Blog: आज मैक्सिम गोर्की का उपन्यास ‘मां’ पढ़कर पूरा किया। इससे पहले इस उपन्यास का पहला भाग ग्रेजुएशन में पूरा किया था लेकिन दूसरा भाग मिल नहीं सका था। लेकिन इस बार यह रचना एक बार में पूरी पढ़ी। उपन्यास पूरा किया तो सबसे पहले पिछले साल सितंबर में पढ़े उपन्यास ‘1084वें की मां’ की याद आई। फिर दिमाग में चलने लगा कि क्या सभी क्रांतिकारियों की मांओं की कहानी एक सी है।
Blog: दोनों किताबें क्रांतिकारियों की मांओं के बारे में हैं
जहां 20वीं सदी की शुरूआत में रूसी साहित्यकार मैक्सिम गोर्की साल 1906 में ‘मां’ की रचना करते हैं और वहीं उसके करीब 68 साल बाद बांग्ला में महाश्वेता देवी ‘1084वें की मां’ लिखती हैं। अब सवाल ये है कि रूसी की एक रचना को बांग्ला की एक रचना से जोड़ कर क्यों देखा जा रहा है। दरअसल, दोनों ही रचनाएं क्रांति के बारे में हैं और दोनों ही उपन्यासों में एक मां की कहानी है।
Blog: गोर्की ने सर्वहारा समाज की निराशा को किया था दूर
साहित्यिक तबका मैक्सिम गोर्की के ‘मां’ उपन्यास को 1917 की रूसी क्रांति से पहले की एक महत्वपूर्ण रचना मानता है। बताया जाता है कि साल 1906 में मैक्सिम गोर्की ने मां की रचना इसलिए की जिससे की रूस के सर्वहारा समाज से 1905 के बाद व्याप्त निराशा को दूर किया जा सके। ये उपन्यास साल 1902 की एक सच्ची घटना पर आधारित है जिसमें एक मां की गिरफ्तारी के बाद क्रांति होती है।
‘मां’ उपन्यास एक मां की कहानी है जो कि अनपढ़ होने के बावजूद अपने बेटे और उसके क्रांतिकारी साथियों की गतिविधियों में दिलचस्पी लेती है और उनकी मदद करने लगती है। उपन्यास एक ऐसी महिला की कहानी है जो क्रांति के बारे में कोई समझ नहीं रखती है और धीरे-धीरे क्रांति में अपना योगदान देती है। साहित्यकार गोर्की के ‘मां’ को समाजवादी यथार्थवाद की पहली रचना करार देते हैं।
Blog: महाश्वेता देवी का ‘1084वें की मां’ नक्सल क्रांति के इर्दगिर्द है
वहीं ‘1084वें की मां’ की बात की जाए तो महाश्वेता देवी का यह उपन्यास भारत में नक्सल क्रांति के इर्दगिर्द है। इस उपन्यास में एक मां अपने बेटे की यादों को जी रही है जिसकी सरकार द्वारा हत्या कर दी गयी है। इस कहानी में भी मां का बेटा क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल रहता है। उपन्यास में पता चलता है कि कैसे मां को समय के साथ पता चलता है कि उसके बेटे की सोच और विचार क्या थे? उसकी नजर में उसे उनका औचित्य समझ आने लगता है।
आप दोनों ही रचनाएं पढ़ेंगे तो सोचेंगे कि एक क्रांतिकारी की मां को किन-किन चीजों से गुजरना पड़ता है, किन-किन चीजों का सामना करना पड़ता है। समाज उनसे लाख सवाल करे लेकिन वह हकीकत को अपने भीतर जान रही होती हैं। यह जानने के बाद भी उनके बेटे क्रांति के लिए खुद को कुर्बान कर देंगे वे अपने बेटे के मकसद को जानकर गर्व महसूस करती हैं।दुनिया में न जाने कितनी क्रांतियां हुई होंगी ? न जाने उनकी माताएं कैसी रही होंगी? उनका स्मरण ही गर्व का एहसास कराता है। ऐसी क्रांतिकारी मांओं को सलाम।
(लेखक: सुबोध आनंद गार्ग्य युवा पत्रकार हैं। देश-विदेश के विषयों पर लिखते रहे हैं।)
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