आमतौर पर जब भी आप कोई उपन्यास कहानी या ऐसी ही कोई गद्य रचना पढ़ते हैं तो उसमें लेखक बीच-बीच में बहुत ही गहरी या चिंतन करने लायक बात लिखते हैं। आप कह सकते हैं कि लेखक अपने ज्ञान या वैचारिक मंथन का एक निचोड़ उड़ेलते हैं लेकिन हाल ही में जो उपन्यास पढ़कर पूरा किया उसमें ऐसा नहीं है। लेखक ने मानो पाठक के समक्ष कहानी कह दी और उसको स्पेस दे दिया है कि तुम सोचते रहो। ये उपन्यास है ‘बिढार’ और इसके लेखक हैं भालचंद्र नेमाड़े।
27 मई 1938 को तत्कालीन पूर्वी खानदेश (आज के जलगांव) में जन्मे भालचंद्र नेमाड़े मराठी लेखक, कवि, आलोचक और भाषाई विद्वान हैं। ‘बिढार’ नेमाड़े की चार उपन्यासों की सीरीज का पहला भाग है। हूल, जरीला और झूल आगे के तीन भाग हैं। वैसे तो नेमाड़े जैसे विद्वान किसी पुरस्कार के मोहताज नहीं हैं लेकिन उन्हें साहित्य अकादमी, ज्ञानपीठ और पद्मश्री से सम्मानित किया जा चुका है। अब आते हैं उनकी इस रचना बिढार पर।
बिढार मूलत: मराठी में लिखा गया है लेकिन राजकमल प्रकाशन ने इसे हिंदी में छापा है। अनुवाद किया है रंगनाथ तिवारी ने।
बिढार पहली बार 1967 में प्रकाशित हुआ था। इस उपन्यास में नेमाड़े की भाषा की बात की जाए तो वे ऐसी भाषा इस्तेमाल करते हैं जिसका लक्ष्य सौंदर्य या जादू पैदा करना नहीं है। नेमाड़े खुद अपने साक्षात्कारों में कह चुके हैं कि वे स्थापित धारणाओं को चुनौती देने के लिए ही लिखते हैं। भाषा ऐसी कि अपनी बात दो टूक रखी जाए।
1963 में नेमाड़े का पहला उपन्यास ‘कोसला’ छपा था। जो नेमाड़े की पहचान बन गया। नेमाड़े के पहले उपन्यास कोसला की ही तरह बिढार में लेखक ने एक ऐसे लड़के की कहानी कही है जो महाराष्ट्र के देहात से संबंध रखता है और कॉलेज में पढ़ रहा है। नेमाड़े अपनी ही कहानी कहते दिखते हैं क्योंकि वे खुद खानदेश में जन्मे और आगे की पढ़ाई के लिए बाहर गए। बिढार में चांगदेव भी अपने साथी छात्रों के साथ रहता है। चांगदेव और उसके दोस्त अपनी पसंद की एक छोटी सी दुनिया में रहते हैं वे किसी भी कीमत पर इस दुनिया की रक्षा करने के लिए तैयार हैं। इससे साहित्य के प्रति उनकी गंभीरता, वे जिस आदर्शवाद को मानते हैं और जिसकी वे कल्पना करते हैं, वह दिखता है। आखिर में बाहरी दुनिया इस छोटी दुनिया पर हावी हो जाती है।
मुख्य किरदार चांगदेव पाटिल एक ऐसा शख्स है जो भोला-भाला है, जिस पर आस-पास की दुनिया का असर पड़ता है और वह उसे ही भीतर-बाहर से समझने में लगा रहता है। चांगदेव बहुत ही यथार्थवादी किस्म का शख्स मालूम होता है। आलोचक चांगदेव को बहुत निराशावादी बताते हैं। चांगदेव को जीवन की हर घटना में क्रूरता या कड़वा सच ही दिखता है। वह हमेशा परेशान रहता है। चांगदेव जुझारू, सत्ता-विरोधी और रोमांटिक भी है। आपको उसकी सोच में तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक चुनौतियों को देख सकेंगे। आलोचकों का कहना है कि चांगदेव का चरित्र उपन्यास में मूल कथानक से भी अधिक महत्व पा जाता है।
चूंकि लेखक मराठी पत्रिका वाचा का संपादन कर चुके हैं इसलिए वे बिढार में मैगजीन चलाने के अनुभवों और संपादक के कामकाज के किस्सों को बयां करते हैं। उपन्यास में चांगदेव एक बड़ा लेखक बनना चाहता है। वह पत्रिकाओं के लिए लिखता है। पत्रिकाएं अधिक समय तक चलने में विफल रहती हैं। नेमाड़े ने बिढार में 60 के दशक के साहित्यिक समाज के बारे में खुलकर बताया है । लेखक को समाज कैसे देखता है, लेखन का काम कैसा है, लेखन का समाज में क्या महत्व है आदि।
नेमाड़े चांगदेव के बहाने प्रचलित मराठी साहित्य परंपरा पर जमकर निशाना साधते हैं। बिढार में साहित्य की दुनिया के ऐसे लोगों पर भी हमला बोला गया है जो पाखंडी हैं। किताब छापने वाले प्रकाशक, प्रिंटिंग प्रेस के मालिक, अन्य कवि और उपन्यासकारों की हकीकत भी नेमाड़े लिखते हैं। नेमाड़े बताते हैं कि कैसे कुछ लोग काबिल लेखकों को भटकाते हैं ।
नेमाड़े ने कॉलेज टीचर के रूप में काफी वक्त तक काम किया है इसकी कहानी शायद वे बिढार में भी कहते दिखते हैं। बिढार में चांगदेव पाटिल का किरदार भी आखिर में कॉलेज टीचर की नौकरी ज्वॉइन कर लेता है। बिढार और नेमाड़े के लेखन की खासियत है कि वह हमेशा आपको बताता रहेगा कि किरदार का मूल कहां है और वह कहां का रहने वाला है। उपन्यास खत्म होते-होते चांगदेव स्वयं के बारे में अपनी समझ को भी आकार देता है। बिढार में आदर्शवाद की निरर्थकता और काउंटर कल्चर की नाकामी बताई गई है। उपन्यास बताता है कि व्यावहारिक जीवन विचारों से समझौता करा देता है।
नोट: बिढार उपन्यास को आप राजकमल प्रकाशन से 299 रुपये (पेपरबैक) में खरीद सकते हैं। 216 पेज का उपन्यास ऑनलाइन भी ऑर्डर किया जा सकता है।