Bollywood News: आसान नहीं रहा है भारतीय सिनेमा में नायिकाओं का सफर, जानिए परदे की अभिनेत्रियों के सफर के बारे में

Bollywood News: सौ बरस से भी ज़्यादा समय के सफर में हिंदी सिनेमा जिंदगी का अहम हिस्सा बन गया है । फिल्में जैसे ही ब्लैक ऐन्ड व्हाईट से रंगीन हुईं, सपनों में नये रंग भरने लगे।यहां तक कि भावनाएं भी फिल्मों को देखकर व्यक्त की जाने लगीं। इस स्वर्णिम सफर में कई उतार-चढ़ाव भी आए। लेकिन बॉलीवुड रुका नहीं, शो मस्ट गो ऑन के अपने फलसफे पर खरा उतरता गया और दुनियाभर में अपनी जगह बनाता गया।

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Bollywood News: आसान नहीं रहा है भारतीय सिनेमा में नायिकाओं का सफर, जानिए कहां से शुरु हुए और कहां पहुंचे हम

-Shweta Rai

Bollywood News: सौ बरस से भी ज़्यादा समय के सफर में हिंदी सिनेमा जिंदगी का अहम हिस्सा बन गया है । फिल्में जैसे ही ब्लैक ऐन्ड व्हाईट से रंगीन हुईं, सपनों में नये रंग भरने लगे। यहां तक कि भावनाएं भी फिल्मों को देखकर व्यक्त की जाने लगीं। इस स्वर्णिम सफर में कई उतार-चढ़ाव भी आए। लेकिन बॉलीवुड रुका नहीं, शो मस्ट गो ऑन के अपने फलसफे पर खरा उतरता गया और दुनियाभर में अपनी जगह बनाता गया। इसका श्रेय जाता है उन निर्देशकों, कलाकारों, संगीतकारों, गायकों और पर्दे के पीछे के उन खास लोगों को जिन्होंने फिल्मों को न सिर्फ बनाया बल्कि उन्होंने इसे जिया भी । लेकिन ये सफर आसान नहीं था। जब ये सफर शुरू हुआ तो कई मुश्किलें भी आयीं तो चलिये आपको बताते हैं सिनेमा के उस सफऱ के बारे में जहाँ महिलाओं का काम करना भी वर्जित था लेकिन फिल्म इंडस्ट्री के इस सफऱ में हम आपको बतायेंगे कि कैसे फिल्मों में महिलाओं का प्रवेश हुआ और ये सफऱ कैसे सुहाना बना ।

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Bollywood News: वेश्याओं ने भी दादा साहेब फालके को बोल दिया ना


सन् 1912 की बात करें तो फिल्म निर्माण की कठिनाइयों की कल्पना आज के समझ से परे हैं। न केवल तकनीकी रूप से बल्कि सामाजिक तौर पर भी कई मजबूरियाँ थीं। जिसमें एक सबसे बड़ी समस्या फिल्मों में औरतों का आना और काम करना वेश्यावृत्ति से भी नीचा काम समझा जाता था । उस वक्त दादा साहेब फालके को अपनी फिल्म के लिये तारामती की तलाश थी ।

पटकथा, लेखन के बाद दादा साहेब फालके को तमाम कलाकार तो मिल गए, मगर महारानी तारामती का रोल करने के लिए कोई महिला तैयार नहीं हुई। हारकर दादा वेश्याओं के कोठे पर भी गए और हाथ जोड़कर उनसे तारामती रोल के लिए निवेदन भी किया। लेकिन वेश्याओं ने दादा को टका-सा जवाब दिया कि उनका पेशा फिल्म में काम करने वाली बाई से ज्यादा बेहतर है। जब दादा निराश तथा हताश होकर लौट रहे थे तो रास्ते में सड़क किनारे एक ढाबे में चाय पीने के लिये रुके। जो वेटर चाय का गिलास लेकर आया था उसके हाथ से चाय का गिलास पकड़ाते वक्त सालुंखे वेटर की उंगलियां फालके साहेब की उंगलियों से छू गई, दादा ने देखा कि उसकी अंगुलियां बड़ी नाजुक हैं और चालढाल में थोड़ा जनानापन है। बस फिर क्या था।

दादा ने उससे पूछा,”यहां कितनी तनख्वाह मिलती है?” उसने जवाब दिया कि ”5 रुपए महीना।” दादा ने फिर कहा कि ”अगर तुम्हें 5 रुपए रोजाना मिले तो काम करोगे?” दादा ने सालुंखे को सारी बात समझाई। इस तरह भारत की पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र की नायिका तारामती कोई महिला न होकर एक पुरुष थी। उसका नाम था अण्णा सालुंके।’ राजा हरिश्चंद्र’ में राजा की भूमिका के लिए अभिनेता दाबके का चयन हुआ।

तारामती के रोल में पुरुष अण्णा सालुंके राजी हुए। राजा हरिशचंद्र के बेटे रोहिताश्व की सांप के काटने से मृत्यु हो जाती है, इस अंधविश्वास के चलते कोई माता-पिता अपना बेटा देने को तैयार नहीं था। मजबूर होकर दादा को अपने बेटे भालचंद्र को बेटे के रोल में उतारना पड़ा।

Bollywood News: सिनेमा को मिली पहली महिला नायिका ”कमलाबाई गोखले”

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सालुंखे और उन जैसे पुरुषों का भविष्य बतौर हीरोइन ज्यादा उज्ज्वल नहीं था। दादा साहेब को उसी साल अपनी फिल्म ‘मोहिनी भस्मासुर’ में पार्वती के रोल के लिए किसी पुरुष एक्टर को तलाशने की जरूरत नहीं पड़ी और सिनेमा को मिली अपनी पहली महिला नायिका,जिसने फिल्मों में महिलाओं के लिये नये रास्ते खोल दिये। 21 अप्रैल 1913 को मुंबई के ओलिम्पिया सिनेमा में राजा हरिश्चंद्र की पहली स्क्रीनिंग मेहमानों के लिए की गयी तो इसकी चर्चा पूरे देश में होने लगी।

उस दौरान ”राजा हरिश्चंद्र” फिल्म लगातार 13 दिनों तक चली, जो उस समय का रिकॉर्ड था। इसके बाद दादा फालके ने नासिक में 1913 में कथा फिल्म ‘मोहिनी-भस्मासुर’ का निर्माण शुरू किया। इस फिल्म के लिए रंगमंच पर काम करने वाली अभिनेत्री ”कमलाबाई गोखले” दादा साहब को मिल गईं। घरेलू हालात से परेशान, पैसे के लिए कुछ भी कर गुजरने के लिए तैयार थीं।

कमलाबाई हिन्दी फिल्मों की पहली महिला नायिका बनीं और फिल्मों के जरिए कमला बाई ने खूब कमाया। उनकी अमीरी और लोकप्रियता वेश्याओं को फिल्मों की ओर खूब आकर्षित करने लगी। बस फिर क्या था जल्दी ही खुले माहौल में पली-बढ़ी एंग्लो इंडियन लड़कियां भी हीरोइन बनने के लिए दादा के आगे कतार लगाने लगीं। पेशेंस कूपर, सुसान सोलोमा आदि के अलावा कई एंग्लो इंडियन लड़कियां तो नाम बदलकर फिल्मों में हीरोइन बनीं। जैसे कि रशेल चोहेन फिल्मों में रामला देवी हो गईं तो वहीं एस्थर अब्राहम, प्रमिला बन गईं। धीरे-धीरे दूसरे तबकों से भी औरतें फिल्मों में आने लगीं। तारक बाला, सीता देवी, सुल्ताना, जुबैदा आदि उस साइलेंट ईरा की स्टार थीं लेकिन सुपर स्टार थीं रूबी मायर्स यानि सुलोचना।

Bollywood News: मूक फिल्मों की सुपर स्टार ”सुलोचना” जो थीं एक एंग्लो इंडियन

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मूक फिल्मों के दौर में रामला देवी, प्रमिला गौहर सुलोचना जैसी कई नायिकायें आयीं और अपनी खूबसूरती के जलवे सिनेमा के पटल पर बिखेरे लेकिन सुपरस्टार सुलोचना थीं । देखा जाए तो सुलोचना उस जमाने की कैटरीना कैफ थीं। हिंदी नहीं आती थी, खूबसूरत बहुत थीं, उनकी खूबसूरती के दम पर ही फिल्में चलती थीं। 1931 में फिल्म ‘आलम आरा’ के जरिए सिनेमा ने आवाज पा ली और साइलेंट सिनेमा की ज्यादातर हीरोइनें संवाद ठीक से न बोल पाने के कारण हाशिए पर चली गईं, फिर भी सुलोचना के भाग्य ने साथ न छोड़ा। सुलोचना के मुंह से खराब हिंदी सुनकर भी दर्शक एक्स्ट्रा एंज्वाय करते थे। सुलोचना ने साइलेंट ईरा की उन सुपर स्टार गौहर तक की दुकान बंद कर दी थी, जिन गौहर का फोटो माचिस पर छापने से बंद होती माचिस फैक्ट्री न सिर्फ चल निकली थी, बल्कि टॉप पर पहुंची गयी थी।

Bollywood News: पहली बोलती फिल्म की ‘फर्स्ट लेडी ऑफ इंडियन स्क्रीन’

पहली बोलती फिल्म ”आलमआरा” के साथ एक नयी तारिका का जन्म हुआ। जो जितनी ग्लैमरस थी उतनी ही पढ़ी लिखी और संभ्रान्त परिवार से थीं जिसने लोगों की मानसिकता को भी खोला और हिन्दी सिनेमा को नयी राह दिखायी। देविका रानी को उस दौर में ‘ड्रीम गर्ल’ के तौर पर देखा जाता था। देविका रानी भारतीय सिनेमा की पहली अभिनेत्री थीं जिन्होनें पहली बोलती फिल्म आलमआरा में काम किया और इसी के साथ सिनेमा ने नया इतिहास बनाया।

रवींद्रनाथ टैगोर के परिवार की तीसरी पीढ़ी से ताल्लुक रखने वाली देविका रानी को भारत की पहली महिला अदाकारा के तौर पर याद किया जाता है। तेज तर्रार देविका पूरी तैयारी के साथ फिल्मों में आईं और आते ही लोगों के दिलों पर छा गईं। देविका रानी चौधरी महिला भागीदारी के मामले में भारतीय फिल्म की क्रांति से कम नहीं थीं, उनका जन्म 30 मार्च 1908 को आंध्रप्रदेश के वाल्टेयर नगर में हुआ था। उनके पिता कर्नल एमएन चौधरी समृद्ध बंगाली परिवार से ताल्लुक रखते थे। जिन्हें बाद में भारत के प्रथम सर्जन जनरल बनने का गौरव प्राप्त हुआ था।

जिस दौर में महिलाओं को घर से निकलने नहीं दिया जाता था, देविका फिल्मों की नायिका बनकर समाज के लिए और महिलाओं के लिये एक मिसाल बन गईं। देविका रानी जब 9 साल की थीं, तब पढ़ाई-लिखाई के लिए उन्हें इंग्लैंड भेज दिया गया। पढ़ाई पूरी करने के बाद देविका रानी ने फिल्मों में अभिनय करने का फैसला जब अपने परिवार को सुनाया तो सब चौंक गए। ये वो दौर था जब संभ्रांत घरों के लड़के तक सिनेमा में जाने से कतराते थे। और परिवार की ओर से इसकी इजाजत नहीं मिली।

इंग्लैंड में कुछ साल रहकर देविका रानी ने रॉयल अकादमी ऑफ ड्रामेटिक आर्ट में अभिनय की विधिवत पढ़ाई की। इसके बाद उन्होंने वास्तुकला में डिप्लोमा भी किया। देविका रानी की मुलाकात फिल्म निर्माता बुस्र बुल्फ से हुई। बुस्र देविका की वास्तुकला के हुनर को देखकर काफी प्रभावित हुए और उन्होंने देविका को बतौर डिजाइनर नियुक्त कर लिया। इसी बीच उनकी मुलाकात प्रसिद्ध निर्माता हिमांशु रॉय से हुई। हिमांशु देविका की खूबसूरती पर मुग्ध हो गए और साल 1933 में अपनी फिल्म ‘कर्मा’ में काम देने की पेशकश की, जिसे देविका ने खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया। इस फिल्म में देविका के हीरो हिमांशु रॉय ही बने।

Bollywood News: जब सिनेमा का परदा पहली बार हुआ बोल्ड, हो गया बैन

1933 में बनी फिल्म कर्मा किसी भारतीय के हाथों बनी पहली अंग्रेजी बोलने वाली फिल्म थी ।जिसे प्रतिबंधित किया गया था। कर्मा फिल्म में पहली बार चार मिनट का चुंबन दृश्य दिखाया गया था, जिसके बाद देविका रानी की न केवल चर्चा हुयी बल्कि काफी आलोचना भी हुई और फिल्म को प्रतिबंधित कर दिया गया। इसके बाद हिमांशु ने देविका से शादी कर ली और मुंबई आ गए। देविका ने पति के साथ मिलकर ”बॉम्बे टॉकीज” नाम का स्टूडियो बनाया, जिसके बैनर तले कई सुपर हिट फिल्में आईं।

अशोक कुमार, दिलीप कुमार, मधुबाला और राज कपूर जैसे सितारों का करियर उनके हाथों परवान चढ़ा। दिलीप कुमार को फिल्म इंडस्ट्री में लाने का श्रेय भी देविका रानी को ही दिया जाता है। उनकी दिग्गज फिल्मों में 1936 में आई ”अछूत कन्या”, 1937 में आई ”जीवन प्रभात” और 1939 में आई ”दुर्गा शामिल” है। अछूत कन्या की रिलीज के बाद देविका रानी को ‘फर्स्ट लेडी ऑफ इंडियन स्क्रीन’ की उपाधि से भी सम्मानित किया गया।

कहा तो ये भी जाता था कि उनके दीवानों में देश के पूर्व पीएम पंडित जवाहर लाल नेहरू भी शामिल थे।1940 में हिमांशु रॉय का निधन होने के बाद देविका की भी फिल्मों से धीरे-धीरे दूरी बढ़ने लगी। उन्होंने 1945 में रूसी चित्रकार स्वेतोस्लाव रोरिक से शादी कर ली और मुंबई छोड़कर बेंगलुरु शिफ्ट हो गईं। देविका ने कुल 16 फिल्में ही की लेकिन वह हमेशा के लिए भारतीय सिनेमा के इतिहास में दर्ज हो गईं। नई शुरुआत करना आसान नहीं होता है लेकिन देविका ने उन परंपराओं को तोड़कर अपनी नयी राह चुनी थी, जिसे समाज ने बहुत बाद में जाकर स्वीकारा और यही नहीं देविका के गुस्से के चलते उन्हें सिने जगत में ‘ड्रैगन लेडी’ के नाम से भी जाना गया। फिल्म इंडस्ट्री में उत्कृष्ट योगदान देने के लिए भारत सरकार ने साल 1969 में जब दादा साहेब फाल्के पुरस्कार की शुरुआत की तो इसका सर्वप्रथम सम्मान देविका रानी को मिला। इसके बाद देविका फिल्म इंडस्ट्री की प्रथम महिला बनीं, जिन्हें पद्मश्री से नवाजा गया। 9 मार्च 1994 को देविका रानी का निधन हो गया।

Bollywood News:”हंटरवाली नाडिया” का आया जमाना

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देविका रानी ने कई फिल्में अशोक कुमार के साथ की और हर फिल्म में वह उतना ही छाप छोड़ती थीं, जितना कि अशोक कुमार की छाप थी। देविका रानी उन पहली भारतीय महिलाओं में से थीं, जिन्होंने फिल्मों की पढ़ाई प्रोफेशनल तौर पर की। बेहद पढ़ी-लिखी और संभ्रांत परिवार की देविका रानी के हीरोइन बनने से हीरोइन के प्रति देश की सोच ही बदलने लगी। तीस के दशक में ऑस्ट्रेलिया से आयी नाडिया ने जो राह दिखाई, उसे भारतीय अदाकारों ने हाथों हाथ लिया और एक नये तरह के सिनेमा और सोच ने जन्म लिया।

ऑस्ट्रेलिया से आई मेरी इवान्स ने भारतीय फिल्म उद्योग को झकझोर कर रख दिया। पश्चिमी परिवेश में पली बढ़ी मेरी इवान्स ”हंटरवाली नाडिया” के नाम से मशहूर हो गईं। नाडिया ने उस वक्त कुछ ऐसा कर दिया, जिसकी किसी को उम्मीद नहीं थी। “फीयरलेस नाडिया” ने ”रॉबिन हुड” जैसी भूमिका निभाते हुए फिल्म के सारे स्टंट खुद किए। चलती ट्रेन में भागने से ले कर ,किसी आदमी को कंधे पर उठा कर घुमाने तक उन्होंने वह सब किया, जिसकी उम्मीद किसी पुरुष किरदार से की जाती है और इसी के साथ नायिका के रूप में सिने जगत को एक नायक मिल गया। नाडिया की फिल्में काफी हिट रहीं ।

Bollywood News: पहली महिला निर्माता, निर्देशक, लेखिका बनीं ”फातिमा बेगम”…

फातिमा बेगम ने पहली महिला निर्माता ,निर्देशक और लेखिका रहीं जिन्होंने ”फातिमा” नाम से अपनी फिल्म कम्पनी शुरू की और 1926 में पहली फिल्म ”बुलबुल-ए- परिस्तान” बनायी । न केवल निर्देशन बल्कि संगीत निर्देशन के क्षेत्र में बतौर संगीतकार के रूप में जद्दन बाई ने फिल्मों में संगीत का निर्देशन किया। जो लेजेन्डरी एक्ट्रेस नरगिस दत्त की माँ भी थी।

40 से 70 का दशक रहा हिन्दी सिनेमा का ”स्वर्णिम काल”…

धीरे- धीरे भारतीय सिनेमा प्रगतिशील होता चला गया और इसी के साथ हिन्दी सिनेमा में उन नायिकाओं का दौर आया जिन्होंने न केवल अदाकारी के नये आयाम बनाये बल्कि फिल्में भी उन्ही नायिकाओं को देखकर गढ़ी जाने लगी । 40 से 70 का दशक का युग ऐसी नायिकाओं का था जो हिन्दी सिनेमा का स्वर्णिम युग कहलाया।

40 और 50 के दशक में सुरैया, मधुबाला ,मीना कुमारी,वैजंती माला , नूतन की बेमिसाल अदाकारी ने भारतीय फिल्म की पहचान पूरी दुनिया में करायी। 1957 में महबूब खान द्वारा निर्देशित नरगिस की ”मदर इंडिया” फिल्म आई। तो भारतीय वेदना, भावना, शोक और शौर्य की अद्भुत छवि फिल्म के पर्दे पर उतर आई। फिल्म ऑस्कर के नामांकन तक भी पहुंची। जिसे पूरे विश्व में सराहा गया । उस वक्त की चाहे ”पाकीजा” की मीना कुमारी रही हों या फिर ”मदर इंडिया” की नरगिस हों जिनकी अदाकारी ने नये आयाम बनाये।

ये ऐसी फिल्में रहीं जो न केवल समाज का आईना थीं बल्कि उनमें महिलाओं का दर्द, उनकी तपस्या, उनके त्याग को दिखाया गया। समाज के लिए उन किरदारों को तो अपनाना आसान था कि एक औरत अपने परिवार के लिए, अपने समाज के लिए त्याग कर रही है लेकिन मदर इंडिया ने नारी के उस रूप को भी दिखाया जहाँ वो नारी के अस्तित्व के लिये संघर्ष करती दिखायी पड़ी , तो वहीं पाकीजा के किरदार ने उस महिला को भी सम्मान दिलाया जो शायद एक समाज के लिये उसे सहज रूप से अपनाना आसान नहीं था।

समानान्तर सिनेमा का हुआ जन्म,जो महिला प्रधान था…

भारतीय फिल्में अभी महिलाओं के सशक्तीकरण का जश्न मना भी नहीं पायी थीं कि 70 के दशक में फिल्मी जगत एंग्री यंग मैन की राह पर मुड़ गया। इकलौता मर्द किरदार पूरी दुनिया को बदलने का सामर्थ्य रखने लगा और औरत उसके साये में केवल खानापूर्ति करती ही नज़र आई। सिर्फ ग्लैमर के नाम पर अदाकाराएं फिल्मों में आतीं, जो नाच गाने और कुछ भड़कीले कपड़े पहनने के साथ रुखसत हो जाया करती थीं लेकिन ऐसे में समानान्तर सिनेमा का जन्म हुआ और एक बार फिर महिला अभिनेत्रियों ने अपने किरदारों से लोगों का ध्यान आकर्षित किया।

फूहड़ और हिंसात्मक फिल्मों के बीच बॉलीवुड ने एक और करवट ली। यह समानांतर सिनेमा और अर्थपूर्ण कला फिल्मों की करवट थी। भारतीय फिल्में कमाई और कला की दो अलग अलग पटरियों पर चलने लगा। इसी दौर में शबाना आज़मी और स्मिता पाटिल जैसी बेमिसाल अभिनेत्रियों ने दस्तक दी। जिन्होनें एक बार फिर महिला कलाकारों की उपस्थिति बड़े मज़बूत तरीके से दर्ज करायी ।स्मिता पाटिल की ”अर्थ” ,”अमृत मंथन” जैसी कुछ शानदार फिल्में आयीं जिसे दर्शकों ने खूब पसन्द किया और सराहा भी।

Bollywood News: हिंदी सिनेमा का नया दौर, नए प्रतिमान

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इसी के साथ कमर्शियल फिल्मों में माधुरी दीक्षित , श्री देवी ,रेखा हेमा, जया , विद्या बालन जैसी कई अभिनेत्रियाँ आयीं जिनकी फिल्मी पर्दे पर एक बहुत ही मजबूत छवि उभर कर आयी वह अपने समय के किसी भी पुरुष अभिनेता को टक्कर देती नज़र आयीं ।

कुछ एक अभिनेत्रियों को छोड़ दिया जाये तो पिछले दो दशकों में भारतीय फिल्मों में महिलाओं की सिर्फ पहचान बदल रही थी, भूमिका नहीं। वह तड़क भड़क वाली लड़की के तौर पर सामने आती रही, या फिर आइटम सॉग ही कर सकती थी, लेकिन फिल्मों में लीड रोल नहीं।

हालांकि ”फैशन” जैसी फिल्मों में प्रियंका चोपड़ा और ” द डर्टी पिक्चर” से विद्या बालन जैसी कद्दावर अभिनेत्रियों ने इस रिवायत को तोड़ने की पहल की। और इसी के साथ एक बार फिर वो दौर वापस आने लगा जहाँ अभिनेत्रियों के किरदारों के अनुसार उन्हें रोल मिलने लगे। जिनमे आलिया भट्ट , कंगना रनौत ,तापसी पन्नू ,करीना कपूर और दीपिका जैसी अभिनेत्रियों का रोल अहम है। जिन्होनें बड़े सश्कत तौर पर फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनायी।

न केवल अभिनय बल्कि निर्माता और निर्देशक के रूप में भी नन्दिता दास ,मीरा नायर, मेघना गुलजार , दीप्ति नवल ,अनुष्का शर्मा, किरन राव ऐसे कई नाम है जो फिल्म इंडस्ट्री में अपनी एक अलग पहचान बना चुकी हैं। हिन्दी सिनेमा की अभिनेत्रियों की सौ साल की सफल यात्रा का ही नतीजा यह है कि आज बहुत से माता-पिता अपनी बेटी को अभिनेत्री बनाने में मदद करते हैं या बनाना चाहते हैं।

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