नवरात्र में बंगाली समाज की महिलाओं के चेहरे पर एक अलग ही रौनक होती है। नौ दिन महिलाओं का चेहरा मुस्कान से सजा रहता है। मांग में सिंदूर, हाथ में आलते की मेंहदी खूब जचती है। साल का नौ दिन बंगाली महिलाओं के लिए सबसे बड़ा दिन होता है क्योंकि नवरात्र में मां दुर्गा के आगमन की खुशी ये महिलाएं सजी-धजी रहती हैं। इनसब से हटकर नवरात्र महिला सम्मान से भी जुड़ा हुआ है।

मां की प्रतिमा वेश्यालय की मिट्टी के बिना है अधुरी

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पारंपरिक मान्यताओं के अनुसार दुर्गा मां की प्रतिमा बनाने के लिए कुछ आवश्यक वस्तुओं की जरूरत होती है जैसे की गौमूत्र, गोबर, लकड़ी, जूट के ढांचे, सिंदूर, धान के छिलके, पवित्र नदियों की मिट्टी, खास वनस्पतियां और निषिद्धो पाली की रज. (निषिद्धो पाली, यानी वर्जित क्षेत्र और रज यानी मिट्टी.) इसका मतलब है बाकी चीजों से साथ-साथ उस जगह की मिट्टी भी जरूरी है जो वर्जित क्षेत्र है। यानी वेश्यालय। इस मिट्टी को यदि दुर्गा की प्रतिमा बनाने के लिए इस्तेमाल न किया जाए तो  देवी की प्रतिमा अपूर्ण मानी जाती है और दुर्गा मां की प्राण प्रतिष्ठा नहीं होती। इसलिए दुर्गा पूजा के दौरान वेश्यालय की मिट्टी का इस्तेमाल मां की प्रतिमा बनाने के लिए किया जाता है।

कहा जाता है कि वेश्यालय की गलियों से गुजरने पर शरीर अपवित्र हो जाता है। तो ऐसा क्या है जो मां कि प्रतिमा इस मिट्टी के बिना अधुरी रहती है ?

कहा जाता है कि ये मिट्टी समाज की वो लालसाएं हैं जो कोठों पर जमा हो जाती हैं। इसे दुर्गा को अर्पित किया जाता है ताकि जिन्होंने ग़लतियां की हैं, उन्हें पापों से मुक्ति मिल जाए।

वेश्यालय की मिट्टी की कहानी

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एक पौराणिक कथा के अनुसार, एक वेश्या दुर्गा मां की बहुत बड़ी भक्त थी। लेकिन वेश्या होने की वजह से समाज उसका तिरस्कार करता था। तब मां ने अपनी इस भक्त को तिरस्कार से बचाने के लिए उसे वरदान दिया था कि उसके हाथ से दी हुई मिट्टी से ही देवी की मूर्ति बनेगी और इस मिट्टी के उपयोग के बिना प्रतिमाएं पूरी नहीं होंगी। जानकारों के मुताबिक शारदा तिलकम, महामंत्र महार्णव, मंत्रमहोदधि आदि ग्रंथों में इसकी पुष्टि की गई है।

एक मान्यता ये भी है कि जब कोई व्यक्ति किसी वेश्यालय के अंदर जाता है तो वह अपनी सारी पवित्रता वेश्यालय की चौखट के बाहर ही छोड़ देता है और इसलिए चौखट के बाहर की मिट्टी पवित्र हो जाती है।

बेटी की तहर विदाई

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नवरात्र के छठे दिन, यानी षष्ठी को मां दुर्गा की मूर्ति को पंडाल में स्थापित किया जाता है। और शाम को उनके मुख से आवरण हटाया जाता है। कहा गया है कि दुर्गा मां गणेश, कार्तिकेय, लक्ष्मी और सरस्वती के साथ 10 दिनों के लिए अपने मायके आती हैं। हर पंडाल में देवी की पूजा की जाती है और खुशियां मनाई जाती हैं. नाचना गाना, सजना संवरना सबकुछ। यानी बेटी मायके आती है तो परिवार में जैसी खुशी होती है वैसी। ये 4 दिन बहुत मुख्य माने गए हैं। और दशमी को सुबह महिलाएं मां दुर्गा की प्रतिमा को सिंदूर लगाने पंडाल आती हैं और वहां सिंदूर की होली खेलती हैं। इसे ‘सिंदूर खेला’ कहा जाता है। और इसके बाद देवी की प्रतिमा को विदाई दी जाती है, उन्हें विसर्जित कर दिया जाता है।

इस दिन हर महिला मां दुर्गा को बेटी की तरह विदाई देती है। यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि दुर्गा जो पूरे संसार की मां हैं, वो इस दिन बेटी की तरह विदा होती हैं। और उन्हें हंसी खुशी विदा करने की ही परंपरा है, कोई रोता नहीं क्योंकि अगले साल मां को फिर आना ही है। यानी हर महिला के दिल में मां दुर्गा के लिए बेटी जैसा प्यार और सम्मान है।

यहां ये भी बताने की कोशिश की गई है कि जिस तरह मायके आई बेटी को मान सम्मान दिया जाता है उसी मान सम्मान की हकदार दुनिया की हर बेटी है। समाज में बेटी और बहू दोनों का अपना अलग-अलग महत्व है। लेकिन दोनों की तुलना की जाए तो प्यार और सम्मान बेटियों को ज्यादा मिलता है। इस त्योहार के जरिए समाज को ये संदेश जाता है कि हर महिला का सम्मान बेटी की ही तरह किया जाना चाहिए।

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