Metro in dino Review: रिश्ते नाज़ुक होते हैं, लेकिन अगर उन्हें प्यार, समझ और संयम से पिरोया जाए तो वे बेहद खूबसूरत बन जाते हैं’ — अनुराग बसु की नई फिल्म ‘मेट्रो…इन दिनों‘ इसी तरह के सोच को सुरों, संवादों और सादगी के संग बुनती है। ये फिल्म न सिर्फ रिश्तों की परतें खोलती है, बल्कि उन खामोशियों की भी आवाज़ बनती है, जिन्हें हम अक्सर अनदेखा कर जाते हैं।
फिल्म की सबसे बड़ी खूबसूरती इसका प्लॉट स्ट्रक्चर है, जिसमें चार अलग-अलग कहानियां समानांतर चलती हैं — लेकिन कहीं भी ये कहानियां एक-दूसरे में टकराती नहीं, बल्कि एक-दूसरे के बगल से इतनी खूबसूरती से बहती हैं कि दर्शक को ट्रांजिशन महसूस ही नहीं होता। चाहे वह स्कूल वाला मासूम प्यार हो, शादी के बाद का उलझा हुआ रिश्ता हो या फिर सेक्शूअल पहचान की जटिलता, अनुराग बसु ने हर चीज को बहुत संवेदनशीलता के साथ दिखाया है।
दमदार स्टारकास्ट, हर किरदार को मिला स्पेस
फिल्म की कास्टिंग इसकी एक और बड़ी ताकत है। सारा अली खान (चुमकी), आदित्य रॉय कपूर (पार्थ), अली फजल (आकाश), फातिमा सना शेख (श्रुति), पंकज त्रिपाठी (मोंटी), कोंकणा सेन शर्मा (काजोल), नीना गुप्ता (शिवानी) और अनुपम खेर (परिमल) जैसे अनुभवी और युवा कलाकारों ने मिलकर इस इमोशनल मोज़ेक को सजीव कर दिया है।
हर किरदार की बैकस्टोरी को म्यूजिकल अंदाज में पेश किया गया है — जो फिल्म की शुरुआत से ही उसकी टोन सेट कर देता है। जहां पार्थ और श्रुति की स्टोरी नई शुरुआत की उम्मीद दिखाती है, वहीं मोंटी और काजोल की कहानी रिश्तों में आई थकावट और दोबारा जुड़ने की कोशिश को दर्शाती है।
पंकज त्रिपाठी फिर लूट ले गए मेला, कोंकणा सेन की दमदार एक्टिंग
मेट्रो…इन दिनों के सबसे चटपटे और सिनेमाई रूप से संतुलित हिस्सों में से एक है मोंटी और काजोल की कहानी — और इस ट्रैक को जीवंत बना दिया है पंकज त्रिपाठी और कोंकणा सेन शर्मा की कमाल की कॉमिक केमिस्ट्री ने। दोनों ने एक दूसरे के किरदारों को बेहतरीन तरीके से कॉम्प्लीमेंट किया।
यह फिल्म 2007 की लाइफ इन अ…मेट्रो का प्रीक्वल मानी जा रही है, जहां दिवंगत इरफान खान का मोंटी दर्शकों को बेहद पसंद आया था। उसी किरदार की विरासत को इस बार पंकज त्रिपाठी ने अपने खास अंदाज़ और सहज ह्यूमर के साथ जिया है — और कहना गलत नहीं होगा कि उन्होंने एक बार फिर स्क्रीन पर आते ही सारा मेला लूट लिया।
पंकज त्रिपाठी का मोंटी इस बार एक ऐसा शादीशुदा आदमी है, जिसकी ज़िंदगी अब रोमांस नहीं बल्कि रूटीन से भरी है। भागदौड़, बच्चों की जिम्मेदारी, नौकरी और सोशल मीडिया की परफेक्ट इमेज — इन सबके बीच मोंटी और काजोल (कोंकणा सेन शर्मा) का रिश्ता धीरे-धीरे थकने लगा है। लेकिन बाहर से दोनों अब भी ‘आदर्श दंपति’ की परिभाषा लगते हैं।
कहानी में दिलचस्प मोड़ तब आता है जब मोंटी अपने दोस्त के अफेयर से प्रेरित होकर एक फेक डेटिंग प्रोफाइल बना लेता है, और दूसरी महिलाओं से बातचीत शुरू करता है। लेकिन मामला तब पलटता है जब काजोल को शक होता है और वह भी एक फेक प्रोफाइल बनाकर अपने ही पति को रंगे हाथ पकड़ने का प्लान बनाती है।
यहां से शुरू होता है दोनों के बीच की मजेदार जासूसी, तकरार और एक दूसरे को मात देने की होड़ — जिसे पंकज त्रिपाठी और कोंकणा सेन ने इतना ऑर्गेनिक और ह्यूमरस बना दिया है कि थिएटर में हंसी के ठहाके गूंजने लगे।
कोंकणा सेन शर्मा ने काजोल को जिस सहजता से जिया है, वो यह भूलने नहीं देता कि ये एक फिल्मी किरदार है। उनकी आंखों में थकान भी है, शिकायत भी और प्यार भी — और पंकज त्रिपाठी के साथ उनकी नोकझोंक, चुप्पियां और चटपटी लड़ाइयां रिश्तों की असलियत को बखूबी पेश करती हैं।
इस ट्रैक की सबसे बड़ी जीत यही है कि यह हमें हंसाते हुए उस सच से रूबरू कराता है जिसे हम अक्सर नजरअंदाज कर देते हैं — कि परफेक्ट रिश्तों की तस्वीरों के पीछे भी कई अधूरे संवाद और अनकहे जज़्बात होते हैं।
मेट्रो…इन दिनों में पंकज त्रिपाठी और कोंकणा सेन शर्मा की जुगलबंदी एक बेहतरीन उदाहरण है कि कैसे कॉमेडी और इमोशन को संतुलित किया जा सकता है।
सेक्शूअलिटी और इंसान की पहचान पर सधा हुआ दृष्टिकोण
प्यार, तकरार, शक और धोखे जैसे भावनात्मक पहलुओं के अलावा, फिल्म में सेक्शुअलिटी और यौन वरीयता (Sexual preference) जैसे संवेदनशील विषयों को भी समझदारी से छुआ गया है। दिलचस्प बात यह है कि फिल्म में मुख्य किरदारों के साथ-साथ सपोर्टिंग कैरेक्टर्स को भी भरपूर स्क्रीन टाइम मिला है। इन किरदारों की कहानियां भी बीच-बीच में फिल्म की रफ्तार में शामिल होती रहती हैं। फिल्म मेनी मोंटी और काजोल की बेटी (पीहू) का ट्रैक इसका सटीक उदाहरण है। वह एक 15 वर्षीया लड़की है, जो अपनी सेक्शुअल प्रेफरेंस को लेकर उलझन में है। उसे समझ नहीं आता कि उसे लड़के पसंद हैं या लड़कियां। अनुराग बसु ने इस विषय को किसी हाइपरड्रामा में बदले बिना बड़ी संवेदनशीलता और नजाकत से पेश किया है। न कोई जजमेंट, न कोई उपदेश — बस एक सहज स्वीकार्यता कि हर इंसान की अपनी पहचान होती है, और उसका सम्मान किया जाना चाहिए। यह ट्रीटमेंट फिल्म को सिर्फ एक रोमांटिक ड्रामा नहीं, बल्कि इमोशनली समकालीन सिनेमा का दर्जा देता है।
म्यूजिक: सुरों में बहती हैं भावनाएं
फिल्म एक म्यूजिकल ड्रामा है और इसका म्यूजिक इसकी आत्मा है। प्रीतम के संगीत निर्देशन में बने गाने सुनने में मधुर हैं, भले ही शायद वो चार्टबस्टर न बनें। अरिजीत सिंह, पापोन, विशाल मिश्रा जैसे गायकों की आवाज़ें किरदारों के मूड के मुताबिक इस्तेमाल की गई हैं। खास बात यह कि एक-एक गाना आपको किरदारों से जोड़ता है।
यह भी रोचक है कि एक गाना आदित्य रॉय कपूर ने खुद गाया है, जबकि एक गीत में अनुपम खेर की आवाज़ सुनने को मिलती है — जो उनके किरदार को और विश्वसनीय बनाता है।
अनुराग बसु की दमदार वापसी
करीब 8 साल बाद बड़े पर्दे पर बतौर डायरेक्टर लौटे अनुराग बसु ने दिखा दिया है कि वे आज भी मल्टी-नैरेटिव फिल्मों के उस्ताद हैं। मेट्रो…इन दिनों को देखकर उनकी पिछली फिल्में लाइफ इन ए मेट्रो, लूडो और जग्गा जासूस की झलक जरूर मिलती है, लेकिन ये फिल्म पूरी तरह से एक नई सोच और नए व्याकरण के साथ आती है।
फिल्म की रिलीज 4 जुलाई को सिनेमाघरों में हुई और यह कहना गलत नहीं होगा कि यह फिल्म सिनेमाघरों में ही जाकर देखने लायक है। यह सिर्फ एक फिल्म नहीं, बल्कि एक इमोशनल एक्सपीरियंस है — जो आपको हंसाएगा, रुलाएगा और शायद थोड़ा भीतर से झकझोर भी देगा।
‘मेट्रो…इन दिनों‘ एक ऐसी फिल्म है जो रिश्तों की रेशमी बुनावट को छूती है। यह फिल्म एक टोकन लव स्टोरी नहीं है, बल्कि उन कहानियों का संग्रह है जो हमारे-आपके जैसे आम लोगों की जिंदगी में हर रोज़ घटती हैं — बस हम उन्हें समझ नहीं पाते, देखते हैं भी तो इग्नोर कर देते हैं। अनुराग बसु ने अपने अंदाज में इन्हें म्यूजिक, इमोशन और ह्यूमर के धागों से जोड़कर एक खूबसूरत सिनेमाई कढ़ाई तैयार की है।
अगर आपको मल्टी-लेयर्ड स्टोरीज़, बेहतरीन परफॉर्मेंस और दिल छू लेने वाले डायलॉग्स पसंद हैं, तो मेट्रो…इन दिनों को मिस करना शायद एक गलती होगी।