तब भारत की राजधानी दिल्ली नहीं हुआ करती थी। भारत में ब्रिटिश राज था और ब्रिटिश राज के अधीन भारत की राजधानी थी कलकत्ता। तब पूरे देश में भारत को अंग्रेजी दासता से मुक्त करने के लिए आजादी का आंदोलन अपने उफान पर था। लेकिन अंग्रेजों के मन में भारत को आजादी देने का ख्याल दूर दूर तक नहीं था। ब्रिटिश शासन भारतीय शासन को और ज्यादा मुस्तैदी से चलाने के लिए भारत की राजधानी कलकत्ता से बदल कर दिल्ली करने की सोच रहा था । इसके लिए ब्रिटिश शासन दिल्ली में वायसराय भवन के साथ साथ हाउस ऑफ पार्लियामेंट का निर्माण कराए जाने का विचार कर रहा था। हाउस ऑफ पार्लियामेंट का नाम इसलिए दिया गया था क्योंकि ब्रिटिश विधान परिषद इसी के तहत काम करती है।
कैसे तय हुआ ‘हाउस ऑफ पार्लियामेंट’ का डिजायन
हाउस ऑफ पार्लियामेंट की रुप रेखा कैसी हो, इसके लिए ब्रिटेन के मशहूर आर्किटेक्ट एडविन के लुटियन और हर्बर्ट बेकर को 1912 में जिम्मा दिया गया। दोनों आर्किटेक्ट भारतीय शिल्प व स्थापत्य शैली से प्रभावित थे और चाहते थे कि बनने वाला हाउस ऑफ पार्लियामेंट का भवन भव्य होने के साथ साथ भारतीय शैली की छाप लिए हुए भी हो। इन दोनो ने इस भवन के वास्तु डिजायन के लिए भारत के कई इलाकों की खाक छानी। उन्होंने भारत में बनने वाले इस भवन के लिए जो मूल डिजायन तैयार किया वह भारत के ही मध्य प्रदेश के मुरैना स्थित चौंसठ योगिनी मंदिर की वास्तु कला पर आधारित था। फिर इन दोनों वास्तुकारों ने भारतीय मजदूरों के साथ मिलकर भारतीय परंपराओं का अनुसरण करते हुए इसे और विस्तार दिया। बाद में ड्यूक ऑफ कनॉट ने 12 फरवरी, 1921 को हाउस ऑफ पार्लियामेंट की नींव रखी और ब्रिटिश शासन की सुविधा के लिए हाउस ऑफ पार्लियामेंट बनना शुरु हुआ।

बनाने में कितनी आई लागत और कितना लगा समय
इस भवन के बाहर बाहर मुरैना स्थित चौंसठ योगिनी मंदिर की वास्तु कला से प्रेरित 144 स्तंभ बनाये गये । जो किसी भी दिशा से देखने पर एक समान संख्या में दिखते हैं। इस अनूठे वास्तुकला वाले भवन के बनने में करीब 6-7 साल लगे। और तब इसके बनने में जो खर्च आया था वो था 83 लाख रुपयों का , जिस यदि वर्तमान मुद्रा-स्फीति के पैमाने से मापी जाए जो कुल रकम हजारों करोड़ों में बैठेगी।

कब हुआ उद्घाटन
ब्रिटिश राज का हाउस ऑफ पार्लियामेंट जब बनकर तैयार हुआ, उस वक्त भारत के वायसराय लार्ड इरविन थे। सो लार्ड इरविन ने ही साल 18 जनवरी 1927 को इस भवन का उद्घाटन किया। 1947 में जब भारत आजाद हुआ तो भारत की संविधान सभा ने इसे अपने अधिकार में ले लिया। फिर 26 जनवरी सन् 1950 में संविधान लागू होने के बाद इसे भारतीय संसद का नाम और रूप दिया गया।
नए संसद भवन की शुरुआत
अब देश को जल्द ही नया संसद भवन मिलने जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 28 मई को संसद भवन की नई बिल्डिंग का लोकार्पण करने वाले हैं। प्रधानमंत्री मोदी के लिए यह दिन इसलिए भी खास है क्योंकि इसी दिन नौ साल पहले मोदी ने 2014 में प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी। भारतीय संसद के नए भवन का उद्घाटन फिलहाल हो जाएगा, पर संसद आगामी मानसून सत्र जो जुलाई में शुरू होने वाला है, उसके नए भवन में होने की संभावना नहीं है। संभावना यह है कि इस साल के शीतकालीन सत्र से नई संसदीय भवन में संसद के सारे कार्य सुचारु रुप से चलने लगेंगे।

क्या अंतर है नए और पुराने संसद भवन में
नया संसद भवन आकार में त्रिकोणीय आकार है जबकि अंग्रेजों का बनवाया पुराना संसद भवन गोलाकार था। नया संसद भवन को बनाने में लगभग 971 करोड़ की लागत आई है। इसका निर्माण 15 जनवरी, 2021 को शुरू हुआ था। 4,500 वर्ग मीटर क्षेत्र पर निर्मित 950 कमरों वाली नई चार मंजिला इमारत में 1,224 सासंद लोग रह सकते हैं। नए संसद भवन में तीन मुख्य द्वार हैं, जिन्हें नाम दिया गया है – ज्ञान द्वार, शक्ति द्वार और कर्म द्वार। इसके अलावा अन्य आगंतुकों के लिए अलग-अलग प्रवेश द्वार भी होंगे । नए संसद भवन में एक भव्य संविधान कक्ष भी होगा, जो भारत की लोकतांत्रिक विरासत को प्रदर्शित करने के लिए बनाया गया है। नए संसद भवन में संसद सदस्यों के लिए लाउंज, एक लाइब्रेरी, मल्टीपल कमेटी रूम, डाइनिंग एरिया और पर्याप्त पार्किंग की जगह भी होगी। भारत के संविधान की मूल प्रति हॉल के केंद्र में रखी जाएगी।



नए संसद भवन में भारत के इतिहास के गणमान्य महापुरुषों जैसे महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस के अलावे देश के अन्य प्रधानमंत्रियों की तस्वीरें लगाई जाएंगी। मौजूदा लोकसभा में 550 सांसदों के बैठने की जगह है जबकि नई बिल्डिंग की लोकसभा में 888 सीटें बनाई गई हैं। नये संसद भवन में राज्यसभा सांसदों के लिए भी बैठने की जगहों में बढ़ोत्तरी की गई है। फिलहाल राज्यसभा में सांसदों के बैठने की जगह 250 है जबकि नये भवन की राज्यसभा में 384 सांसदों के बैठने की जगह होगी।
कुछ ही दिनों में अब इतिहास होने जा रहा वर्तमान संसद भवन करीब एक शतक का इतिहास समेटे हुए है। किसी भी लोकतंत्र के लिए यह छोटी अवधि नहीं है। अंग्रेजी शासन और आजादी के आंदोलन से लेकर अब तक यह भवन कई दौरों और बदलावों का गवाह रहा है, मौन रह कर। अब यह भारतीय लोकतंत्र के एक अमूल्य धरोहर के रुप में सहेजे जाने लायक थाती बन कर सबके दिलों में रहेगा।