-कश्मीर के पहाड़ी (Pahari) समुदाय के लोगों को अनुसूचित जनजाति (ST) का दर्जा देने का ऐलान कर दिया है. मंगलवार 4 अक्टूबर को गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि, प्रधानमंत्री मोदी ने जस्टिस जी डी शर्मा कमीशन की सिफारिशों को लागू करने का आदेश दिया है. प्रक्रिया पूरी होते ही लोगों को आरक्षण का लाभ मिलने लगेगा.

आज हुए ऐलान के साथ ही जम्मू-कश्मीर में होने वाले प्रस्तावित चुनाव से पहले गृह मंत्री की घोषणा के सियासी मायने भी निकाले जा रहे हैं. विश्लेषकों के अनुसार इससे भाजपा को सियासी तौर पर फायदा मिलने की उम्मीद जताई जा रही है.

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क्या है पूरा मामला?

जम्मू-कश्मीर में पहाड़ी (Pahari) समुदाय के लोग 1989 से मांग कर रहे हैं कि उन्हें भी बारामूला और अनंतनाग जिलों के अलावा पीर पंजाल क्षेत्र के दुर्गम और पिछड़े इलाकों में रहने वाले गुर्जर और बकरवाल की तरह अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया जाए.

गुर्जर और बकरवाल समुदाय के लोगों का कहना है कि पहाड़ी समुदाय कोई एक जातीय समूह नहीं हैं, बल्कि विभिन्न धार्मिक और भाषाई समुदायों का समूह हैं. पहाड़ी समुदाय में हिंदू-मुस्लिम दोनों ही है. जम्मू-कश्मीर के सीमावर्ती जिलों में 40 फीसदी आबादी पहाड़ी समुदाय की है.

पहाड़ी भाषाई अल्पसंख्यक हैं. जम्मू के राजौरी व पुंछ के पहाड़ों और कश्मीर के कुपवाड़ा व बारामूला जिलों में इनकी आबादी रहती है. पहाड़ी समुदाय लंबे समय से एसटी दर्जा पाने के लिए संघर्षरत हैं क्योंकि उनके साथ रहने वाले दूसरे समुदाय गुर्जरों और बकरवालों को 1991 में ही अनुसूचित जनजाति का दर्जा दे दिया गया था. उन्हें नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में 10 फीसदी का आरक्षण मिल रहा है.

Amit Shah in Jammu 1

पहाड़ी समुदाय के जरिए भाजपा घाटी के पीर पंजाल क्षेत्र में प्रवेश करने का मौका देख रही. पहाड़ियों को एसटी का दर्जा देना भाजपा की जम्मू-कश्मीर में अधिकतम सीटें जीतने के लिए अपनाई जा रही रणनीति के तहत एक बड़े राजनीतिक कदम के रूप में देखा जा रहा है.

अगर जम्मू-कश्मीर में पहाड़ी (Pahari) समुदाय को एसटी का दर्जा दिया जाता है, तो यह भारत में आरक्षण पाने वाले भाषाई समूह का पहला उदाहरण होगा. ऐसा करने के लिए केंद्र सरकार को संसद में आरक्षण अधिनियम में संशोधन करने की आवश्यकता पड़ेगी.

पिछल दिनों केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने गुर्जर समुदाय के गुलाम अली खटाना को राज्यसभा के लिए मनोनीत (Nominate) किया था, जिसे भाजपा की गुर्जर समुदाय को अपने साथ रखने की नीति के रूप में देखा जा रहा है.

पहाड़ी समुदाय को आरक्षण को लेकर पीबी गजेंद्र गडकर आयोग से लेकर आनंद आयोग और अभी हाल ही में अपनी रिपोर्ट देने वाले जी डी शर्मा आयोग ने भी पहाड़ी समुदाय को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने की सिफारिश की है.

2002 में तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने गुर्जर और बकरवाल के विरोध के चलते पहाड़ी लोगों की एसटी दर्जे की मांग को खारिज कर दिया था.

जम्मू-कश्मीर परिसीमन

पिछले दिनों खत्म हुई जम्मू-कश्मीर में परिसीमन प्रक्रिया के बाद 90 सदस्यीय विधानसभा का गठन हुआ है. विधानसभा में आदिवासियों के लिए 9 सीटें आरक्षित होने के साथ ही पहाड़ी समुदाय एसटी दर्जा देने की मांग को लेकर फिर से मांग शुरू हो गई है.

वहीं, परिसीमन के बाद पहाड़ी लोगों को आरक्षण देना भाजपा के लिए सियासी लाभ के रूप में देखा जाता है. हालांकि इसके लिए भाजपा को गुर्जर, बकरवाल और पहाड़ी सहित हिंदू और मुस्लिम दोनों के समर्थन की जरूरत है.

प्रतिनिधिमंडलों ने की मुलाकात

सोमवार को गूर्जर और बकरवाल समुदाय के प्रतिनिधिमंडलों ने शाह से गुजारिश की कि किसी अन्य समुदाय को अनुसूचित जाति का दर्जा देकर गुर्जर, बकरवाल, गद्दी और सिप्पी समुदायों के हितों की अनदेखी ना हो. हालांकि इसको लेकर अमित शाह ने आश्वासन दिया कि उनके हितों की अनदेखी नहीं की जाएगी.

अनुसूचित जनजाति

भारतीय संविधान में अनुसूचित जनजाति (Schedule Tribe) का दर्जा प्राप्त करने वाले समुदायों को कुछ संरक्षण प्रदान किये जाते हैं, लेकिन इस बात को लेकर हमेशा सवाल उठते रहें हैं कि किन समुदायों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा प्रदान किया जाए.

अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिलने का अर्थ है कि इन समुदायों को राजनैतिक प्रतिनिधित्व के रूप में, स्कूल, कॉलेज में दाखिला और सरकारी नौकरियों के रूप में लाभ मिलता है.

पिछले कुछ वर्षों में सामाजिक और राजनैतिक लामबंदी के कारण अनुसूचित जनजातियों की संख्या 700 से ज्यादा पहुंच गई है, जबकि सन् 1960 में इनकी संख्या 225 थी. जैसे-जैसे अनुसूचित जनजातियों का दर्जा हासिल करने को इच्छुक समुदायों की संख्या बढ़ रही है, वैसे-वैसे ही किसी समुदाय को अनुसूचित जनजाति के रूप में मान्यता देने के औचित्य पर भी सवाल उठने लगे हैं.

भारत के संविधान में निर्देश दिया गया है कि राष्ट्रपति राज्यपाल के परामर्श से अनुसूचित जनजातियों को निर्दिष्ट कर सकते हैं. इसके लिए कोई विशिष्ट मानदंड निर्धारित नहीं किये गये हैं. जनजाति मामलों के मंत्रालय के अनुसार यद्यपि इसके मानदंड का कोई विधान तय नहीं किया गया है, फिर भी “स्थापित मान्यताओं” के अनुसार इसका निर्धारण किया जाता है.

इन मान्यताओं में “आदिम” गुण, विशिष्ट संस्कृति, भौगोलिक अलगाव, विशाल समुदाय से “जुड़ने में संकोच” और “पिछड़ापन”. ये सामान्य मानदंड 1931 की जनगणना की परिभाषाओं, प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग 1955 की रिपोर्टों, कालेलकर सलाहकार समिति और लोकुर समिति द्वारा तैयार की गई अनुसूचित जाति / जनजातियों की पुनःसंशोधित सूचियों के आधार पर तय किये गये थे.

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