भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को चुनौती देने जैसे संवेदनशील मुद्दों पर फैसला अदालत के विवेक पर छोड़ने के सरकार के रुख पर उच्चतम न्यायालय के एक न्यायाधीश ने निराशा व्यक्त की और कहा कि नेताओं की तरफ से इस तरह की शक्तियों को न्यायाधीशों पर छोड़ने का काम रोजाना हो रहा है। दो वयस्कों के बीच सहमति से समलैंगिक संबंधों को अपराध के दायरे से बाहर करने वाली उच्चतम न्यायालय की पांच सदस्यीय संविधान पीठ में शामिल न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ ने कहा कि धारा 377 मामले में फैसला औपनिवेशिक मूल के कानूनों और संवैधानिक मूल्यों का सही प्रतिनिधित्व करने वाले कानूनों के बीच लड़ाई की भावना का सही मायने में प्रतिनिधित्व करता है।
न्यायाधीश ने यह भी कहा कि आजादी से पूर्व या औपनिवेशिक कानूनों की संवैधानिक न्यायशास्त्र के मूल्यों से सामंजस्य की आवश्यकता भी इस फैसले में प्रदर्शित हुई है। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा, ‘नेता क्यों कई बार न्यायाधीशों को शक्ति सौंप देते हैं और हम उच्चतम न्यायालय में इसे हर रोज होता देख रहे हैं। हमने धारा 377 मामले में देखा, जहां सरकार ने हमसे कहा कि हम इसे अदालत के विवेक पर छोड़ रहे हैं और ‘अदालत का यह विवेक’ जवाब नहीं देने के लिये मेरे लिये काफी लुभाने वाला सिद्धांत था इसलिये दूसरे दिन अपने फैसले में मैंने इसका जवाब दिया।’ न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ यहां नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी द्वारा आयोजित 19वें वार्षिक बोध राज साहनी स्मृति व्याख्यान 2018 में ‘‘संवैधानिक लोकतंत्र में कानून का राज’’ विषय पर बोल रहे थे।
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने अपने फैसले में कहा, “हेनरी अष्टम द्वारा बनाया गये बगरी अधिनियम, 1533 में बगरी के लिये मौत की सजा का प्रावधान था और यह कानून तकरीबन 300 साल तक रहा। उसके बाद इसे रद्द कर दिया गया और उसकी जगह व्यक्ति के खिलाफ अपराध अधिनियम, 1828 बनाया गया।
हालांकि आईपीसी बनाए जाने के एक साल बाद यानि 1861 तक इंग्लैंड में एक ऐसा अपराध बना रहा, जिसके लिये मौत की सजा का प्रावधान था।’’ बता दे कि धारा 377 को संविधान के अनुच्छेद 372 (1) के तहत स्वतंत्र भारत में जारी रखने की इजाजत दी गई। अनुच्छेद 372 (1) के अनुसार, “संविधान के लागू होने से पहले से प्रभावी सभी कानून तब तक जारी रहेंगे जब तक कि उन्हें बदल नहीं दिया जाता या निरस्त नहीं कर दिया जाता।’’
न्यायमूर्ति नरीमन ने कहा कि इंग्लैंड और वेल्स में “अप्राकृतिक यौनाचार, गंभीर अश्लीलता या अन्य अप्राकृतिक आचरणों” के लिए 1806 और 1900 के बीच 8921 लोगों को दोषी पाया गया।प्रति वर्ष 90 पुरुषों को समलैंगिक अपराधों के लिए दोषी पाया गया उन्होंने कहा, “दोषी ठहराए गए ज्यादातर लोगों को कैद की सजा दी गई लेकिन 1806 और 1861 के बीच 404 लोगों को मौत की सजा सुनाई गई थी। 56 लोगों को फांसी दी गई और शेष को या तो कैद की सजा दी गई या उन्हें शेष जीवन के लिये ऑस्ट्रेलिया भेज दिया गया।’’ 1861 में अप्राकृतिक यौनाचार के अपराध के लिये मौत की सजा के प्रावधान को खत्म कर दिया गया था।