-Shweta Rai
Geeta Dutt Death Anniversary: खूबसूरती और मखमली सुरीली आवाज़ जिसे जब भी सुनो ऐसा लगता है मानो कानों में मिश्रीसी घुली हो, दर्द इतना की उसकी कशिश में दिल खिंचा चला आये और चुलबुली इतनी की मस्ती सी छा जाये…जी हाँ हम बात कर रहे हैं दिल को छूने वाली आवाज की जादूगरनी गायिका गीता दत्त की। हालांकि इनका जीवन काफी उतार चढ़ाव से भरा था । यही वजह थी कि इनके गानों में उसका दर्द और मासूमियत दोनों ही झलकती है।

फ़िल्म जगत् में गीता दत्त के नाम से मशहूर गीता घोष रॉय चौधरी का जन्म 23 नवंबर 1930 को फरीदपुर शहर में हुआ था। जब वह महज 12 वर्ष की थीं। तब उनका पूरा परिवार बांग्लादेश के फरीदपुर से से मुंबई आ गया। उनके पिता ज़मींदार थे इसलिये कभी भी उन्हें आर्थिक दिक्कत का सामना नहीं करना पड़ा। जब इनके पिता मुम्बई आये तो दादर इलाके में एक फ्लैट ले लिया।
बचपन से ही गीता का रुझान संगीत की ओर था तो वो एक दिन अपने फलैट पर ऐसे ही कुछ गुनगुना रहीं थी तभी वहाँ से गुज़र रहे संगीतकार हनुमान प्रसाद ने उनकी मीठी और सधी आवाज़ सुनी और निर्णय लिया कि वो गीता को संगीत की शिक्षा देगें। इसके लिये उन्होंने उनके पिता को भी मना लिया और यहीं से गीता के संगीत सीखने का सफऱ शुरू हुआ।
गीता दत्त को सबसे पहले वर्ष 1946 में फ़िल्म ‘भक्त प्रहलाद’ के लिए गाने का मौका मिला और इस फिल्म के दो गानों में उन्होंने केवल दो लाइनें ही गायी थीं जिसके संगीतकार खुद प्रसाद जी थे लेकिन उन दो लाइनों ने एक अलग तरह की मिठास लोगों के कानों में घोली और इसी के साथ एक सिंगर के रूप में गीता का करियर शुरू हुआ। गीता दत्त ने ‘कश्मीर की कली’, रसीली, सर्कस किंग जैसी कई फ़िल्मों के लिए भी गीत गाए लेकिन इनमें से कोई भी बॉक्स आफिस पर सफल नहीं हुई। इस बीच उनकी मुलाकात महान् संगीतकार एस.डी. बर्मन से हुई।
गीता रॉय ने एस. डी. बर्मन को फ़िल्म इंडस्ट्री का उभरता हुआ सितारा दिखाई दिया और उन्होंने गीता रॉय से अपनी अगली फ़िल्म ‘दो भाई’ के लिए गाने की पेशकश की। वर्ष 1947 में प्रदर्शित फ़िल्म ‘दो भाई’ गीता दत्त के सिने कैरियर की अहम फ़िल्म साबित हुई और इस फ़िल्म में उनका गाया गीत ‘मेरा सुंदर सपना बीत गया’ लोगों के बीच काफ़ी लोकप्रिय हुआ। इसके बाद बतौर पार्श्वगायिका गीता रॉय अपनी पहचान बनाने में सफल रहीं।

Geeta Dutt Death Anniversary: गुरु दत्त की छोटी बहन ललिता लाजमी दोनों के प्रेम पत्र ले जाया करती थीं…
गुरु दत्त की बतौर डायरेक्टर पहली फिल्म ‘बाज़ी’ के एक गाने की रिकॉर्डिंग मुंबई के महालक्ष्मी स्टूडियो में हो रही थी। गाना था “तदबीर से बिगड़ी हुई तक़दीर बना ले”. इसे गाने आई थीं 20-21 साल की खूबसूरत युवती गीता… उस समय गीता रॉय एक पार्श्व गायिका के रूप में मशहूर हो चुकी थीं और कई भाषाओं में 400-500 से ज्यादा गाने गा चुकी थीं। इस सेट पर गुरूदत्त और गीता दोनों एक दूसरे को चाहने लगे। उस समय गीता जी के पास एक लंबी गाड़ी हुआ करती थी, वो गुरुदत्त से मिलने उनके माटुंगा वाले फ़्लैट पर आया करती थीं।

गुरु दत्त का बड़ा परिवार था और घर छोटा था। लेकिन गीता इतनी सरल थीं कि रसोई में सब्ज़ी काटने बैठ जाया करती थीं। अपने घर से वो ये कह कर निकलती थीं कि वो गुरु दत्त की बहन से मिलने जा रही हैं। उस दौरान राज खोसला गुरु दत्त के असिस्टेंट हुआ करते थे। उन्हें गाने का बहुत शौक था।
गुरु दत्त के यहाँ होने वाली बैठकों में राज खोसला और गीता रॉय डुएट गाया करते थे और पूरा दत्त परिवार बैठ कर उनके गाने सुनता और गुरु दत्त की छोटी बहन ललिता लाजमी गुरू दत्त और गीता के प्रेम पत्र एक दूसरे के लिए ले जाया करती थीं। तीन साल प्रेम के बाद दोनों ने शादी कर ली। साल था 1953, गोधूलि बेला में बंगाली रस्मों से दोनों का विवाह हुआ। इसके बाद खार इलाके में एक किराये के फ्लैट में गीता-गुरु दत्त रहने लगे। दोनों के तीन बच्चे हुए।

जब गीता और गुरूदत्त के रिश्तों में दरार आने लगी…
साल 1957 मे गीता दत्त और गुरुदत्त की विवाहित ज़िंदगी मे दरार आने लगी। कहा जाता है कि गुरुदत्त ने गीता दत्त के काम में दख़ल देना शुरू कर दिया था। वह चाहते थे की गीता दत्त केवल उनकी बनाई फ़िल्म के लिए ही गीत गायें। काम के प्रति समर्पित गीता दत्त तो पहले इस बात के लिये राजी नहीं हुई लेकिन बाद में गीता दत्त ने किस्मत से समझौता करना ही बेहतर समझा। धीरे-धीरे अन्य निर्माता निर्देशकों ने गीता दत्त से किनारा करना शुरू कर दिया। कुछ दिनों के बाद गीता दत्त अपने पति गुरुदत्त के बढ़ते दख़ल को बर्दाशत न कर सकीं और उन्होंने गुरुदत्त से अलग रहने का निर्णय कर लिया।
इस बात की एक सबसे बड़ी वजह यह भी रही कि उस समय गुरुदत्त का नाम अभिनेत्री वहीदा रहमान के साथ भी जोड़ा जा रहा था जिसे गीता दत्त सहन नहीं कर सकीं। गुरुदत्त के दोस्त अबरार अल्वी अपनी किताब ‘टेन ईयर्स विद गुरुदत्त’ में इन दोनों के रिश्ते के बारे में लिखते हैं, कि उस वक्त भारत में गुरुदत्त के मुसलमान बनकर वहीदा से शादी की चर्चाएं जोरों पर थीं। दत्त की पत्नी गीता लंदन में थीं। उन्हें जल्द ही घर लौटना था, लेकिन नाराज़ होकर वह घर लौटने के बजाय अपने कश्मीर स्थित घर चली गईं। दिन हफ्तों में तब्दील हो गए पर गीता घर वापस आने का नाम नहीं ले रही थीं। जब गुरुदत्त का धैर्य जवाब देने लगा तो उन्होंने गीता के ऊपर वापस आने की लिए दबाव डालना शुरू किया।
गीता भी सख्त मिजाज़ थीं। उन्होंने जवाब में संदेश भेजा कि घोड़े से गिर जाने के कारण उनके कंधे में चोट आ गई है और अगले कुछ हफ्तों वह किसी तरह की यात्रा नहीं कर पाएंगी। गुरुदत्त भावनाओं को लेकर बहुत संवेदनशील थे। उन्होंने तुरंत गीता के स्वास्थ्य को लेकर चिंता होने लगी और उनका हाल जानने के लिये अपने सहायक श्याम कपूर को कश्मीर भेजा लेकिन श्याम कपूर कश्मीर में उनका हाल देखकर उल्टे पांव लौट आए। उनके सहायक ने लौटकर बताया कि गीता को कोई चोट नहीं लगी है। उनके मुंबई वापस न लौटने का कारण एक आकर्षक पाकिस्तानी युवक था। गीता की मुलाकात उससे लंदन में हुई थी, लेकिन अब दोनों कश्मीर की वादियों में खोए हुए हैं। गुरुदत यह खबर सुनकर सन्न रह गए। उन्हें कतई विश्वास नहीं हो रहा था कि उनकी पत्नी किसी दूसरे पुरुष के साथ वक्त बिता रही हैं। लेकिन उसी वक्त उनके ज़ेहन में यह खयाल भी आया कि वह खुद भी उसी रास्ते पर हैं।
गुरूदत्त के जाने के बाद गीता की ज़िन्दगी वीरान हो गयी…
जब गुरु दत्त 1958 में अपनी फिल्म ‘काग़ज के फूल’ बना रहे थे। ये वो वक्त था जब उनके वहीदा रहमान से संबंधों के कारण घर में कलह चल रही थी। गीता दुखी थीं औऱ फिल्म की कहानी भी उनके और गुरूदत्त के जीवन की हकीकत थी और इत्तेफाक देखिये कि उस फिल्म के सारे गाने गीता दत्त ने गाये जो वहीदा पर फिल्माये गये थे । अब आप समझ सकते हैं कि उस वक्त उनके दिल की कैफियत क्या रही होगी।
ऐसा नहीं था कि गीता को गुरु दत्त से प्यार नहीं था लेकिन दोनों के रिश्तों में इतनी तल्खी आ चुकी थी कि अब शायद दोनों का रिश्ता जुड़ना मुश्किल था । सन् 1964 में गुरु दत्त अपने फ्लैट में मृत मिले। शराब और नींद की गोलियों के साथ उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया और गीता इस दुख से निराशा के भंवर में डूबती चलीं गयी और खुद उन्होंने अपने दुखों से निजात पाने के लिये उसी चीज़ का सहारा लिया जिसका गुरूदत्त ने लिया था यानि वो खुद शराब पीने लगीं।
“सपनों की उड़ान का कोई अंत नहीं” गीता ने अपने दुख को कुछ यूँ बयाँ किया…
गुरु दत्त के निधन के बाद एक बार गीता दत्त विविध भारती पर एक कार्यक्रम में आयीं थी ।उस दिन फ़िल्म ‘प्यासा’ का एक गीत बजाते हुए उनके शब्दों से दर्द फूट पड़ा और इन्होने इसे कुछ इस अंदाज में बयां किया- “अब मेरे सामने है फ़िल्म ‘प्यासा’ का रिकॉर्ड और इसी के साथ याद आ रही है मेरे जीवन की सुख भरी, दुख भरी यादें, लेकिन आपको ये सब बताकर क्या करूँगी ! मेरे मन की हालत का अंदाज़ा आप अच्छी तरह लगा सकते हैं। इस फ़िल्म के निर्माता थे मेरे पतिदेव गुरु दत्त जी। सपनों की उड़ान का कोई अंत नहीं, कोई सीमा नहीं, न जाने यह मन क्या क्या सपने देख लेता है और जब सपने भंग होते हैं, तो कुछ और ही हक़ीक़त सामने आती है।”
गीता ने गुरुदत्त की फिल्मों के गाने को गले से नहीं, बल्कि दिल से निभाया…
वाकई में कितना दर्द गीता दत्त की जिंदगी में, गीता दत्त ने गुरुदत्त की फिल्मों में खूब गाया गले से नहीं, बल्कि दिल से गानों को निभाया। उनके मन की बेचैनी छटपटाहट एक-एक शब्द से रिसती है। ‘साहब बीवी और गुलाम’ फिल्म भले ही छोटी बहू यानि कि मीना कुमारी की फिल्म रही हो, लेकिन इस गानें “न जाओ सैंया, छुड़ा के बैंया, कसम तुम्हारी मैं रो पड़ूँगी” छोटी बहू का दर्द, शिकायत, अकेलेपन की पीड़ा, पति की बेवफाई को गीता की आवाज ने पर्दे पर ऐसा उतारा मानो कि ये उनका ही ग़म है ।
गीता के साथ किस्मत, जमाने और अपने-परायों ने बहुत नाइंसाफी की । एक और नाइंसाफी फिल्म ‘सुजाता’ के गीत की उनके साथ हुई जो सत्ताईस बरस तक लगातार चलती रही। ‘सुजाता’ का एक गाना है ‘तुम जियो हजारों साल, साल के दिन हों पचास हजार।‘ सचिन देव बर्मन ने यह गाना गीता दत्त के अलावा आशा जी से भी गवाया था। ऐन वक्त पर गीता की आवाज़ फाइनल हुई, मगर ग्रामोफोन कंपनी को नाम आशा का चला गया।
सत्ताईस वर्ष तक यह गीत आशा के नाम से बजता रहा। पर एक बार जब आशा अमेरिका टूर पर गईं तो वहाँ के एक रेडियो स्टेशन पर उनका इंटरव्यू हुआ। वहाँ के अनाउंसर ने उन्हें ‘सुजाता’ का गीत आशा को सुनाकर पूछा- ‘बताइए किसकी आवाज है?’ आशा का जवाब था-‘गीता की’… वाकई में जब तकदीर ही खेल करे तो तदबीर कैसे बदली जा सकती है।
जीवन के आखिरी पड़ाव में उन्हें काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा। अपने परिवार का पालन पोषण करने के लिये अब वो मंचों पर गाने लगीं थीं क्योंकि उन्हें फिल्मों में गाने मिलने बंद हो गये थे। कहा जाता है कि एक इवेंट में जब बहुत सारे सिंगर गाने के लिए जुटे। जिसमें मोहम्मद रफी से लेकर लता मंगेशकर तक बड़े बड़े गायक थे। लता जब मंच पर आईं तो भीड़ उनके गाने को सुनने के लिये दीवानी हो गई। उनके गानों को भरपूर तालियां मिलीं। अंत में गीता मंच पर आईं। दर्शकों ने उन्हें पहचाना तक नहीं वे आईं, अपना गाना गाया और चली गईं। तालियां और प्रशंसा उनके हिस्से नहीं आईं। एक आर्टिस्ट के साथ भीड़ का ये सबसे बर्बर और अमानवीय बर्ताव था। उस भीड़ को गीता की लैगेसी नहीं पता थी कि वो लता से कहीं भी कम नहीं थीं।
‘याद करोगे एक दिन हमको याद करोगे’ गीत के साथ दुनिया से कहा अलविदा…
1971 में गीता ने ‘अनुभव’ फिल्म में गाने गाए। जीवन में इतने तनाव और दुख को दौर में भी इस फिल्म में ऐसे गीत गाए जो आज भी यादगार हैं। लीवर की बीमारी की वजह से 20 जुलाई 1972 को गीता दत्त हम सबको छोड़कर चली गईं। वो सिर्फ 42 साल की थीं जब रेडियो पर उनके जाने की खबर उनके गाए गीत ‘याद करोगे एक दिन हमको याद करोगे’ के साथ सुनाई गई औऱ इसी के साथ वो मखमली ,दर्दभरी आवाज़ की मल्लिका ने हमेशा के लिये दुनिया को अलविदा कह दिया लेकिन अपने पीछे छोड़ गयीं सुरीली ,मधुर आवाज़ की वो विरासत जो आज भी संगीत प्रेमियों के दिलों में रहती है।
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