Birsa Munda को कहा जाता है धरती का पिता, मिशनरी स्कूल में हुई शिक्षा, सूर्य के थे उपासक, पढ़ें कौन हैं यह जिन्हें मिली भगवान की उपाधि

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Birth Anniversary of Birsa Munda
Birth Anniversary of Birsa Munda

आदिवासियों (Tribals) के भगवान बिरसा मुंडा की 146वीं जयंती (Birth Anniversary of Birsa Munda) है। आदिवासी समुदाय बिरसा मुंडा को “भगवान” नहीं बल्कि “धरती आबा” के रुप में मानता है। धरती आबा का मतलब – धरती का पिता। जल , जंगल और अपनी जमीन के बचाने के लिए इन्होंने काफी लड़ाई लड़ी थी।

जन्म और शिक्षा

सुगना मुंडा और करमी हातु के बेटे बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को बिहार के उलीहातू गांव-जिला रांची में हुआ था, वर्तमान में रांची झारखंड की राजधानीें है। बचपन बहुत ही गरीबी में बिता, फिर भी हार नहीं माने, इस कारण से पलायनवादी जीवन भी जीने के लिए मजबूर हुए। झारखंड क्षेत्र में लूथरन मिशनरियों के कारण शिक्षा भी ईसाई मिशनरी स्कूल में हुई। पढ़ाई के दौरान बिरसा को हिन्दू धर्म का भी ज्ञान मिला। लेकिन वे आदिवासीयत को अच्छी तरह जानते थे।

साल्गा गाँव में प्रारम्भिक पढाई के बाद वे चाईबासा इंग्लिश मिडिल स्कूल में पढ़ने आए। इनका मन हमेशा अपने समाज की ब्रिटिश शासकों द्वारा की गई बुरी दशा पर सोचता रहता था। उन्होंने मुंडा लोगों को अंग्रेजों से मुक्ति दिलाने के लिये अपना नेतृत्व प्रदान किया। 1894 में मानसून के छोटानागपुर में असफल होने के कारण भयंकर अकाल और महामारी फैली हुई थी। बिरसा ने पूरे मनोयोग से अपने लोगों की सेवा की।

जनता ने कहा धरती का पिता

उन्हें उस इलाके के लोग “धरती आबा” के नाम से पुकारा और पूजा जाता था। उनके प्रभाव की वृद्धि के बाद पूरे इलाके के मुंडाओं में संगठित होने की चेतना जागी। मानकी मुंडा भी अंतिम साँस तक बिरसा का साथ दिया।

बिरसा बचपन से ही समाज प्रेमी थे। समाज की निंदा उन्हें पसंद नहीं था। इस कारण से स्कूल से भी निष्कासित हुए। बलशाली और वैचारिक थे। तुइला और बांसुरी पसंदीदा वाद्य यंत्र था। सिंगबोगा (सूरज) के उपासक थे। सिंहभूमि पर भयंकर अकाल पड़ने के कारण बिरसा ने लोगों की सेवा किया। इस कारण से लोग उन्हें धरती आबा के नाम से पुकारते है। भगवान के नाम से मशहूर होकर बिरसा आदिवासी समाज में पूजनीय हो गए।

9 जून 1900 में हुआ था निधन

1 अक्टूबर 1894 को नौजवान नेता के रूप में सभी मुंडाओं को एकत्र कर इन्होंने अंग्रेजो से “लगान” माफी के लिये आंदोलन किया। 1895 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में दो साल के कारावास की सजा दी गयी। लेकिन बिरसा और उसके शिष्यों ने क्षेत्र की अकाल पीड़ित जनता की सहायता करने की ठान रखी थी और अपने जीवन काल में ही एक महापुरुष का दर्जा पाया।

इतिहास के अनुसार उन्होंने अदिवासियों को प्रताड़ित करने वाले जमींदारों को इनता परेशान कर दिया था कि उन्हें अंग्रेजी साशन ने जेल में डाल दिया था। इसी संघर्ष में बिरसा मुंडा समेत कई मुंडा आदिवासी क्रांतिकारी गिराफ्तार किये गए, 39 को फ़ासी 23 को उम्रकैद और बिरसा मुंडा को रांची जेल में ऐसे ही ज़मींदारों के कहने पर थर्ड डिग्री टॉर्चर देकर अंग्रेजों ने उन्हें 9 जून सन 1900 में मार दिया।

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