आजकल हम गाहे-बगाहे ये सुनते रहते हैं कि आज इस संस्था में कर्माचारी हड़ताल पर हैं कल वो थे। पिछले कुछ दिनों में हमने हिमाचल प्रदेश (Himachal Pradesh) से लेकर केरल (Kerala) तक में कर्माचारियों द्वारा की गई हड़तालें (Strike) देखने को मिली। लेकिन, पिछले दिनों केरल हाई कोर्ट ने कहा कि जो सरकारी कर्मचारी हड़तालों में भाग लेते हैं या फिर सरकारी खजाने को नुकसान के साथ ही आम जनता के जीवन को भी प्रभावित करते हैं, वे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (c) के तहत मिले सुरक्षा के हकदार नहीं हैं।
भारत में प्रदर्शनों, विरोधों और बंद की एक लम्बी परंपरा रही है। अनुमान लगाया जाया तो भारत जैस 130 करोड़ के देश मे हर साल लगभग 2 से 3 प्रदर्शन होते हैं। जबकि मौजूदा साक्ष्यों के आधार पर नजर ड़ालें तो पहली बार 1882 में हुई हड़ताल के बाद अब तक देश में 50 से अधिक बड़े और ऐतिहासिक प्रदर्शन हो चुके हैं।
ये भी पढ़ें – Joshimath: आखिर क्यों धंस रहा है जोशीमठ?
Strike का अधिकार?
आमतौर पर ये धारणा रही है कि प्रत्येक देश में चाहे वह लोकतांत्रिक (Democratic) हो, पूंजीवादी (Capitalist) या समाजवादी (Socialist) हो में मजदूरों को हड़ताल का अधिकार होना चाहिये। लेकिन ये भी माना जाता है कि यह अधिकार अंतिम उपाय (Last resort) के रूप में प्रयोग किया जाना चाहिये क्योंकि यदि इस अधिकार का दुरुपयोग किया जाता है तो यह उद्योगों के उत्पादन के साथ-साथ खराब वित्तीय स्थितियों को भी जन्म देगा। जिससे आखिर में देश की अर्थव्यवस्था को ही नुकसान होगा।

भारत समेत दुनियाभर में हड़ताल एक आम बात है। हड़ताल का अर्थ है कि जब नियोक्ताओं (Employer) द्वारा तय की गई जरूरी शर्तों के तहत काम करने से कर्मचारियों का सामूहिक रूप से मना कर देना है। हालांकि, हड़ताल के कई कारण हो सकते हैं, लेकिन ज्यादातर हड़तालें मुख्य रुप से आर्थिक स्थितियों के कारण की जाती है जिसमें मजदूरी एवं लाभ में सुधार के लिये या फिर काम कराने के तौर तरीकों को लेकर भी हड़ताल का सहारा लेते हैं।
भारत मे हड़ताल से जुड़े हुए अधिकार?
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत भारत में विरोध का अधिकार एक मौलिक अधिकार है। लेकिन अदालतों द्वारा कई बार की गई सुनवाईयों में ये भी कहा गया है कि हड़ताल का अधिकार एक मौलिक अधिकार (Fundamental Right) न होकर बल्कि एक कानूनी अधिकार (Legal Right) है और इस अधिकार के साथ औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 (Industrial Disputes Act, 1947) के अंतर्गत कानूनी प्रतिबंध भी जुड़ा हुआ है।
वहीं,औद्योगिक संबंध संहिता, 2020 (Industrial Relations Code, 2020) ने तीन श्रम कानूनों (i) औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947, (ii) ट्रेड यूनियन अधिनियम, 1926 और (iii) औद्योगिक रोजगार (स्थायी आदेश) अधिनियम, 1946 का स्थान लेती है।
जैसे अमेरिका के कानून को लेकर हड़ताल के बार में साफ-साफ लिखा गया है वैसा भारत मे नहीं है, भारत में हड़ताल का अधिकार कानून द्वारा स्पष्ट रूप से मान्यता नहीं मिली हुई है। इससे पहले भारत मेंवाणिज्यिक विवाद के समर्थन में पंजीकृत ट्रेड यूनियन (Registered Trade Unions) द्वारा की गई कई कार्रवाइयों को मंजूरी देकर, जो बनाए गए सामान्य आर्थिक कानून (Economic Laws) का उल्लंघन कर सकती थी, ट्रेड यूनियन अधिनियम, 1926 के तहत हड़ताल को पहली बार प्रतिबंधित अधिकार बनाया गया था।
हालिया दिनों में होने वाली हड़ताल को जिसको ट्रेड यूनियनों ने अपनी मांगों को मनवाने के लिए कानून द्वारा निर्धारित सीमाओं के तहत सीमित मान्यता प्राप्त है। हालांकि, भारत का संविधान हड़ताल करने का पूर्ण अधिकार नहीं देता है, लेकिन यह संघ (Union) को बनाने की मौलिक स्वतंत्रता का पालन करता है।
भारत के लेबर कानूनों में कहा गया है कि राज्य ट्रेड यूनियनों को संगठित करने और हड़तालों का आह्वान करने की क्षमता पर प्रतिबंध लगा सकता है, इसके पिछे का कारण ये भी कहा जा सकता है कि, जैसा हर दूसरा मौलिक अधिकार उचित प्रतिबंधों के तहत है तो फिर ये भी क्यूं न हो।
भारत अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) का भी एक संस्थापक सदस्य है। हड़ताल के अधिकार को भी अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (International Labour Organization- ILO) के सम्मेलनों द्वारा मान्यता दी गई है।
ये भी पढ़ें – क्या है No Fly List, जिसकी Pee Gate के बाद हो रही है खासी चर्चा?
कोर्ट के फैसलें?
सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली पुलिस बनाम भारत संघ (1986) के मामले में पुलिस बल (अधिकारों का प्रतिबंध) अधिनियम, 1966 और संशोधन नियम, 1970 द्वारा संशोधित नियमों के लागू होने के बाद गैर-राजपत्रित (Non-Gazetted Officer) पुलिस बल के सदस्यों द्वारा संघ बनाने के प्रतिबंधों को बरकरार रखा था। इसके अलावा टी. के. रंगराजन Vs तमिलनाडु सरकार के 2003 के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि कर्मचारियों को हड़ताल का कोई मौलिक अधिकार (Fundamental Right) नहीं है।