Supreme Court का कहना है कि वर्कप्लेस पर यौन उत्पीड़न को रोकने के लिए कानून तब तक पीड़ित के लिए मददगार नहीं हो सकता जब तक कि अपील की व्यवस्था ही ‘सज़ा’ जैसी बने रहे। जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस एएस बोपन्ना की बेंच ने कहा,‘यह महत्वपूर्ण है कि अदालतें यौन उत्पीड़न के खिलाफ अधिकार की भावना को बनाए रखें, जो संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत सभी व्यक्तियों को जीवन जीने और सम्मान के साथ जीने का अधिकार देता है।’
”शिकायतकर्ता को कई बाधाओं का सामना करना पड़ता है”
शीर्ष अदालत ने यौन दुराचार की जांच की कार्यवाही के अमान्य होने की बढ़ती प्रवृत्ति पर प्रकाश डाला। शीर्ष अदालत ने कहा, ‘यौन उत्पीड़न से पीड़ित एक अधीनस्थ को अपने वरिष्ठ के यौन दुराचार की रिपोर्ट करने से पहले कई तरह के विचारों और बाधाओं का सामना करना पड़ता है।’ सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए केंद्र सरकार द्वारा कलकत्ता हाईकोर्ट के खंडपीठ व एकलपीठ के उस फैसले के खिलाफ दाखिल याचिका को स्वीकार कर लिया जिसमें बीएसएफ के महानिदेशक द्वारा एक कांस्टेबल को यौन दुराचार का दोषी ठहराने के फैसले को गलत ठहराया गया था। महानिदेशक द्वारा हेड कांस्टेबल को कड़ी फटकार के साथ पदोन्नति के लिए पांच साल की सेवा जब्ती और पेंशन के लिए सात साल की सेवा जब्ती की सजा सुनाई गई थी। जबकि हाईकोर्ट ने इस फैसले को पलट दिया था।
सुप्रीम कोर्ट ने मामले के गुण-दोष पर टिप्पणी किए बिना कहा, ‘यह स्पष्ट है कि घटना की तारीख के बारे में विसंगति मामूली प्रकृति की थी क्योंकि घटना आधी रात के तुरंत बाद और अगले दिन हुई थी। हालांकि इस तरह के एक तुच्छ पहलू को बड़ी प्रासंगिकता मानते हुए आरोपी के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की संपूर्णता को अमान्य करते हुए और उसे उसके पद पर बहाल करने से शिकायतकर्ता का उपाय शून्य हो गया।’
शीर्ष अदालत ने आगे कहा, इस मामले में हाईकोर्ट द्वारा न केवल कमांडेंट के अधिकार क्षेत्र की व्याख्या दोषपूर्ण है बल्कि कार्यवाही की गंभीरता के प्रति एक कठोर रवैया भी प्रदर्शित किया।
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