Gaura Devi : उत्तराखंड के सबसे बड़े जिले चमोली के लाता गांव में जन्मीं गौरा देवी किसी परिचय की मोहताज नहीं। बचपन से संघर्ष और कठिनाईयों के बीच जीवनयापन करने के बावजूद उन्होंने कभी हार नहीं मानी। साल था 1970 जब अलकनंदा की बाढ़ ने प्रदेश में एक नई पर्यावरणीय सोच को जन्म दिया। इस दौरान गठित दशौली ग्राम स्वराज्य मंडल में सदस्य बनीं गौरा देवी ने बाढ़ आने के कारण, बचाव से लेकर कई मसलों पर काम किया। साल 1972 के आते-आते गौरा देवी महिला मंगल दल की अध्यक्षा बनीं।
उस दौरान आसपास के गांव और रैणीं में कई सभाएं हुईं। इसी दौरान 23 मार्च को रैणीं गांव में पेड़ों के कटान के विरोध में गोपेश्वर में एक रैली आयोजित की गई।जिसमें गौरा देवी ने महिलाओं को नेतृत्व किया।बस यहीं से शुरू हुआ उनके समस्त जीवन तक चलने वाले चिपको आंदोलन का सफर जिसे देश ही नहीं बल्कि विदेशों में पहचान मिली।इस आंदोलन की जननी गौरा देवी को माना जाता है। हिमपुत्री के नाम से प्रसिद्ध गौरा देवी ने साबित कर दिखाया कि संगठित होकर महिलाएं किसी भी कार्य को करने में सक्षम हो सकतीं हैं। 4 जुलाई 1991 को उनका निधन हो गया।

Gaura Devi : जंगलात के आदमी भी उनके कदम पीछे नहीं कर सके
Gaura Devi : वनों को कटान से बचाने के लिए गौरा देवी और उनसे जुड़ी महिलाएं एकजुट हुईं।गौरा देवी और उनके साथ सभी महिलाएं पेड़ों से चिपट गईं।इस दौरान ठेकेदार और जंगलात के आदमी भी उनके कदम डिगा नहीं सके।बंदूक से बल पर उन्हें डराया गया, पीछे हटने को कहा, यहां तक उनके मुंह पर थूक दिया, लेकिन वह टस से मस नहीं हुईं।आखिरकार 27 और 31 मार्च को रैणीं गांव में सभा हुई और बारी-बारी से वन की निगरानी शुरू हुई।
इस दौरान रैणी के जंगल, अलकनंदा में बाईं ओर से मिलने वाली नदियों ऋषिगंगा, गरुणगंगा, विरही, पातालगंगा और मंदाकिनी नदी के जल की सुरक्षा की बात उभरकर सामने आई और सरकार को कई अहम फैसले लेने पड़े।गौरा देवी चिपको आंदोलन की प्रतीक बन गईं।

Gaura Devi: 1980 में बना वन अधिनियम
वर्ष 1980 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पर्यावरण की सुरक्षा के लिए 1980 का वन अधिनियम बनाया। इस अधिनियम में एक हजार मीटर से अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों में पेड़ों को काटने पर रोक लगा दी गई। विकास कार्यों के लिए वन भूमि लेने की मंजूरी के भी कड़े नियम बना दिए। हालांकि, 1980 के नए वन कानूनों को लेकर बाद में कई तरह के विरोध भी हुए। हिमालय क्षेत्र की विकास योजनाओं में यह कानून बाधा भी बने। लेकिन गौरा देवी ने सियासत में सक्रिय नहीं होने के बावजूद सियासी दलों के एजंडे में पर्यावरण और स्थानीय संसाधनों पर स्थानीय समुदायों के हक के मुद्दों को शामिल करा दिया। यही वजह है कि आज भी उत्तराखंड में भाजपा हो या कांग्रेस उनके एजेंडे में जल, जंगल, जमीन के मुद्दे अवश्य शामिल रहते हैं।
Gaura Devi: अलग-अलग रूपों में फैला आंदोलन
रैंणी के ऐतिहासिक आंदोलन के बाद उत्तराखंड के बड़े हिस्से में अलग-अलग रूपों में यह आंदोलन फैल गया। रैंणी में अपनी ही संपदा से वंचित लोगों ने अपना प्राकृतिक अधिकार पाने के लिए चिपको आंदोलन शुरू किया था। इसके पीछे जंगलों की हिफाजत और इस्तेमाल का सहज दर्शन था। चिपको आंदोलन में तरह-तरह के लोगों ने स्थायी-अस्थायी हिस्सेदारी की थी। महिलाओं ने इस आंदोलन को ग्रामीण आधार और स्त्री-सुलभ संयम दिया तो छात्र-युवाओं ने इसे आक्रामकता और शहरी-कस्बाती रूप दिया।
चमोली में मण्डल, फाटा, गोपेश्वर, रैणी और बाद में डूंगरी-पैन्तोली, भ्यूंढार, बछेर से नन्दीसैण तक; उधर टिहरी की हैंवलघाटी में अडवाणी सहित अनेक स्थानों और बडियारगढ़ आदि क्षेत्रों तथा अल्मोड़ा में जनोटी-पालड़ी, ध्याड़ी, चांचरीधार (द्वाराहाट) के प्रत्यक्ष प्रतिरोधों में ही नहीं बल्कि नैनीताल तथा नरेन्द्रनगर में जंगलों की नीलामियों के विरोध में भी महिलाओं और युवाओं की असाधारण हिस्सेदारी रही।
संबंधित खबरें
- Zero Carbon: भारत ने वर्ष 2070 तक रखा नेट जीरो कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य, सेना में भी इलेक्ट्रिकल वाहनों की एंट्री
- बदला-बदला दिखेगा Asola Bhati Wildlife Santuary का नजारा, कुदरत से नजदीकी का आभास कराएंगे अद्भुत नजारे