काशी विश्वनाथ का इतिहास
Kashi Vishwanath Corridor: द्वादश ज्योतिर्लिंगों में प्रमुख काशी विश्वनाथ मंदिर अनादिकाल से काशी में है। यह स्थान शिव और पार्वती का आदि स्थान है, इसीलिए काशी अविमुक्तेश्वर को ही प्रथम लिंग माना गया है। इसका वर्णन महाभारत और उपनिषद में भी मिलता है। 11वीं सदी में राजा हरीशचन्द्र ने जिस विश्वनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था, उसका सम्राट विक्रमादित्य ने भी बाद में जीर्णोद्धार करवाया था। प्राचीन इतिहास के मुताबिक काशी विश्वनाथ मंदिर को साल 1194 में मोहम्मद गौरी ने लूटने के बाद तुड़वा दिया था।
साल 1194 में मोहम्मद गौरी द्वारा तोड़े जाने के बाद साल 1447 में जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह द्वारा इसे दोबारा तोड़ा गया। साल 1585 में राजा टोडरमल की सहायता से पं. नारायण भट्ट ने फिर से भव्य काशी विश्वनाथ मंदिर का निर्माण करवाया। साल 1632 में शाहजहां के आदेश मुगल सेना ने एक बार फिर विश्वनाथ मंदिर को तोड़ने का प्रयास किया लेकिन काशी के हिन्दुओं के प्रबल प्रतिरोध के कारण वो विश्वनाथ मंदिर को तो नहीं तोड़ सकी लेकिन काशी के अन्य 63 मंदिरों को तोड़ दिया।
डॉक्टर एएस भट्ट ने अपनी किताब ‘दान हारावली’ में इसका जिक्र करते हुए बताया है कि टोडरमल ने विश्वनाथ मंदिर का पुनर्निमाण साल 1585 में करवाया था। उसके बाद 18 अप्रैल 1669 को औरंगजेब ने काशी विश्वनाथ मंदिर को ध्वस्त करवा दिया।
औरंगजेब के जिस फरमान से काशी विश्वनाथ मंदिर को ध्वस्त किया गया वह आज भी कोलकाता के एशियाटिक लाइब्रेरी में सुरक्षित रखा है। उस समय के लेखक साकी मुस्तइद खां द्वारा लिखित ‘मासीदे आलमगिरी’ में भी विश्वनाथ मंदिर के ध्वंस का पूरा विवरण मिलता है। औरंगजेब के आदेश पर ही मंदिर तोड़कर उसके बगल में ज्ञानवापी मस्जिद बनवाई गई।
साल 1752 से लेकर साल 1780 के बीच मराठा सरदार दत्ताजी सिंधिया और मल्हारराव होलकर ने काशी विश्वनाथ मंदिर के पुनर्निर्णाण का प्रयास किया। 7 अगस्त 1770 को महादजी सिंधिया ने दिल्ली के बादशाह शाह आलम से मंदिर तोड़ने की क्षतिपूर्ति वसूल करने का आदेश जारी करा लिया, लेकिन तब तक काशी पर ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन लागू हो गया था। इसलिए विश्वनाथ मंदिर का पुनर्निमाण ठहर गया।
इसके बाद साल 1777 से 80 तक इंदौर की महारानी अहिल्याबाई होलकर ने काशी विश्वनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया। 18वीं शताब्दी में इंदौर की रानी अहिल्याबाई होल्कर के दिये काशी विश्वनाथ मंदिर को और भव्यता उस समय मिली जब पंजाब के शासक महाराजा रंजीत सिंह ने साल 1835 में मंदिर के शिखर को सोने से मढ़वा दिया।
काशी शिव के त्रिशूल पर टिकी है
कहते हैं या फिर मान्यता है कि काशी भगवान शिव के त्रिशूल पर टिकी हुई है। इसकी व्याख्या कुछ इस तरह से की जाती है कि शिव के त्रिशूल के तीन शूल हैं, जिस पर उत्तर में ओंकारेश्वर, दक्षिण में केदारेश्वर और मध्य में विश्वेश्वरखण्ड है, जहां बाबा विश्वनाथ स्वयं विराजमान हैं।
काशी के पांच प्रमुख तीर्थ दशाश्वेमघ, लोलार्ककुण्ड, बिन्दुमाधव, केशव और मणिकर्णिका हैं, जिनके कारण इसे ‘अविमुक्त क्षेत्र’ कहा जाता है।
काशी में मृत्यु से मुक्ति मिलती है
मान्यता है कि काशी नगर में प्राण निकलने मात्र से मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। इसे “काश्यां मरणं मुक्ति।” के रूप में कहा जाता हैं। जनश्रुतियों के अनुसार काशी में मरने वालें के कान में स्वयं भगवान शिव मोक्ष का मंत्र (राम) फूंकते हैं। शिव पुराण में भी यह वर्णित है कि भगवान शिव काशी में मरने वाले के लिए हमेशा ही तपस्या करते रहते है।
इन सब के बीच कहा जाता है कि काशी में एक अति प्राचीन पिशाचमोचन विमलोदत्त कुंड है, जहां श्राद्ध करने से मनुष्य को प्रेत यौनि से मुक्ति मिलती है। पुराणो के अनुसार पिशाचमोचन विमलोदत्त कुंड अति मनोरम और सबसे सुदर कुंड है। पितृ पक्ष में पितरों को तारने की इच्छा रखने वाले श्रद्धालु यहां उनका तर्पण करते हैं।
स्कंदपुराण में उल्लिखित है कि काशी पृथ्वी की सीमाओं में बंधी होने के बावजूद भी सभी के बंधनों को काटने वाली है। काशी के पिशाचमोचन विमलोदत्त कुंड के बारे में मान्यता है कि यह मां गंगा से भी पुराना यानी गंगा अवतरण से पूर्व का जलाशय है। इतना ही नहीं इस जलाशय पर बाबा विश्वनाथ की कृपा हमेशा बनी रहती है। यह कुंड मृत्युपरांत होने वाले सभी श्राद्ध कर्म के लिए है। यहां हर तरह के श्राद्ध होते हैं।
काशी की पंचकोशी यात्रा
कहते हैं कि काशी की परिक्रमा मात्र कर लेने से सम्पूर्ण पृथ्वी की परिक्रमा का पुण्यफल प्राप्त होता है। मनुष्य सारे पापों से मुक्त होकर पवित्र हो जाता है। काशी पंचकोशी परिक्रमा करने वाल मनुष्यों के जन्म-जन्मान्तर के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। काशीवासी साल में कम से कम एक बार पंचकोशी परिक्रमा अवश्य करते हैं।
कहा जाता है कि काशी की तीर्थयात्रा से उत्पन्न पुण्याग्नि से सारे पास भस्म हो जाते हैं। काशी की पंचकोशी यात्रा नंगे पांव की जाती है। परिक्रमा के समय भक्त हर समय शिव भजन करते हैं। काशी की यह पंचकोशी यात्रा मणिकर्णिकाघाट से प्रारम्भ होती है। इसके कुल 5 पड़ाव हैं।
प्रथम पड़ाव
पंचकोशी यात्रा करने वाले सर्वप्रथम चिताभूमि स्थित मणिकर्णिकाकुण्ड और गंगा जी में स्नान करते हैं। इसके बाद परिक्रमा-संकल्प लेने के लिए ज्ञानवापी जाते हैं। यहां पर पंडे भक्तों को यात्रा संकल्प दिलाते हैं। संकल्प लेने के बाद भक्त श्रृंगार गौरी, बाबा विश्वनाथ और अन्नपूर्णा जी का दर्शन करके वापस मणिकर्णिकाघाट लौट आते हैं। इसके बाद वो मणिकर्णिकेश्वरमहादेव और सिद्धि विनायक का दर्शन-पूजन करके पंचकोशी यात्रा का प्रारम्भ करते हैं। भक्त पैदल गंगा के किनारे-किनारे चलते हुए अस्सी घाट पर आते हैं और यहां से वह काशी नगर में प्रवेश करते हैं।
इसके बाद वह लंका, नरिया, करौंदी, आदित्यनगर, चितईपुर होते हुए यात्रा के प्रथम पड़ाव कन्दवा के कर्मदेश्वर शिव मंदिर पर पहुंचते हैं। यहां वे कर्दमेश्वरमहादेव का दर्शन-पूजन करके रात्रि-विश्राम करते हैं। अधिकांश यात्री अपना सामान अपने सिर पर रखकर पंचकोशी यात्रा करते हैं।
द्रितीय पड़ाव
पंचकोशी यात्रा के दूसरे दिन प्रातःकाल यात्री कन्दवा से अगले पड़ाव की ओर चल पड़ते हैं। इनका अगला पड़ाव होता है भीमचण्डी। यहां यात्री दुर्गामंदिर में दुर्गा जी की पूजा करते हैं और पहले पड़ाव के सारे क्रियाविधि को यहां भी करते हैं।
तृतीय पड़ाव
पंचकोशी यात्रा का तीसरा पड़ाव रामेश्वर है। रामेश्वर में यात्री शिव-मंदिर में विधिवत शिव पूजन करते हैं।
चतुर्थ पड़ाव
पंचकोशी यात्रा का चौथा पड़ाव पांचों-पण्डवा है। यह पड़ाव वाराणसी के शिवपुर क्षेत्र में पड़ता है। यहां पांचों पाण्डव (युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम, नकुल और सहदेव) की मूर्तियां हैं। द्रौपदी कुण्ड में स्नान करके यात्रीगण पांचों पाण्डवों का दर्शन करते हैं। रात्रि-विश्राम के उपरांत यात्री पांचवें दिन अंतिम पड़ाव के लिए प्रस्थान करते हैं।
पंचम पड़ाव
पंचकोशी यात्रा का अंतिम पड़ाव है कपिलधारा। यात्रीगण यहां कपिलेश्वर महादेव की पूजा करते हैं। काशी परिक्रमा में पांच की प्रधानता है। यात्री प्रतिदिन पांच कोस की यात्रा करते हैं। पड़ाव संख्या भी पांच है। परिक्रमा भी पांच दिनों तक चलती है। कपिलधारा से यात्रीगण नाव से गंगा के किनारे-किनारे वापस मणिकर्णिका घाट पहुंचते हैं।
यहां वो फिर से साक्षी विनायक (गणेश जी) का दर्शन करते हैं। ऐसी मान्यता है कि गणेश जी भगवान शंकर के सम्मुख इस बात का साक्ष्य देते हैं कि अमुक यात्री ने पंचक्रोशीयात्रा कर काशी की परिक्रमा की है। इसके बाद यात्री काशी विश्वनाथ और काशी के कोतवाल बाबा काल-भैरव का दर्शन करके पंचकोशी यात्रा को पूर्ण करते हैं।
वाराणसी या काशी नामकरण-
‘वाराणसी’ शब्द ‘वरुणा’ और ‘असी’ दो शब्दों के मिलन से बना है। पौराणिक अनुश्रुतियों के अनुसार ‘वरुणा’ और ‘असि’ नाम की दो नदियों के बीच में बसने के कारण ही इस शहर का नाम वाराणसी पड़ा। ‘पद्मपुराण’ के एक उल्लेख के अनुसार दक्षिणोत्तर में ‘वरुणा’ और पूर्व में ‘असि’ की सीमा से घिरे होने के कारण इस नगर का नाम वाराणसी पड़ा। ‘अथर्ववेद’ में वरणावती नदी का उल्लेख है। अनुमान लगाया जाता है कि संभवत: यह आधुनिक वरुणा का ही समानार्थ है।
इसके साथ ही हरिवंशपुराण में उल्लेख आया है कि ‘काशी’ को बसाने वाले पुरुरवा के वंशज राजा ‘काश’ थे। इसलिए उनके वंशज ‘काशि’ कहलाए। संभवतः इसके आधार पर ही इसका नाम ‘काशी’ नाम पड़ा हो। काशी के नामकरण से संबद्ध एक पौराणिक मिथक यह भी है कि विष्णु ने पार्वती के मुक्तामय कुंडल गिर जाने से इस क्षेत्र को मुक्त क्षेत्र की संज्ञा दी और इसकी अकथनीय परम ज्योति के कारण तीर्थ का नामकरण काशी किया।
देश में कुल 12 ज्योतिर्लिंग हैं
देश में कुल 12 ज्योतिर्लिंग इस प्रकार हैं। गुजरात में सोमनाथ, आंध्र प्रदेश के श्रीसैलम में मल्लिकार्जुन, मध्य प्रदेश के उज्जैन में महाकालेश्वर, मध्य प्रदेश में ओंकारेश्वर, हिमाचल में केदारनाथ, महाराष्ट्र में भीमाशंकर, महाराष्ट्र के नाशिक में त्र्यंबकेश्वर, गुजरात के द्वारका में नागेश्वर, झारखण्ड के देवघर में वैद्यनाथ, तमिलनाडु के रामेश्वरम में रामेश्वर, महाराष्ट्र के औरंगाबाद में घृष्णेश्वर और उत्तर प्रदेश के वाराणसी में विश्वनाथ।
वाराणसी के प्रमुख मन्दिर
वाराणसी में काशी विश्वनाथ के अलावा और भी कई प्रमुख मंदिर हैं। यही कारण बै कि वाराणसी को मंदिरों का नगर कहा जाता है। वाराणसी में लगभग हर एक चौराहे पर एक मंदिर स्थित है। इन छोटे-बड़े मंदिरों को वाराणसी की जनता और वहां के शासकों के द्वारा समय-समय पर बनवाये गये हैं।
वाराणसी में स्थित इन मंदिरों में काशी विश्वनाथ मंदिर, अन्नपूर्णा मंदिर, ढुंढिराज गणेश, काल भैरव, बड़ा गणेश, महामृत्युंजय मंदिर, दुर्गाकुंड स्थित दुर्गा मंदिर, संकटमोचन, तुलसी मानस मंदिर, नया विश्वनाथ मंदिर, तिलभांडेश्वर महादेव, धूमावति माता मंदिर, भारतमाता मंदिर, संकठा देवी मंदिर और विशालाक्षी मंदिर प्रमुख हैं।
कैसे पहुंचे काशी विश्वनाथ
वाराणसी का काशी विश्वनाथ मंदिर कैंट रेलवे स्चेशन से लगभग 6 किलोमीटर दूर है। वहीं वाराणसी के बाबतपुर स्थित लाल बहादुर शास्त्री अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा से विश्वनाथ मंदिर की दूरी लगभग 20 किलोमीटर है। वाराणसी के पास चंदौली जनपद स्थित पंडित दीनदयाल उपाध्याय रेलवे जंक्सन (मुगलसराय) से काशी विश्वनाथ की दूरी लगभग 25 किलोमीटर है।
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