Narasimha Rao: पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के दौर में भारतीय राजनीति ने बड़ी करवट ली थी। राजीव गांधी की दुखद हत्या के बाद उपजी सहानुभूति को अधपके से भुनाने वाले राव कभी भी ठसकदार नहीं रहे। बेहद लचीले और सौम्य स्वभाव के कारण अक्सर विवादों में भी बने रहे, लेकिन सब कुछ होने के बावजूद 90 के दशक में कभी किसी ने उन्हें आक्रामक होते हुए नहीं देखा। 90 के दशक में लाइसेंस-परमिट राज के खात्मे और विश्व अर्थजगत के लिए भारत के दरवाजे खोलने वाले Narasimha Rao के निधन के बाद कांग्रेस आलाकमान ने उनके साथ जिस तरह का व्यवहार किया, उसे राजनीतिक पैमाने पर कहीं से भी उच्च प्रतिमानों वाला नहीं कहा जा सकता है।
21 मई 1991 को श्रीपेरंबदूर में जब श्रीलंका विद्रोहियों ने राजीव गांधी की हत्या की तो उस समय राजनीति का वनवास काट रहे नरसिम्हा राव नागपुर हवाईअड्डे पर थे। जैसे ही राजीव गांधी की हत्या के बारे में राव को पता चला वो फौरन ही दिल्ली पहुंचे। उस समय कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और बाद में देश के राष्ट्रपति बने प्रणब मुखर्जी ने नरसिम्हा राव को 10, जनपथ में एक किनारे बुलाकर कहा कि आपको काग्रेस का अध्यक्ष बनाया जा रहा है। राव ने मुखर्जी की इस बात पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और चुपचाप अपने आवास पर लौट गये।
राजीव गांधी की मौत के बाद संपन्न हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी को 232 सीटें मिलीं। कांग्रेस को बहुमत तो नहीं मिला लेकिन वो सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी। इसके बाद कांग्रेस के भीतरखाने शुरू हो गई प्रधानमंत्री की गद्दी पाने की राजनीति। राव इस राजनीति से दूर रहे क्योंकि उन्होंने साल 1984 में इंदिरा गांधी की मौत के बाद प्रणब मुखर्जी की पीएम बनने की महात्वाकांक्षा को टूटते हुए अपनी आखों से देखा था।
साल 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद प्रणब चाहते थे कि पीएम की गद्दी उन्हें मिले लेकिन राजीव गांधी की लोकप्रिय दावेदारी के आगे वो पार्टी में हाशिये पर चले गये थे। राव को डर था कि कहीं सोनिया गांधी की संभावित दावेदारी के आगे उन्हें भी बेइज्जत न होना पड़े। इसलिए वो सारे कदम बड़े गौर से उठा रहे थे।
पीएन हक्सर की सलाह पर Narasimha Rao को पीएम बनाया गया
राजीव की हत्या के बाद पीएम पद की दावेदारी की रेस में अर्जुन सिंह, शरद पवार, एनडी तिवारी और शंकर दलाय शर्मा सबसे आगे थे। शंकर दयाल शर्मा ने तो अपनी अवस्था और बीमारी का हवाला देते हुए विनम्रता से पीएम पद को ठुकरा दिया। सोनिया गांधी को अर्जुन सिंह और शरद पवार की दावेदारी जम नहीं रही थी। तब उन्होंने इंदिरा गांधी के निजी सचिव रहे पीसी एलेक्जेंडर से सलाह ली।
पीसी एलेक्जेंडर ने उन्हें पीएन हक्सर से मशवरा लेने को कहा। जिसके बाद पीएन हक्सर को बुलाया गया। गांधी परिवार के प्रति पीएन हक्सर की वफादारी जगजाहिर थी, उन्होंने छूटते ही नरसिम्हा राव का नाम लिया क्योंकि राव अर्जुन सिंह और शरद पवार की तुलना में काफी विनम्र थे और हक्सर वैसे भी नहीं चाहते थे कि राजीव गांधी के बाद कोई हिंदी भाषी पीएम पद पर बैठे।
कुछ मामले में देखें तो आगे चलकर पीएन हक्सर की सोच सही दिखाई देती है, जब अर्जुन सिंह और एनडी तिवारी कांग्रेस के खिलाफ बगावत करते हैं और शरद पवार तो सोनिया गांधी को ही विरोध का मुद्दा बनाते हुए कांग्रेस को छोड़ देते हैं। सोनिया गांधी ने नरसिम्हा राव के नाम पर मुहर लगा दी। अब इसे भाग्य का ही फेर कहेंगे कि दिल्ली से बोरिया बिस्तर बांध लेने वाले नरसिम्हा राव ने साल 1991 का आम चुनाव भी नहीं लड़ा था।
Narasimha Rao प्रधानमंत्री बनने के बाद नांदयाल सीट से उप चुनाव जीते और लोकसभा के सदस्य बने। 71 साल के राव ने बड़े ही खामोशी से राजनीति के बड़े-बड़े महारथियों को परास्त करके मोती लाल नेहरू मार्ग से 7 रेसकोर्स की ओर रुख किया।
खैर, इस तरह से 28 जून 1921 को करीमनगर में पैदा हुए नरसिम्हा राव पीएन हक्सर की सलाह और सोनिया गांधी की कृपा से प्रधानमंत्री बन तो गये लेकिन अगर गौर से देखें तो बतौर प्रधानमंत्री वो कभी मजबूत नहीं रहे। अल्पमत सरकार की कमान संभाले नरसिम्हा राव पर आरोप लगा कि उन्होंने संसद में बहुमत साबित करने के लिए शिबू सोरेन की पार्टी झारखंड मुक्तिमोर्चा के सांसदों को 1-1 करोड़ रुपये रिश्वत दी है।
Narasimha Rao पर लखुभाई पाठक धोखाधड़ी मामले में केस भी चला
इसके अलावा नरसिम्हा राव पर आरोप लगा कि उन्होंने लंदन के एक पापड़ व्यवसायी लखुभाई भाई पाठक से भारत में बिजनेस के मामले में कथित तौर पर परोक्ष रूप से रिश्वत ली। इस मामले में नरसिम्हा राव के खिलाफ केस भी चला और बतौर प्रधानमंत्री रहते हुए वह कोर्ट में पेश हुए। प्रधानमंत्री राव के लिए विज्ञान भवन में जज अजीत भरिहोक की विशेष कोर्ट लगाई गई, जिसमें वो बतौर पीएम अपने खिलाफ लगे आरोपों के मामले में पेश भी हुए।
Narasimha Rao की राजनीतिक छवि पर सबसे ज्यादा दाग लगे उनके गुरु नेमीचंद्र जैन ऊर्फ चंद्रास्वामी के कारण। कहा जाता है कि नरसिम्हा राव जब तक प्रधानमंत्री रहे, उनके आधिकारिक निवास 7 रेसकोर्स रोड पर चंद्रास्वामी बिना किसी सुरक्षा जांच-पड़ताल के सीधे उनके पास जाया करते थे। चंद्रास्वामी और कैलाश नाथ अग्रवाल ऊर्फ मामा जी के कारण नरसिम्हा राव को कई जगहों पर शर्मसार होना पड़ा। इसके साथ ही नरसिम्हा राव पर उनके कार्यकाल के दौरान भ्रष्टाचारियों को बढ़ावा देने, अयोध्या में बाबरी मस्जिद के विध्वंस, और कांग्रेस में गुटबाज़ी को बढ़ावा देने के भी आरोप लगे।
नरसिम्हा राव की कैबिनेट में शरद पवार को रक्षा मंत्री, अर्जुन सिंह को मानव संसाधन विकास मंत्री और राव के विशेष हस्तक्षेप के कारण मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री बनाया गया। नरसिम्हा राव के बाद कांग्रेस के प्रधानमंत्री बने मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू ने अपनी किताब ‘1991: हाउ पीवी नरसिम्हा राव मेड हिस्ट्री’ में लिखा है, ”पीवी नरसिम्हा राव पहले एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर थे। उन्होंने सरकार की कमान संभाली और राजनीतिक स्थिरता को बनाए रखा। कांग्रेस का नेतृत्व ग्रहण किया और ये साबित किया कि नेहरू-गांधी परिवार से परे भी उम्मीद रखी जा सकती थी।”
विंसेंट जॉर्ज को लेकर राव और सोनिया गांधी के बीच टकराहट शुरू हुई
सोनिया गांधी से नरसिम्हा राव की खटपट होने का मुख्य मुद्दा बना सोनिया गांधी के सचिव विंसेंट जॉर्ज का राज्यसभा न भेजा जाना। दरअसल जनवरी 1992 में राज्यसभा के चुनाव थे। सोनिया गांधी चाहती थीं कि उनके सचिव को कर्नाटक से राज्यसभा भेजा जाए, मार्गरेट अल्वा जो कि उस समय राज्यसभा की सदस्य थीं लेकिन वो चौथी बार फिर से राज्यसभा में जाना चाहती थीं। लेकिन पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेता मार्गरेट अल्वा का विरोध कर रहे थे।
कांग्रेस के इन्हीं नेताओं ने अल्वा का पत्ता काटने के लिए उनकी जगह विंसेंट जॉर्ज को हवा दे दी। हालांकि पार्टी के ज़्यादातर दिग्गज नेता विंसेंट जॉर्ज की जगह के करुणाकरन और अर्जुन सिंह का नामांकन चाहते थे। Narasimha Rao उसी वक्त रूस के दौरे पर जा रहे थे। उन्होंने सोनिया गांधी को फोन किया और उनसे जॉर्ज की दावेदारी के बारे में बात की।
तब सोनिया गांधी ने कहा कि अगर पार्टी चाहती है तो जॉर्ज को राज्यसभा का टिकट दे दिया जाए। लेकिन न जाने क्या हुआ राव ने यात्रा के दौरान राज्यसभा उम्मीदवारों की जो सूची विदेश से फैक्स करके भेजी, उसमें मार्गरेट अल्वा का नाम तो था, लेकिन सोनिया गांधी के सचिव जॉर्ज विंसेंट का नाम नहीं था।
सोनिया गांधी ने इस मामले में ज्यादा प्रतिक्रिया तो नहीं दी लेकिन वो समझ चुकी थीं कि 10 जनपथ पर 7 रेसकोर्स रोड हावी हो गया। यहीं से सोनिया और राव के बीच अविश्वास की खाई गहरी बनने लगी। राजनीतिक हल्कों में भी कहा जाता है कि उस जमाने में प्रधानमंत्री राव और सोनिया गांधी के संबंधों में आयी दरार के लिए विंसेंट जॉर्ज का बहुत बड़ा रोल था।
साल 1995 में एनडी तिवारी ने कांग्रेस को तोड़कर ‘तिवारी कांग्रेस’ बना डाली
साल 1991 से 96 के बीच कांग्रेस के भीतर जबर्दस्त गुटबाजी हुई। राव के खेमे में मतंग सिंह, भुवनेश चतुर्वेदी, विद्याचरण शुक्ला, मनिंदर सिंह बिट्टा और अन्य नेता थे, वहीं विंसेंट जॉर्ज के खेमे में (जिसे सोनिया खेमा कहा गया) करुणाकरन, अर्जुन सिंह, माख़नलाल फोतेदार औऱ नटवर सिंह जैसे दिग्गज शामिल रहे।
राव और सोनिया के बीच आयी कटुता और गुटबाजी के बीच यह स्थिति पैदा हो गई कि आखिरकार कांग्रेस दो भागों में टूट गई। साल 1995 में नारायण दत्त तिवारी ने अर्जुन सिंह के बढ़ावे पर पार्टी को तोड़ दिया और तिवारी कांग्रेस बना डाली।
इस बीच सोनिया गांधी ने राव को नीचा दिखाने के लिए और Narasimha Rao सरकार के कामकाज से असंतुष्ट नेताओं को बल देने के लिए 10 जनपथ के दरवाजे खोल दिए। सोनिया गांधी के सचिव विंसेंट जॉर्ज ने कांग्रेसी सांसदों को फोन करके कहा कि सोनिया गांधी हफ्ते में एक निश्चित दिन शाम 5 बजे से 7 बजे तक उनकी समस्याओं को सुनेंगी। नरसिम्हा राव के लिए स्पष्ट संदेश था कि वो अपने दायरे में रहे लेकिन राव ने सोनिया गांधी के आगे घुटने टेकने से इनकार कर दिया। इस तरह के उठापटक और तनातनी भरे रिश्तों के बीच नरसिम्हा राव ने साल 1996 में अपना प्रधानमंत्री का कार्यकाल पूरा किया।
नरसिम्हा राव के कार्यकाल में जो सबसे ऐतिहासिक त्रासदी हुई वो थी 6 दिसबंर 1992 की घटना। नरसिम्हा राव का इस घटना के संदर्भ में स्पष्ट मानना था कि भाजपा ने अयोध्या समझौते को विफल कराया। भाजपा पर आरोप लगाते हुए राव ने कहा कि भाजपा मंदिर विवाद को हल करना ही नहीं चाहती थी, क्योंकि अयोध्या मुद्दा सुलगता रहेगा तो उसे लाभ मिलेगा।
Narasimha Rao कहते हैं कि अगस्त 1992 तक उनकी इस मुद्दे पर साधु-संन्यासियों से बात चलती रही कि कानून का उल्लंघन न करते हुए किस तरह से अयोध्या विवाद का हल निकाला जाए। अचानक साधुओं ने इस मुद्दे पर बात करने से मना कर दिया और इसके चार महीने बाद कारसेवकों के झुंड द्वारा ढांचा गिरा दिया गया।
बाबरी ढांचा गिराये जाने को लेकर नरसिम्हा राव ने भाजपा पर धोखे का आरोप लगाया
राव ने बीजेपी का नाम न लेते हुए अपने विचार रखते हैं कि साधुओं की सोच बदल गई है, या बहुत हद तक उन राजनीतिक शक्तियों की, जो उन्हें नियंत्रित कर रही थीं। यह ताकतें जानबूझ कर अयोध्या विवाद के शांतिपूर्ण हल वाले मामले से बाहर होना चाहती थीं, जो मेरे और संन्यासियों के बीच तय किया जा रहा था। अगर यह हो जाता तो मंदिर का मुद्दा पूरी तरह अराजनीतिक हो कर रह जाता।
राव एक जगह लिखते हैं कि राम जन्मभूमि विवाद को उभारने वाली राजनीतिक शक्तियां मंदिर निर्माण कतई नहीं चाहती थीं। वे तो इसे जितना हो सके, उतनी लंबी अवधि तक वोटों की फसल देने वाली एक सांप्रदायिक समस्या बना कर रखना चाहती थीं। अयोध्या विवाद को हल करने के लिए नरसिम्हा राव अगस्त 1992 तक नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शीर्ष नेतृत्व के साथ संपर्क में थे।
राव वीएन गाडगिल और वसंत साठे जैसे नेताओं के माध्यम से संघ के वरिष्ठ पदाधिकारियों के संपर्क में थे। यही नहीं इस मुद्दे के शांतिपूर्वक समाधान के लिए राव महंत अवैद्यनाथ, वामदेवजी महाराज, रामचंद्र परमहंस, महंत नृत्य गोपालदास, स्वामी परमानंदजी, स्वामी चिन्मयानंद के साथ भी लगातार बैठकें कर रहे थे। राव का कहना है कि अयोध्या मामले में उन्हें धोखा मिला।
राव का मानना था कि अयोध्या विवाद के साथ काशी और मथुरा का मामला भी जुड़ा था
राव कहते हैं कि बहुसंख्यकों में सांप्रदायिक सोच पैदा करने वाले राजनीतिक गिरोह की मज़बूरी थी कि वह अयोध्या को सतत् उबलती रहने वाली एक समस्या बनाए रखें। राव बताते हैं कि अयोध्या में राम मंदिर की मांग केवल एक मंदिर की मांग नहीं थी। बल्कि इसके साथ मथुरा और काशी भी जुड़े हुए थे। अगर आपसी सहमति से यदि इन तीनों का हल निकाल भी लिया जाता, तो देशभर में तीन हज़ार से ज़्यादा विवादास्पद मंदिरों की समाप्त न होने वाली सूची तैयार थी।
प्रधानमंत्री रहते हुए Narasimha Rao ने यह बातें ख़ुद अपनी पार्टी कांग्रेस और सरकार के कैबिनेट में शामिल वरिष्ठ साथियों को दी। उनकी पार्टी कांग्रेस और कैबिनेट के सदस्यों ने राव का पक्ष लेने की बजाय उन्होंने बलि का बकरा बना दिया। राव ने बाबरी मस्जिद के विषय में लिखा, ‘यह मैं था, जिसे उन्होंने ध्वस्त कर दिया।’
खैर सत्ता से जाने के बाद नरसिम्हा राव गुमनामी के खोल में छुप गये। साल 2004 में मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार ने जब कमान संभाली तो उसके ठीक 8 महीने बाद 23 दिसंबर 2004 को दिल्ली में नरसिम्हा राव का निधन हो गया। दोपहर 2:30 बजे उन्हें नई दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान से 9, मोतीलाल मार्ग पर लाया गया। राव के घर सबसे पहले पहुंचने वाले लोगों में दाढ़ी वाले गुरु चंद्रास्वामी थे, जो 1971 से उन्हें जानते थे। गृह मंत्री शिवराज पाटिल ने राव के सबसे छोटे बेटे प्रभाकर को सुझाव दिया कि पार्थिव शरीर का अंतिम संस्कार हैदराबाद में किया जाना चाहिए। लेकिन परिवार की प्राथमिकता दिल्ली थी।
Narasimha Rao आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे थे और उन्होंने कांग्रेस के महासचिव, केंद्रीय मंत्री और अंततः प्रधानमंत्री के रूप में दिल्ली में काम किया था। परिवार के द्वारा दिल्ली में अंतिम रस्म निभाने की बात सुनकर आमतौर पर बेहद शालीन रहने वाले शिवराज पाटिल ने लगभग चिल्लाते हुए कहा, ‘कोई नहीं आएगा’। थोड़ी ही देर में आंध्र प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री राजशेखर रेड्डी राव के आवास पर पहुंचते हैं और राव के परिवार को यह भरोसा दिलाते हैं कि उनका अंतिम संस्कार उनकी पैतृकभूमि में पूरे राजकीय सम्मान के साथ किया जाएगा।
गुलाम नबी आजाद ने राव के परिजनों से कहा, आला कमान दिल्ली में अंतिम संस्कार नहीं चाहता है
गुलाम नबी आजाद ने राव के बेटे को बताया गया कि कांग्रेस का आला कमान नहीं चाहता था कि राव का अंतिम संस्कार दिल्ली में हो। घंटों दबाव की सियासत के बाद राव का परिवार फैसला लेता है कि नरसिम्हा राव का अंतिम संस्कार दिल्ली में नहीं बल्कि हैदराबाद में होगा। परिवार 24 दिसबंर को नरसिम्हा राव का शव लेकर एयरपोर्ट के लिए निकला।
एयरपोर्ट के रास्ते में कांग्रेस का दफ्तर आया। परिवार सेना की तोपगाड़ी पर रखे राव के शव को कांग्रेस दफ्तर के भीतर कुछ देर के लिए ले जाना चाहता था लेकिन तभी कांग्रेस दफ्तर के गेट पर ताला जड़ दिया जाता है। अमूमन यह रीत रही है कि जब भी पार्टी के किसी बड़े नेता का निधन होता है तो उसका शव को कुछ समय के लिए पार्टी ऑफिस में रखा जाता है।
लेकिन राव के साथ ऐसा नहीं हुआ, राव का शव करीब आधे घंटे तक कांग्रेस पार्टी के दफ्तर के बाहर तोपगाड़ी पर रखा रहा। जब गेट नहीं खुला तो परिवार आंसू और शर्मिंदगी के साथ एयरपोर्ट की ओर रवाना हो गया। कहा जाता है कि जब नरसिम्हा राव का शव दफ्तर के बाहर था उस समय सोनिया गांधी खुद पार्टी दफ्तर में मौजूद थीं।
नोट: यह लेख विनय सीतापति की किताब Half – Lion: How P.V Narasimha Rao Transformed India पर आधारित है।
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