Mirza Ghalib: जब भी शेर-ओ-शायरी की बात होती है तो अनायास लोगों की जुबां पर मिर्जा गालिब(Mirza Ghalib) का नाम आ जाता है। वे उर्दू व फारसी के महान शायर थे। उनका जन्म 27 दिसंबर 1797 में काला महल, आगरा में हुआ था। वैसे तो लोग उन्हें मिर्जा गालिब के ही नाम से जानते हैं लेकिन उनका पूरा नाम मिर्जा असदुल्लाह बेग खान था। 15 फरवरी को मिर्जा गालिब की बरसी है। उनका निधन 15 फरवरी 1869 में 71 साल की उम्न में हो गया था। मिर्जा गालिब को दुनिया को अलविदा कहे 150 साल से ऊपर हो चुके हैं लेकिन वे आज भी अपनी शायरी के माध्यम से लोगों के दिलों व शायरी के महफिल में जिंदा है।
गालिब अपनी शायरी के जरिए कहते हैं “पूछते हैं वो के गालिब कौन हैं? कोई बतलाओ के हम बतलाएं क्या?” मिर्जा गालिब की बरसी पर हम आपको यहां उनके जीवन से जुड़े खास पांच किस्से बताने जा रहे हैं…
Mirza Ghalib: शराब के लिए दुआ
एक शाम मिर्जा गालिब को शराब नहीं मिली तो नमाज पढ़ने चले गए। इतने में ही उनका एक शागिर्द(शिष्य या चेला) आया और उसे मालूम हुआ कि गालिब को आज शराब नहीं मिली। उसने तुरंत शराब का इंतिजाम किया और मस्जिद के सामने पहुंच गया। उसने गालिब को बोतल दिखाई। बोतल को देखते ही मिर्जा गालिब वुजू(नमाज के लिए हाथ-पैर धोना) करने के बाद मस्जिद से निकलने लगे, तो किसी ने कहा, “ये क्या बगैर नमाज पढ़े चल दिए?” इसपर मिर्जा गालिब बोले, “जिस चीज के लिए दुआ मांगनी थी, वो तो यूंही मिल गई।”
Mirza Ghalib: देखो साहब! ये बातें हमको पसंद नहीं
एक बार मिर्जा गालिब (Mirza Ghalib) ने एक दोस्त को दिसंबर 1858 की आखिरी तारीख में खत भेजा। इसपर उनके दोस्त ने जनवरी 1859 की पहली या दूसरी तारीख को जवाब लिखा। दोस्त के जवाब में मिर्जा गालिब ने लिखा “देखो साहब! ये बातें हमको पसंद नहीं। 1858 के खत का जवाब 1859 में भेजते हो और मजा ये कि जब तुमसे कहा जाएगा तो कहोगे कि मैंने दूसरे ही दिन जवाब लिखा था।”
Mirza Ghalib: खुसर का शज्रा और मिर्जा शरारत
मिर्जा गालिब के खुस्र(ससुर) मिर्जा इलाही बख्श खान पीरी मुरीदी भी करते थे और अपने सिलसिले के शर्जे की एक-एक कापी अपने मुरीदों को दिया करते थे। एक बार उन्होंने मिर्जा गालिब से शज्रा नकल करने के लिए कहा। गालिब ने नकल तो कर दी लेकिन इस तरह कि एक नाम लिख दिया दूसरा छोड़ दिया तीसरा फिर लिख दिया, चौथा हजफ(हटा) कर दिया। उनके खुस्र साहिब ये नकल देखकर बहुत नाराज हुए कि ये क्या गजब किया। इसपर मिर्जा गालिब बोले “हजरत! आप इसका कुछ ख्याल न फरमाईए। शज्रा दरअसल खुदा तक पहुंचने का एक जीना(सीढ़ी) है। सौ जीने की एक-एक सीढ़ी बीच से निकाल दी जाए तो चंदां हर्ज वाका(कोई परेशानी) नहीं होता। आदमी जरा उचक-उचक के ऊपर चढ़ सकता है।”
Mirza Ghalib: क्या आपसे बढ़कर भी कोई बला है
एक बार की बात है कि मिर्जा गालिब अपना मकान बदलना चाहते थे। चुनांचे(इसलिए) इस सिलसिले में कई मकान देखे, जिनमें एक का दीवानाखाना मिर्जा साहिब को पसंद आया,लेकिन महल सरा देखने का मौका न मिल सका। घर आकर बेगम साहिबा को महल सारा देखने के लिए भेजा। जब वो देखकर वापस आयीं तो बताया कि “उस मकान में लोग बला (आफत) बताते हैं।” मिर्जा गालिब ये बात सुनकर बोले “क्या आपसे बढ़कर भी कोई और बला है।”
Mirza Ghalib: मैं बागी कैसे?
हंगामा-ए-गदर के बाद जब मिर्जा गालिब की पेंशन बंद थी। एक दिन मोती लाल, मीर-ए-मुंशी लेफ्टिनेंट गवर्नर बहादुर पंजाब, मिर्जा साहिब के मकान पर आए। इस दौरान गुफ्तगु(बातचीत) में पेंशन का भी जिक्र आया। इस पर मिर्जा गालिब बोले “तमाम उम्र अगर एक दिन शराब न पी हो तो काफिर और अगर एक दफा नमाज पढ़ी हो तो गुनहगार, फिर मैं नहीं जानता कि सरकार ने किस तरह मुझे बागी मुसलमानों में शुमार किया।”
‘गालिब की हवेली’ मिर्जा गालिब का निवास स्थान
चांदनी चौक यानी पुरानी दिल्ली के गली कासिम जान, बल्लीमारान में ‘गालिब की हवेली’ है। यह 19वीं शताब्दी में मिर्जा गालिब का निवास स्थान था। अब यह गालिब का एक विरासत स्थान है। यहां लोग गालिब के बारे में जानने के लिए भी जाते हैं। यहां गालिब की प्रतिमा, गालिब से जुड़ी कई चीजें और इसके दीवारों पर गालिब की शायरियां लिखी हुई हैं। हवेली में एक स्थान हैं, जहां गालिब के मनपसंद खाने के बारे में भी लिखा गया है। उसके अनुसार, गालिक के मनपसंद भोज थे- तले कबाब, दाल मुरब्बा, भुना गोश्त, शम्मी कबाब, बेसन की कढ़ी और पकौड़ियां, चने की दाल, चटनी, अचार, सिरका, सोहन हलवा, आम मिश्री(भोजन के साथ), पिसे हुए बादाम(मिस्री के साथ) हुक्का।
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