-रविंद्र सिंह
NPA: आखिर एनपीए का असर एक इंसान की जिंदगी में कैसे तूफान खड़ा कर सकता है और अपने ही पैसे को जरूरत के समय निकालने के लिए एक इंसान कैसे लाचार हो जाता है? ये जानना बेहद जरूरी हो जाता है तो आइये इस बात को आसान शब्दों में समझते हैं। मान लीजिए किसी शख्स ने अपनी बेटी के विवाह के लिए या उसकी एजुकेशन पर खर्च करने के लिए बैंक में 25 वर्षों तक पैसे जोड़कर रखे हैं ये मानकर कर कि बैंक में आपका पैसा जमा है जो एकदम सुरक्षित है। अब अचानक RBI यानी रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया उस बैंक की एक्टिविटीज पर रोक लगा देता है। रिस्ट्रिक्शन में आपको ये पता चलता है कि बैंक के निर्देशों के मुताबिक आप दिन में केवल हजार रुपये ही निकाल सकते हैं उससे ज्यादा नहीं और आपको एक साथ विवाह या एजुकेशन के लिए पैसा निकालना है और आप अपनी इस जरूरत में ये पैसा निकाल ही नहीं सकते तो आप पर क्या गुजरेगी।
जाहिर सी बात है विवाह या एजुकेशन का पैसा या फीस समय पर नहीं जा सकेगी या आपकी मेहनत पर पानी फिर जाएगा। दरअसल ये सवाल तब खड़ा हुआ जब रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने एनुअल स्टैटिकल रिपोर्ट में नॉन-परफॉर्मिंग एसेट का जिक्र किया। आसान शब्दों में समझें तो जब बैंक से लोन लेने वाला शख्स या कोई संस्था उस लोन को वापस नहीं लौटाता है तो बैंक उस लोन अकाउंट को क्लोज कर देता है। नियमों के तहत इस धनराशि को रिकवर करने की कोशिश की जाती है लेकिन ज्यादातर मामले ऐसे होते हैं जिनमें रिकवरी हो ही नहीं पाती है और अगर होती भी है तो वो लगभग ना के बराबर होती है।
आसान भाषा में कहें तो बैंकों के द्वारा दिया गया ये पैसा डूब जाता है और बैंक को बड़े घाटे से होकर गुजरना पड़ता है। कई बार घाटा इतना बड़ा हो जाता है कि बैंक बंद होने की कगार पर पहुंच जाते हैं और ग्राहकों की और आपकी मेहनत से जमा की गई जमापूंजी फंस जाती है। हालांकि हम यहां जमापूंजी के फंसने की बात कर रहे हैं आपके पैसे के डूबने की नहीं लेकिन असली परेशानी ये होती है कि ये पैसा आपको वापस तो मिल जाता है लेकिन तब नहीं जब आपको इसकी सबसे ज्यादा जरूरत होती है बल्कि तब मिलता है जब बैंक की स्थिति बेहतर होती है।
लेकिन उसकी समयसीमा निर्धारित नहीं होती यानी मुसीबत के समय आपको आपका ही पैसा नहीं मिल पाता है। इसलिए एनपीए जैसे विषय को समझना हम सब के लिए काफी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि इस पैसे को बैंक राइट ऑफ कर देता है। अब अडानी मामले में एलआईसी और आरबीआई के लगे पैसे को भी इन्हीं बातों से जोड़कर देखा जा रहा है क्योंकि जिस पैसे के डूबने की बात की गई है उसका संबंध आम जनता की गाढ़ी कमाई से है। ठीक इसी तरह नीरव और माल्या जैसों ने सरकारी बैंकों को खोखला कर दिया। साल 2020 में बैंकों का जितना पैसा डूबा उसमें 88% रकम सरकारी बैंकों की थी। ठीक उसी तरह पिछले 10 साल से यही ट्रेंड चला आ रहा है।
अक्सर ये बात कही जाती है कि सरकारी बैंक मतलब आपका बैंक, सरकारी बैंकों को पब्लिक बैंक भी कहा जाता है। यही कारण है जब सरकारी बैंक घाटे में जाते हैं, तो सरकार या RBI इनकी मदद के लिए सामने आते हैं, जिससे सरकारी बैंक ग्राहकों के पैसों को लौटा सकें। अब आप खुद समझ लीजिए कि आपका पैसा लेकर नीरव और माल्या जैसे लोग लेकर भाग जाएं फिर बैंक आप ही की जमा पूंजी को आपकी जरूरत पर देने से मना कर दे तब आप क्या करेंगे। इसके बाद स्थिति ये हो जाती है कि सरकार के पास एक ही विकल्प होता है और वो आपके ही पैसों से बैंक की मदद करती है तब जाकर कहीं आपको आपका पैसा मिल पाता है। है न हैरान कर देने वाली बात!
NPA: क्या है राइट ऑफ ?
NPA: अब ये राइट ऑफ क्या होता है इसे भी जान लेते हैं। आपको बता दें कि जब बैंकों को लगता है कि संस्था या व्यक्ति को दिया गया लोन वसूलना मुश्किल हो रहा है तो ऐसे में बैंक उस लोन को ‘राइट-ऑफ’ कर देता है यानी बैंक उस लोन अमाउंट को बैलेंस शीट से ही हटा देता है। इसको कहा जाता है कि गया पैसा बट्टे खाते में। पिछले 10 वर्षों की बात करें तो इस एक दशक में मनमोहन सरकार के 4 वर्ष और मोदी सरकार के 6 वर्ष काउंट हो जाते हैं। मनमोहन सरकार के 2011 से 2014 तक के कार्यकाल में यानी 4 वर्षों में एनपीए बढ़ने की दर 175 प्रतिशत रही थी। जबकि मोदी सरकार के शुरूआती 4 वर्षों में इसके बढ़ने की दर 178 प्रतिशत रही।
अब प्रतिशत में ये आंकड़ा आपको भले ही बेहद नजर आए लेकिन अगर धनराशि के तौर पर देखा जाए तो मनमोहन सिंह ने एनपीए को 2 लाख 64 हजार करोड़ पर छोड़ा था और मोदी सरकार में ये 9 लाख करोड़ तक पहुंच चुका है। हालांकि एक सामान्य इंसान यही कहेगा कि इन सब बातों से हमारा क्या लेना देना तो आपको बता दें कि यही छोटी सी दिखने वाली बातें समय आने पर एक बड़ी मुसीबत खड़ी कर देती हैं। इसलिए इन बातों को जानना सबके लिए जरूरी हो जाता है खासकर तब जब आपकी जिंदगीभर की मेहनत का सवाल हो।
NPA: मनमोहन बनाम मोदी सरकार
NPA: मनमोहन सरकार के कार्यकाल में वर्ष 2010-2013 के बीच चाल वर्षों में 44 हजार 500 करोड़ रूपए का लोन राइट ऑफ किया गया। मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद पहले वर्ष में ही यानी 2014-2015 में 60 हजार करोड़ रूपए का लोन राइट ऑफ किया गया। 2017-18 से लेकर 2019-20 के बीच, सिर्फ तीन सालों में मोदी सरकार में 6 लाख 35 हजार करोड़ से भी ज्यादा का लोन राइट-ऑफ हुआ। रिकवरी बढ़ी तो, लेकिन 2019-20 में फिर घट गई। मोदी के सत्ता में आने के बाद, साल 2015-16 में NPA की रिकवरी 80 हजार 300 करोड़ हुई, जो 2015-16 के NPA का एक चौथाई भी नहीं था।
हालांकि अगले साल से वसूली थोड़ी बढ़ा दी गई, लेकिन 2019-20 में ये फिर घट गई। कुल-मिलाकर NPA रिकवरी की रकम कुल NPA की तुलना में न के बराबर है। फिलहाल देश के 12 सरकारी बैंकों पर 4,58,512 करोड़ के एनपीए का भार है। बैंकों के फंसे हुए कर्ज (एनपीए) के संबंध में पूछे गए सवाल पर उन्होंने बताया कि फिलहाल देश के 12 सरकारी बैंकों पर 4,58,512 करोड़ के एनपीए का भार है। रिजर्व बैंक के दिशानिर्देशों और बैंक बोर्ड की तरफ से अनुमोदित नीति के मुताबिक चार वर्ष से जो एनपीए बना हुआ है, उन्हें बैंकों की बैलेंस शीट से हटाकर बट्टे खाते में डाल दिया गया है।
31 दिसंबर, 2022 की स्थिति के मुताबिक सबसे ज्यादा 98,347 करोड़ एनपीए एसबीआई पर हैं। इसके बाद पीएनबी पर 83,584 करोड़, यूनियन बैंक पर 63,770 करोड़,केनरा बैंक पर 50,143 करोड़, बैंक ऑफ बड़ौदा पर 41,858 करोड़ एनपीए हैं। वहीं, 38,885 करोड़ के एनपीए के साथ बैंक ऑफ इंडिया छठे और 29,484 करोड़ के साथ सातवें पर इंडियन बैंक है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारण ने पब्लिक सेक्टर के बैंकों से जुड़ी जानकारी संसद में दी थी तो उन्होंने बताया था कि वसूली के बाद पिछले पांच साल में बट्टे खाते में डाला गया कुल लोन 6.31 लाख करोड़ रुपये रह गया।
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