भारत की वह सैन्य रणनीति जिसने करा दिया था 93 हजार पाकिस्तानी जवानों का सरेंडर, पढ़िए उसके बारे में Detail में….

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आज से 52 साल पहले हुए भारत-पाकिस्तान युद्ध में पड़ोसी देश को करारी हार का सामना करना पड़ा था और एक नए देश बांग्लादेश का जन्म हुआ था। यह दिन इसलिए भी खास है क्योंकि इस दिन 90 हजार से अधिक पाकिस्तानी सैनिकों ने भारतीय सेना के आगे आत्मसमर्पण किया था। भारत 16 दिसंबर को इसलिए विजय दिवस के रूप में मनाता है। कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं ने भारत के पक्ष में भूमिका निभाई थी जिसके कारण ढाका में पाक शासन खत्म हुआ।

तीनों सेनाओं का संयुक्त प्रयास

भारत द्वारा पाकिस्तानी विमानों के लिए नो-फ़्लाई ज़ोन की घोषणा के बाद पूर्वी पाकिस्तान अपने पश्चिमी हिस्से से अलग हो गया था। पश्चिम में नौसैनिक नाकेबंदी ने राहत और गोला-बारूद की आपूर्ति के सभी मार्गों को बाधित कर दिया था। युद्ध शुरू होने के तीन दिनों के भीतर, भारतीय वायु सेना ने पूर्वी पाकिस्तान के एयर स्पेस में दबदबा बना लिया। जिससे बांग्लादेश के अंदर सेना को तेजी से आगे बढ़ने में मदद मिली। नौसेना के विमानवाहक पोत आईएनएस विक्रांत और नौसैनिक विमानवाहकों ने पूर्व में भारत की पकड़ को मजबूत बना दिया। जिससे पाकिस्तान के लिए रास्ते और संचार की समुद्री लाइनें कट गईं।

इस बीच, भारतीय सेना की 4, 33 और 2 कोर ने तीन दिशाओं से बांग्लादेश की ओर मार्च किया। इसका उद्देश्य पाकिस्तानी सैनिकों द्वारा बनाए गए “किलों” पर कब्ज़ा करना और ढाका पर नियंत्रण स्थापित करना था। सिलहट, चटगांव, तंगेल, खुलना, जेसोर आदि पर नियंत्रण ने यह सुनिश्चित कर दिया कि पाकिस्तानियों के लिए भागने का कोई रास्ता नहीं बचा था।

मनोवैज्ञानिक युद्ध

युद्ध शुरू होने से पहले, जनरल एएके नियाज़ी के नेतृत्व में पूर्व में पाकिस्तानी सैनिकों का मानना था कि भारत पश्चिम बंगाल में सीमा के साथ क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लेगा। इस गलत धारणा ने पाकिस्तान को ढाका के चारों ओर “किला” बनाने के लिए मजबूर किया, जिससे राजधानी में अपर्याप्त सैनिक रह गए। जैसे जैसे शहर भारत के नियंत्रण में आते गए मंजिल करीब आती गई।तांगेल में हवाई हमले, जिसे 5,000 सैनिकों के पैराड्रॉप के रूप में बताया जाता है, वह पाकिस्तान के लिए एक मनोवैज्ञानिक झटका था।

तत्कालीन भारतीय सेना प्रमुख जनरल सैम मानेकशॉ ने 8 दिसंबर को जेसोर पर नियंत्रण के बाद पाकिस्तानी सैनिकों के लिए एक संदेश प्रसारित किया, जिसमें पाकिस्तानी सैनिकों को चेतावनी दी गई और उन्हें आश्वासन दिया गया कि “एक बार जब आप आत्मसमर्पण कर देंगे, तो आपके साथ जिनेवा कन्वेंशन के अनुसार सम्मानजनक व्यवहार किया जाएगा”। 10 दिसंबर को एक अन्य संदेश में जनरल मानेकशॉ ने कहा, “आपका प्रतिरोध वीरतापूर्ण है लेकिन निष्फल है… आपके कमांडर झूठी उम्मीदें दे रहे हैं।”

अमेरिका, चीन से नहीं मिल सकी पाकिस्तान को मदद

लेफ्टिनेंट जनरल नियाज़ी ने कथित तौर पर आत्मसमर्पण के बाद मेजर जनरल जेएफआर जैकब से कहा कि उन्होंने सैनिकों के हथियार छोड़ने से कम से कम सात दिन पहले हार मान ली थी। पाकिस्तान ने अपनी उम्मीदें अमेरिका और चीन पर लगा रखी थीं। दरअसल चीनी ‘सांस्कृतिक क्रांति’ के प्रभाव से उबर रहे थे और युद्ध में पड़ना उनके पक्ष में नहीं था। पूर्वी पाकिस्तान में अंदर तक घुसने और आपूर्ति लाइनों को बनाए रखने को सुनिश्चित करने के लिए सर्दियों में चीनी सैनिकों की बड़े पैमाने पर लामबंदी करनी पड़ती।

वहीं तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने अमेरिकी बेड़े की तैनाती का आदेश दिया, जिसमें उसके परमाणु-संचालित विमान वाहक – यूएसएस एंटरप्राइज शामिल थे। राष्ट्रपति निक्सन का मानना था कि अमेरिकी बेड़े की मौजूदगी से भारत पीछे हट जाएगा और भारत की नौसैनिक नाकेबंदी कमजोर पड़ जाएगी। हालांकि भारत-सोवियत संधि काम कर गई। जवाब में यूएसएसआर ने परमाणु मिसाइलों से लैस फ्रिगेट, क्रूजर, टैंकर और विध्वंसक तैनात किए। इस तैनाती ने दोनों महाशक्तियों को एक-दूसरे के खिलाफ ला दिया और संतुलन स्थापित हो गया। जिससे पूर्व में पाकिस्तान अकेला रह गया।

सरेंडर

संयुक्त वायु और नौसैनिक अभियानों के साथ पूर्वी पाकिस्तान तक किसी भी तरह की मदद की आपूर्ति को रोक दिया गया। 13 दिसंबर को, जनरल नियाज़ी ने पश्चिमी पाकिस्तान में रावलपिंडी को खतरे का एक सिग्नल भेजा, लेकिन लड़ाई जारी रखने और जितना संभव हो उतना क्षेत्र पर कब्जा करने के लिए कहा गया। एक दिन बाद, भारतीय वायु सेना ने ढाका में गवर्नर हाउस पर बमबारी की, उस वक्त वहां एक बैठक चल रही थी। हवाई हमले का ऐसा असर हुआ कि पूर्वी पाकिस्तान सरकार ने मौके पर ही इस्तीफा दे दिया। इसने ताबूत में आखिरी कील का काम किया और नियाज़ी ने अधिक लड़ाई के बजाय शांति को चुना।

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