हम जिस समय में जी रहे हैं उसमें गंगा जमुनी तहजीब को अप्रासंगिक बताया जाने लगा है। बीते वक्त में संकीर्णता को बढ़ावा मिला है और समाज को बांटने पर अधिक जोर दिया गया है। समाज का एक तबका है जो गंगा जमुनी तहजीब को एक बोगस विचार बताता है, उनका मानना है कि गंगा जमुनी तहजीब एक बकवास है जिसे अब तक हमारा समाज ढोता आ रहा था। लेकिन इन सवालों के बहाने ही और समाज में बढ़ती दूरियों के चलते गंगा जमुनी तहजीब के बारे में जानना जरूरी हो जाता है। इसी सिलसिले में एक किताब है ‘दारा शुकोह- संगम संस्कृति का साधक’, जिसे लिखा है लेखक मैनेजर पाण्डेय ने। इस लेख में हमारी मुराद जिस गंगा जमुनी तहजीब से है उसी को इस किताब में पाण्डेय जी ने संगम संस्कृति बताया है।
आज ही के समय की बात की जाए तो ऐसा नहीं है कि संगम संस्कृति पर विश्वास करने वाले समाप्त हो चुके हैं। संगम संस्कृति के पैरोकार दारा शुकोह से पहले भी थे और आगे भी रहेंगे। आसान शब्दों में कहें तो संगम संस्कृति तो एक नजरिया है जो यह देखता है कि गिलास आधा पानी से भरा हुआ या खाली है। इस किताब के पहले अध्याय में ही लिखा है, ”दुनियाभर में सच्चे संत और साधक, जब भी अपनी सोच का सच साहस के साथ कहते हैं तब सत्ताएं उनके खिलाफ खड़ी हो जाती हैं। ” बकौल लेखक सुकरात को जहर देने वाले, ईसा मसीह को सूली पर लटकाने वाले , दारा शुकोह की हत्या करने वाले और आधुनिक समय में महात्मा गांधी की हत्या करने वालों में कुछ समानताएं हैं। सबके सब किसी ने किसी तरह की सत्ता के संरक्षक थे। जबकि शहीद होने वालों ने सत्ता को चुनौती दी थी।
दारा शुकोह मुगल बादशाह शाहजहां का सबसे बड़ा बेटा था और साल 1615 में अजमेर में पैदा हुआ था। 1659 में दारा के छोटे भाई औरंगजेब ने सत्ता हासिल करने के लिए अपने भाई को मरवा दिया था। लेखक मैनेजर पाण्डेय बताते हैं कि औरंगजेब ने दारा को इस्लाम विरोधी बताकर उसकी हत्या करवा दी थी। लेकिन दारा इस्लाम विरोधी नहीं था। वह एक उदार व्यक्ति था, जो कि कुरान पर अंधविश्वास न करके उसके अर्थ को समझने की बात कहता था। दारा ने कुरान, इतिहास, फारसी काव्य का बचपन में ही अध्ययन कर लिया था। आगे चलकर उसने हिंदी, अरबी और संस्कृत का भी ज्ञान हासिल किया। वह एक बड़ा कलाप्रेमी भी था। साथ ही दारा लाहौर के प्रसिद्ध कादिरी सूफी संत मियां मीर का अनुयायी था, जिनसे उनका परिचय मुल्ला शाह ने कराया था।
समुद्र संगम या मज्म उल बहरैन दारा की सबसे प्रसिद्ध रचना है। जो कि सूफी और वेदांत दर्शन के बीच की समानता बताती है। मैनेजर पाण्डेय की लिखी किताब में दारा शुकोह की बाकी रचनाओं के बारे में भी बताया गया है। साथ ही विचारक के रूप में दारा शुकोह के विचार भी साझा किए गए हैं। दारा के लेखन की बात की जाए तो इसमें सफीनतुल औलिया,सकीनतुल औलिया ,रिसाला ए हकनुमा,तरीकतुल हकीकत ,हसनातुल आरफीन,इकसीरे आजम, मुकालमा बाबा लालदास वा दार शिकूह और सिर्रे अकबर,जो कि पचास उपनिषदों का फ़ारसी अनुवाद है, शामिल हैं। दारा ने योग वशिष्ठ का भी अनुवाद करवाया था। दारा द्वारा स्थापित पुस्तकालय आज भी मौजूद है।
1642 ई. में शाहजहां ने दारा को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था। शाहजहां के बीमार पड़ते ही सिंहासन के लिए उत्तराधिकार की जंग छिड़ गई जिसमें कि औरंगजेब कामयाब रहा। दारा की बदकिस्मती यह रही कि उसने जिस पर भरोसा किया उसने ही धोखा किया। मलिक जीवन ,जिसकी दारा ने दो बार जान बचाई थी, उसी ने दारा को धोखा दिया और उसे कैद कर औरंगजेब के हवाले कर दिया। औरंगजेब ने दारा को दिल्ली लाकर उसे हाथी पर बैठा जुलूस निकाला और बाद में दारा को इस्लाम विरोधी बताकर उसकी हत्या कर दी गई। इस किताब में लेखक लिखते हैं कि अगर औरंगजेब की जगह दारा शुकोह ने शासन संभाला होता तो आज हिंदुस्तान का इतिहास कुछ और होता।
किताब के बारे में
लेखक – मैनेजर पाण्डेय
प्रकाशक- राजकमल पेपरबैक्स
मूल्य- 299 रुपये
पेज संख्या- 191