बनारस के बुनकरों की दुर्दशा को बयां करता है ‘झीनी-झीनी बीनी चदरिया’ उपन्यास

लेखक अब्दुल बिस्मिल्लाह के बारे में बात करें तो अब्दुल बिस्मिल्लाह का जन्म 5 जुलाई 1949 को हुआ था।

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Jheeni Jheeni Beeni Chadariya
Jheeni Jheeni Beeni Chadariya

Jheeni Jheeni Beeni Chadariya:‘झीनी-झीनी बीनी चदरिया’ उपन्यासकार अब्दुल बिस्मिल्लाह द्वारा लिखा गया उपन्यास है। यह उपन्यास बनारस के साड़ी बुनकरों पर आधारित है। उपन्यास अब्दुल बिस्मिल्लाह की पहली रचना है और इसे हिन्दी कथा साहित्य का एक मील का पत्थर माना जाता है। लेखक अब्दुल बिस्मिल्लाह ने इस उपन्यास के माध्यम से बनारस के बुनकरों की दुनिया को सामने रख दिया है। जब यह उपन्यास पढ़ते हैं तो ऐसा लगता है कि हम भी बुनकरों के उस मोहल्ले में रहते हैं और हम भी उपन्यास की उस दुनिया का एक अंग हैं। लेखक ने निश्चित रूप से बुनकरों के जीवन को बहुत करीब से देखा है इसलिए वे इस तरह बुनकरों के जीवन को अपनी रचना में गढ़ सके।

Jheeni Jheeni Beeni Chadariya: 'झीनी-झीनी बीनी चदरिया' के उपन्यासकार अब्दुल बिस्मिल्लाह
Jheeni Jheeni Beeni Chadariya: ‘झीनी-झीनी बीनी चदरिया’ के उपन्यासकार अब्दुल बिस्मिल्लाह

उपन्यास में कहानी मतीन और उसकी पत्नी अलीमुन के परिवार की इर्द-गिर्द घूमती है, जहां एक-एक कर कई किरदार आते-जाते हैं। मतीन इस उपन्यास का नायक है। अब्दुल बिस्मिल्लाह ने बहुत बारीकी से बुनकरों के जीवन की समस्याओं का वर्णन किया है। भले ही बुनकरों को होने वाली स्वास्थ्य संबंधी परेशानियां हों या कोई और समस्या। मसलन टीबी की बीमारी का जिक्र बार-बार उपन्यास में आता है जो बताता है कि किस तरह खाने-पीने की मुश्किलों का सामना कर रहे बुनकर टीबी जैसी बीमारियों से ग्रसित हो जाते हैं।

उपन्यास में लेखक बताते हैं कि कई बीमारियां तो साफ-सफाई के अभाव के चलते जन्म लेती हैं। गंदगी और उससे पनपने वाली बीमारियों के बीच ये बुनकर रहने को मजबूर हैं। लेखक ने बताया है कि ये बुनकर किस तरह का आहार ग्रहण करते हैं। नाश्ते में जहां ये बासी रोटियां खाते हैं तो वहीं किसी अच्छे पकवान को खाने को इनका जी ललचाता है। चूंकि भैंसे का गोश्त सस्ता है इसलिए पेट की भूख इन्हीं सब चीजों से शांत होती है।

उपन्यास के केंद्र बिंदु में बुनकरों की आर्थिक स्थिति है। कैसे वे अपने सामान गिरस्ता और कोठीवाल को कम दामों पर बेचने और मजूरी करने को मजबूर हैं। कैसे उनका आर्थिक उत्पीड़न किया जाता है। यहां तक कि सरकारी योजना का लाभ भी कैसे पाने को यह लोग मोहताज हैं इसकी बानगी सामने रखी गई है। इन बुनकरों के नाम पर कुछ लोग सरकारी योजनाओं का दोहन कर रहे हैं। सामाजिक पहलू की बात की जाए तो गरीब बुनकर समाज में मुसलमानों के बीच व्याप्त तलाक संबंधी कुप्रथा का जिक्र मिलता है। महिलाओं की दयनीय स्थिति का चित्रण लेखक ने किया है।

शिक्षा के नाम पर कैसे स्कूल और कॉलेजों का अभाव है और पूरी निर्भरता मदरसों पर है, इसके बारे में लेखक ने बताया है। बनारस के बुनकरों की धार्मिक मान्यताओं और रिवाजों का उल्लेख लेखक ने किया है। रमजान के महीने की दिनचर्या से लेकर मजार पर जाने तक सबकुछ लेखक ने लिखा है। यही नहीं धार्मिक संकीर्णता भी लेखक से छिपी नहीं रही है। उन्होंने इस पर भी लिखा है। राजनीति की झलक भी उपन्यास में देखने को मिलती है जहां बुनकरों के नाम पर सियासत तो बहुत चमकाई जाती है लेकिन आखिर में बुनकर महज एक वोट बैंक बनकर रह जाता है।

उपन्यास का सार यही है कि बुनकर अपनी इस स्थिति से ऊपर तो उठना चाहते हैं लेकिन उनकी परिस्थितियां उन्हें जकड़े हुए हैं। समय के साथ समाज में जागरूकता आती है। इस पुस्तक का पहला संस्करण वर्ष 1987 में आया था। तब से ही यह उपन्यास पाठकों को खूब पसंद आता रहा है। राजकमल प्रकाशन ने इस उपन्यास को छापा है। 250 रुपये की कीमत पर ये रचना पेपरबैक रूप में पढ़ने के लिए उपलब्ध है।

लेखक अब्दुल बिस्मिल्लाह के बारे में बात करें तो अब्दुल बिस्मिल्लाह का जन्म 5 जुलाई 1949 को हुआ था। वे हिन्दी साहित्य जगत के प्रसिद्ध उपन्यासकार हैं। ग्रामीण जीवन व मुस्लिम समाज के संघर्ष, संवेदनाएं, यातनाएं और अन्तर्द्वंद्व उनकी रचनाओं के मुख्य केन्द्र बिन्दु रहे हैं। उन्होंने उपन्यास के साथ ही कहानी, कविता, नाटक जैसी सृजनात्मक विधाओं के अलावा आलोचना भी लिखी है।

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