हिंदी सिनेमा में साधारण चेहरे-मोहरे के साथ आम आदमी के सपने को पर्दे पर संजोने वाले फिल्म निर्देशक Basu Chatterjee ने भारतीय समानान्तर सिनेमा यानी इंडियन पैरेलल सिनेमा की नींव में ‘सारा आकाश’ ‘रजनीगंधा’, ‘चितचोर’ और ‘एक रूका हुआ फैसला’ जैसी फिल्मों को पैबस्त करके मजबूत बनाया।
कमर्शियल सिनेमा के बड़े बाजार और उसके करोड़ों दर्शकों के बीच सिनेमा में हिंदी साहित्य और उसके जरिये आम आदमी की मानवीय संवेदनाओं को बेहद सादगी से रुपहले पर्दे पर उकेरने का काम किया बासु चटर्जी ने।
60 के मध्यांतर के बाद से 70 के दशक में Basu Chatterjee समेत कुछ फिल्म निर्देशकों ने ऐसी फिल्मों का निर्माण किया। जिनमें आम आदमी और उसके जीवन से जुड़े रोजमर्राके सघंर्ष का अक्स सिनेमा के पर्दे पर बखूबी दिखाई देता है।

दरअसल 60 के दशक में सिनेमा साफ़ तौर पर दो विपरीत धाराओं में बांटता चला गया। एक धारा वह थी, जिसमें मुख्य तौर पर मनोरंजन प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया। जिसे मुख्य धारा का सिनेमा (मेनस्ट्रीम सिनेमा) कहा गया। वहीं दूसरी धारा वह थी, जिसमें मुख्य तौर पर सामजिक सरोकार के चिंतन को स्थान दिया गया, सिनेमा में जिंदगी के यथार्थ को फिल्माया गया।
Basu Chatterjee समानांतर सिनेमा के अनमोल चितेरा थे
दर्शकों ने समानांतर सिनेमा को व्यावसायिक सिनेमा से इतर हटकर एक नए विकल्प के रूप में देखा। यह भारतीय सिनेमा का एक नया आंदोलन है, जिसे गंभीर विषय, वास्तविकता और नैसर्गिकता के साथ जोड़कर पिरोया गया था।
मृणाल सेन, तपन सिन्हा, श्याम बेनेगल, बासु भट्टाचार्य, अदूर गोपालकृष्णन, गिरीश कासारावल्ली और Basu Chatterjee जैसे फिल्म निर्देशकों ने सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक, बिमल रॉय जैसे महान फिल्म निर्देशकों की धारा में बहते हुए समानांतर सिनेमा का इतिहास सेल्युलाइड के पर्दे पर लिखा।

वैसे अगर हम 70 के दशक में कमर्शियल सिनेमा की ओर देखें तो एक तरफ फिल्म निर्देशक शक्ति सामंत ‘कटी पतंग’, ‘अमर प्रेम’ और ‘आराधना’ ‘महबूबा’ के जरिये राजेश खन्ना को सुपर स्टार बना रहे थे। वहीं दूसरी ओर अपनी कलम की ताकत से सलीम-जावेद ने ‘जंजीर’, ‘दीवार’, ‘शोले’ और ‘डॉन’ जैसी फिल्मों के जरिये अमिताभ बच्चन को हिंदी सिनेमा का एंग्रीयंग मैन बना रहे थे।
उसी वक्त में Basu Chatterjee भी फिल्में बना रहे थे लेकिन उनकी फिल्मों में न तो हीरे-हीरोइन का रोमांस, और न ही कोई मारधाड़ का सीन था। बासु की सिनेमा का हीरो साधारण सा शर्ट-पैंट पहनने वाला, बालों में तेल लगाकर सलीके से कंधी करने वाला ऐसा शख्स होता था, जो न कहीं से चॉकलेटी दिखाई देता और न ही उसके पास दर्द-ए-दिल गाने का कोई अफसाना होता।
Basu Chatterjee के सिनेमा में साधारण आदमी के संघर्ष हमेशा बना रहता है
Basu Chatterjee के सिनेमा में होना वाला प्यार भी अक्सर बसों में, सड़कों पर और छोटे-मोटे रेस्तरां की टेबल पर सिमट कर रह जाता क्योंकि हीरो-हीरोईन समाज के उस वर्ग से आते जिनके जीवन में साधारण आदमी के संघर्ष हमेशा बना रहता है।
Basu Chatterjee की फिल्मों का मूल सार यही है कि जीवन में प्रेम वहीं जाकर ठहरता है, जहां उसे सामाजिक, आर्थिक और भौतिक सुरक्षा मिलने की गारंटी होती है। वैसे यही सच नहीं है, लेकिन दुनिया में अधिकतर प्रेम के ठहराव की धुरी इन्हीं तीनों सामाजिक, आर्थिक और भौतिक सुरक्षा पर टीकी होती है, इससे इनकार भी नहीं किया जा सकता है।

Basu Chatterjee का जन्म 10 जनवरी 1927 को राजस्थान के जयपुर में हुआ था। लेकिन पिता के सरकारी नौकरी में होने और उनके ट्रांसफर के कारण चटर्जी परिवार उत्तर प्रदेश के मथुरा आ गया। बासु चटर्जी ने मथुरा के राजकीय इंटर कॉलेज से 12वीं तक की पढ़ाई की। पढ़ाई के दौरान मशहूर गीतकार शैलेन्द्र बासु चटर्जी के सीनियर थे।
बासु ने पढ़ाई पूरी करके अपना करियर शुरू किया मशहूर पत्रकार रूसी करंजिया के साप्ताहिक टैबलॉएड ब्लिट्ज से। ब्लिट्ज में बासू कार्टून बनाते थे और 16 साल तक कार्टून बनाने के बाद Basu Chatterjee ने सिनेमा में एंट्री की, अपने उसी मथुरा कॉलेज के सीनियर शैलेंद्र की फिल्म से।
फिल्म ‘तीसरी कसम’ से सिनेमा करियर की शुरूआत की Basu Chatterjee ने
शैलेन्द्र फणीश्वर नाथ रेणु के उपन्यास ‘मारे गये गुलफाम’ पर फिल्म ‘तीसरी कसम’ बना रहे थे। जिसका निर्देशन कर रहे थे बासु भट्टाचार्य। शैलेंद्र के कहने पर बासु ने बासु को बनाया अपना असिटेंट डायरेक्टर और 1966 में फिल्म ‘तीसरी कसम’ रिलीज होने के बाद सिनेमा इंडस्ट्री में लगभग सभी बड़े फिल्मकार बासु चटर्जी को पहचानने लगे।
साल 1967 में बासु चटर्जी को निर्देशक गोविन्द सरैया की फिल्म ‘सरस्वतीचन्द्र’ में असिस्टेंट डायरेक्टर बनने का मौकै मिल गया। ‘सरस्वतीचन्द्र’ हिन्दी सिनेमा की आख़िरी ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म है। साल 1969 में बासु चटर्जी ने हिंदी साहित्य में नई कहानियों के जनक और मशहूर कथाकार राजेंद्र यादव के उपन्यास ‘सारा आकाश’ को सिनेमा के पर्दे पर उतारा।
Basu Chatterjee ने ‘सारा आकाश’ की स्क्रिप्ट पहले कमलेश्वर से लिखावाई लेकिन वो कमलेश्वर की राइटिंग में अपने सिनेमा को देख नहीं पा रहे थे। इसलिए उन्होंने फिर ‘सारा आकाश’ की स्क्रिप्ट खुद लिखी। साल 1972 में फ़िल्म ‘सारा आकाश’ के लिए बासु चटर्जी को फिल्म फेयर का सर्वश्रेष्ठ स्क्रिप्ट राइटर का अवार्ड मिला।

फिल्म ‘सारा आकाश’ की कहानी एक मध्यवर्गी परिवार के इर्दगिर्द घूमती है और इसका मुख्य किरदार ‘समर’ की की पैसे प्रति कुंठा समाज के अधिकांश युवाओं में देखने को मिलती है। सिनेमा के पर्दे पर Basu Chatterjee ने जिस तरह से मध्यवर्ग की गरीबी और अभाव का चित्रण किया है, उसे वास्तविक जीवन में लगभग सभी मध्यमवर्गीय जीवन जीने वाले परिवारों में आसानी से देखा जा सकता है।
फिल्म ‘सारा आकाश’ मध्यम वर्गीय परिवार के भयावह यथार्थ को बयां करती है
वास्तव में फिल्म ‘सारा आकाश’ मध्यम वर्गीय परिवार की लगभग सभी समस्याओं का बखूबी चित्रण करती है। फिल्म में समर और उसके परिवार के कुल 8 सदस्यों के भरेपूरे परिवार खर्च समर के बाबू जी के 25 रुपए महीने पेंशन और समर के बड़े भाई धीरज के 29 रूपए महीने के वेतन से चलता है।
आर्थिक संकटों से घिरे परिवार में पैदा होकर भी महान बनने के सपने देखने वाले देश के युवाओं को सच का आईना दिखाती फिल्म हमारे समाज के भयावह यथार्थ को बयां करती है। ‘सारा आकाश’ में समर की महत्वाकांक्षा और उसके विपरित परिवार की अपेक्षाओं में जलने वाले द्वंद के बीच पनपती समर की कुंठा ही केंद्र बिंदू है।

राजेंद्र यादव के उपन्यास को बासु चटर्जी ने जिस तरह से सिनेमा के पर्दे पर उतारा है। उसके देखने के बाद शैलेंद्र के ‘तीसरी कसम’ की याद आ जाती है, जिसे बनाकर उन्होंने रेणु के उपन्यास ‘मारे गये गुलफाम’ को अमर बना दिया।
बासु चटर्जी के फिल्मी करियर में सबसे सफल फिल्म मानी जाती है साल 1973 में आयी उनकी फिल्म ‘रजनीगंधा’ को। मशहूर उपन्यासकार मन्नू भंडारी के उपन्यास ‘यही सच है’ पर आधारित Basu Chatterjee की इस फिल्म में एक महिला का द्वंद दिखाया गया है जिसकी मित्रता दो पुरुषों है।
फिल्म ‘रजनीगंधा’ इसी जद्दोजहद पर आधारित है कि वह किसे अपना जीवन साथी बनाये। मन्नू भंडारी की कहानी की सबसे विशेष बात यह है कि इसमें कोई विलेन पात्र नहीं है, इसके वाबजूद Basu Chatterjee ने इस कहानी को फिल्माने का रिस्क लिया क्योंकि हिंदी सिनेमा पट्टी अपनी शुरूआत से ही हीरो और विलेन के इर्दगिर्द घूमने को अभिशप्त रही है।
फिल्म ‘रजनीगंधा’ मन्नू भंडारी के उपन्यास ‘यही सच है’ पर आधारित है
फ़िल्म ‘रजनीगंधा’ में दीपा का प्रेम संबंध संजय के साथ होता है और दोनों शादी करने वाले होते हैं लेकिन तभी नौकरी के इंटरव्यू के लिए दीपा को मुंबई जाना पड़ता है, जहां उसकी मुलाक़ात उसके पुराने प्रेमी नवीन से होती है।
प्रेम संबंध ख़त्म होने के बाद भी नवीन दीपा का बहुत ध्यान रखता है। वहीं दीपा का वर्तमान प्रेमी संजय ऐसा व्यक्ति नहीं होता है, वो प्रेम तो करता है, लेकिन वो उसे जताने के लिए कोई अलग से जतन नहीं करता है।

दीपा नवीन से मिलने के बाद दोनोंके बीच तुलना करने लगती है और उसका मन बदल जाता है। जिसके बाद दीपा नवीन से शादी करने के बारे में सोचने लगती है, लेकिन दिल्ली वापस आते ही जब संजय उसे बताता है कि उसकी तरक्क़ी हो गई है। दीपा नवीन को भूल कर संजय के साथ वापस शादी के लिए तैयार हो जाती है।
फिल्म ‘रजनीगंधा’ में दीपा का किरदार विद्या सिन्हा ने निभाया है वहीं संजय का किरदार अमोल पालेकर ने अदा किया है। यह पहली फ़िल्म विद्या सिन्हा और अमोल पालेकर की पहली फिल्म थी। इस फिल्म में संगीत सलिल चौधरी का है और सभी गीत योगेश की कलम से निकले हैं।
Basu Chatterjee के इस फिल्म के एक गीत ‘कई बार यूं भी देखा है’ को अपनी आवाज देने के लिए मुकेश को नेशलन अवार्ड मिला। इसके अलावा फिल्म ‘रजनीगंधा’ की झोली में फिल्मफेयर के बेस्ट फ़िल्म और बेस्ट स्क्रीनप्ले के अवार्ड भी मिले।
बासु चटर्जी ने हिंदी सिनेमा में 40 से अधिक फिल्मों का निर्देशन किया। इसमें कोई शक नहीं कि बासु चटर्जी ने सिनेमा को आम लोगों के जीवन का आइना बनाया। बासु चटर्जी के सबसे ज्यादा फिल्में अमोल पालेकर के साथ कीं। जिसमें ‘चितचोर’, ‘बातों बातों मे’ और ‘अपने पराये’ सहित कुल 8 फिल्में शामिल हैं।

Basu Chatterjee ने साल 1972 में ‘पिया का घर’, साल 1974 में ‘उस पार’, साल 1976 में ‘चितचोर’, साल 1978 में ‘खट्टा मीठा’, साल 1979 में ‘बातों बातों में’, साल 1986 में ‘एक रुका हुआ फैसला’ और साल 1986 में ‘चमेली की शादी’ जैसी यादगार फिल्में बनाई। इसके अलावा बासु चटर्जी ने बांग्ला में ‘होथाठ बृष्टि’, ‘होच्चेता की’ और ‘होथाठ शेई दिन’ जैसी मशहूर फिल्में भी बनाईं।
बासु चटर्जी ने फिल्मों के अलावा दूरदर्शन के लिए कई यादगार सीरियल्स बनाये। जिनमें जासूसी सीरियल ब्योमकेश बख्शी, रजनी, ‘दर्पण’ और ‘कक्का जी कहिन’ प्रमुख हैं। Basu Chatterjee का देहांत 4 जून 2020 को मुंबई में हुआ।
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