Jayaprakash Narayan यानी जेपी महात्मा गांधी के बाद भारत की राजनीति में सबसे प्रभावशाली नेताओं में शुमार किये जाते हैं। इसका स्पष्ट कारण है उनका “संपूर्ण क्रांति” का नारा। जिस तरह गांधी के “करो या मरो” या फिर “अंग्रेजों भारत छोड़ो” के नारे पर देश की जनता ने अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल फूंक दिया था।
अगर जेपी के राजनैतिक जीवन पर नजर डालें तो उन्होंने भी इंदिरा गांधी के शासनकाल में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ जिस तरह से “संपूर्ण क्रांति” का नारा दिया और देश की जनता खासकर छात्रवर्ग सड़कों पर उतरा। उसमें गांधी के आंदोलन की छाप स्पष्ट तौर पर देखी जा सकती है।
जयप्रकाश तैयार नहीं थें आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए
दरअसल 70 के मध्य में बिहार की जनता और उसमें भी खासकर छात्र तत्कालीन मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर की शासन व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलनरत थे। पटना में छात्रों के दल ने आंदोलन की अगुवाई के लिए जेपी से प्रार्थना की। लेकिन राजनैतिक जीवन से सन्यास लेकर सर्वोदय आंदोलन से जुड़ चुके जेपी ने छात्रों की मांग को ठुकरा दिया। परन्तु छात्रों के हठ और आंदोलन के हिंसक होने के डर के कारण जेपी ने आंदोलन का नेतृत्व करने की बात को स्वीकार कर लिया।
इसके बाद जेपी ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से अब्दुल गफूर को तत्काल सीएम पद से हटाने की मांग की लेकिन इंदिरा गांधी ने जेपी की मांग को ठुकराते हुए आगामी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को हराने की चुनौती दे दी। चूंकि जेपी इंदिरा गांधी के पिता जवाहर लाल नेहरू के मित्र थे और जेपी की पत्नी प्रभावती भी इंदिरा गांधी को बेटी की तरह मानती थीं। इस कारण जेपी को भारी कष्ट पहुंचा।
दिल्ली के रामलीला मैदान में जनता से “संपूर्ण क्रांति” की मांग रखी गई थी
ठीक उसी समय इंदिरा गांधी के खिलाफ भी इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनाव में सरकारी तंत्र के प्रयोग से रायबरेली लोकसभा क्षेत्र से चुनाव जीतने के आरोप का केस चल रहा था। जिसमें जस्टिस जगमोहन लाल सिम्हा ने इंदिरा गांधी के खिलाफ फैसला देते हुए उनको दोषी मानते हुए अयोग्य करार दे दिया गया। जिसके बाद खुद इंदिरा गांधी सत्ता से बेदखल हो गईं। इसके बाद जेपी ने जनता से 5 जून 1975 को दिल्ली के रामलीला मैदान में “संपूर्ण क्रांति” की मांग रख दी। जिससे इंदिरा गांधी इतनी भयभीत हो गईं कि अंततः 25 जून 1975 को उन्होंने देश में आंतरिक आपातकाल (धारा- 352) की घोषणा कर दी।
साल 1975 में लागू इमरजेंसी को आज भी कांग्रेस के शासन का काला अध्याय कहा जाता है। इस पूरे मामले में सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि वर्तमान राजनीति में कांग्रेस के विपक्ष में जितने भी शीर्ष नेता हैं, उनमें से ज्यादातर का संबंध इसी इमरजेंसी से रहा। इस तरह से अगर देखा जाए तो जिस तरह से गांधी जी की विचारधारा से प्रभावित होकर भारतीय राजनीति में अनेक नेता पैदा हुए, ठीक उसी तरह जेपी आंदोलन से भी बहुत से नेता पैदा हुए। मसलन लालू यादव, सुशील मोदी, नीतीश कुमार, स्व. रामविसाल पासवान, अरूण जेटली आदि।
एक किस्सा जेपी की पत्नी प्रभावती को लेकर
जेपी गांधी की विचारधारा से बहुत प्रभावित थे और जेपी की राजनीति आजीवन उनकी विचारधारा के इर्दगिर्द ही रही। लेकिन एक समय था जब जेपी गांधी से नाराज भी थे। उसका किस्सा बहुत रोचक है क्योंकि उस किस्से के मूल में जेपी की पत्नी प्रभावती थीं।
Mahatma Gandhi ने अहिंसा के प्रयोग से भारत को आजादी दिलाई। गांधी ने जब गुलाम भारत की राजनीति में प्रवेश किया उस समय हमारे समाज में कई तरह की असमानताओं और बुराईयों का बोलबाला था। देश गुलाम होते हुए भी एक नहीं था। धर्म, मजहब, जाति और सामंती व्यवस्था में बंटा यह देश गांधी के प्रयासों से ही एकजुट हो सका। लेकिन उन्हीं महात्मा गांधी के एक व्रत के कारण एक परिवार जीवन भर साथ रहते हुए बिखर गया।
जयप्रकाश की सहमति के बगैर जब प्रभावित ने कठोर संकल्प लिया
जी हां, हम बात कर रहे हैं जयप्रकाश नारायण यानी जेपी और प्रभावती का परिवार। गांधी जी के सफल ब्रम्हचर्य व्रत के वशीभूत होकर प्रभावती ने बिना जयप्रकाश की सहमति के आजीवन ब्रम्हचर्य का कठोर संकल्प ले लिया। इससे जयप्रकाश नारायण इतने आहत हुए कि उन्होंने इसके लिए सीधे-सीधे गांधीजी को जिम्मेदार ठहराया।
इस किस्से की शुरुआत कुछ इस तरह से होती है कि जयप्रकाश नारायण प्रभावती से शादी करने के बाद उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका के बर्कले यूनिवर्सिटी गये। प्रभावती घर में अकेले रह गईं। गांधी से प्रभावित प्रभावती ने गांधी से उनके आश्रम में रहने की इजाजत मांगी। जिस पर गांधी ने उनके पिता बृजबिहारी प्रसाद और जेपी को चिट्ठी लिखकर प्रभावती को आश्रम में भेजने की बात की। चूंकि जेपी भी गांधी जी की विचारधारा से खासे प्रभावित थे और बृजबिहारी प्रसाद तो गांधी के भक्त थे ही सो प्रभावती को आश्रम में रहने की इजाजत मिल गई।
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गांधी के सत्य के प्रयोग से प्रभावित प्रभावती को आश्रम में उनके ब्रम्हचर्य व्रत के पालन के बारे में पता चला। प्रभावती को आश्चर्य हुआ कि “बा” यानी कस्तूरबा के साथ रहते हुए आखिर गांधी कैसे ब्रम्हचर्य का पालन कर सकते हैं। गांधी साल 1906 में ब्रम्हचर्य व्रत का संकल्प ले चुके थे। प्रभावती के लिए बापू का ब्रम्हचर्य एक अबूझ पहेली बन गया था। जिसे सिर्फ गांधी की सुलझा सकते थे।
अंत में प्रभावती ने गांधी के सामने उनके ब्रम्हचर्य को लेकर अपनी शंका रखी। जिसे सुनकर गांधीजी को हंसी आ गई। उन्होंने प्रभावती का समझाया कि इंद्रियों को वश में रखना ही ब्रम्हचर्य है। इंद्रियों से हमारी इच्छाओं का जन्म होता है। हम उन इच्छाओं की पूर्ति के लिए तरह-तरह के प्रयास करते हैं। जीवन में लक्ष्य का निर्धारण भी हम स्वयं ही करते हैं। जब इंद्रियां मेरे लक्ष्य प्राप्ति में बाधक बनने लगी और मुझे विचलित करने लगीं, तभी मैंने ब्रम्हचर्य तप की प्रतिज्ञा ली।
गांधीजी ने आगे कहा कि यह समय देश को स्वाधीन कराने का है और यही मेरा प्रबल लक्ष्य है। जहां तक “बा” का प्रश्न है तो वह मेरी सहधर्मिणी हैं। हम साथ रहते हुए भी सुचिता की डोर से बंधे हैं और हम दोनों उस डोर की पवित्रता का सम्मान करते हैं। इस बात से प्रभावती इतनी सम्मोहित हुई कि उन्होंने भी ब्रम्हचर्य व्रत की इच्छा रखी। लेकिन गांधी जी ने कहा कि इसके लिए उन्हें जयप्रकाश नारायण से परामर्श करना चाहिए।
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प्रभावती ने अमेरिका जेपी को पत्र लिखा और अपनी इच्छा बताई। जेपी पत्र पढ़कर पशोपेश में पड़ गये। उन्होंने पत्र के जवाब में लिखा कि अभी इसका जवाब देना संभव नहीं है, जब मिलेंगे तब बात करेंगे। इस बीच जेपी की मां की तबियत बहुत खराब रहने लगी। साल 1929 में जेपी अपनी पढ़ाई छोड़कर भारत आ गये।
इसके बाद जेपी पटना में प्रभावती से मिले। वहां भी प्रभावती ने फिर उनसे वही बात कही। जेपी प्रभावती को लेकर पटना से वर्धा पहुंचते हैं गांधी जी के आश्रम। वहां जेपी अपनी दुविधा गांधी के सामने रखते हैं। गांधी जेपी की भावनाओं को अच्छे से समझ रहे थे। लेकिन प्रभावती के प्रति भी उनका विशेष लगाव था। इसलिए वह कुछ भी स्पष्ट नहीं कह पा रहे थे। इसके बाद भी उन्होंने जेपी को जरूर समझाया कि दांपत्य जीवन दोनों पक्षों की समरसता से चलता है। जेपी प्रभावती के साथ निराश बापू के आश्रम से वापस लौट आये।
उसके बाद साल 1929 से 1936 तक जेपी और गांधी के बीच इस मुद्दे पर लंबा पत्र-व्यवहार चला। पत्र में गांधी ब्रम्हचर्य के पक्ष में लिखते थे और परोक्षतौर पर प्रभावती के फैसले को सही ठहराते थे। लेकिन बापू के पत्रों के जवाब लिखे जेपी के पत्रों में सांसारिक जीवन की व्याख्या भी उतने ही वाजिब तरीके से की जा जाती थी। दरअसल जेपी गृहस्थ जीवन चाहते थे।
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सांसारिक जीवन के प्रति जेपी की दृढ इच्छा को देखकर अंततः गांधीजी जेपी को दूसरी शादी का सुझाव देते हैं। गांधी के इस सुझाव पर जेपी पूरी तरह से बिफर पड़ते हैं क्योंकि जेपी प्रभावती के अलावा किसी और को स्वीकार करने का सोच भी नहीं सकते थे। गांधी की दूसरी शादी की सलाह को जेपी ने “रूथलेस लॉजिक” का नाम दे दिया।
लेकिन अंततः जेपी प्रभावती को ब्रम्हचर्य का व्रत लेने से रोक न सके। प्रभावती के ब्रम्हचर्य के सम्मान में जेपी ने भी आजीवन ब्रम्हचारी रहने की शपथ ले ली। इसके बाद दोनों आजीवन साथ रहे लेकिन ब्रम्हचर्य की शुचिता के साथ। साल 1973 में प्रभावती की मौत होती है गांधी के उसी ब्रम्हचर्य के व्रत के साथ और जेपी अकेले रह जाते हैं।