जब तक वो आती थी, गेंहू और धान की कुछ दाने बटोर कर ले जाती थी तब तक शायद किसी ने नहीं सोचा होगा कि एक दिन ऐसा भी आएगा कि वो आना बंद कर देगी। लेकिन अब वो दिन आ चुके हैं जब हम विश्व गौरैया दिवस मनाएं। अब वो दिन आ चुके हैं जब हम उसको अपनी यादों में बसाएं। हां, अब वो दिन आ चुके हैं जब हम उसे अपने खिलौनों में संजाए। हां, अब वो दिन आ चुके हैं जब हम उसे पिजड़ों में छुपाएं। हां, अब वो दिन आ चुके हैं जब हम उसे बच्चों को पढ़ाएं। अब छतों पर, खिड़कियों पर बैठे-बैठे सिर्फ एक ही गाना गूंजता है कि चिट्ठी न कोई संदेश जानें वो कौन सा देश जहां तुम चली गई,जहां तुम चली गई…।
और देशों की बात छोड़े तो आज संपूर्ण भारत विश्व गौरैया दिवस मना रहा है। भारत में बीस साल के अंदर गौरैया की संख्या में 20 फीसदी कमी आई है। एक अनुमान के मुताबिक, शहरों में तो इनकी तादाद महज 20 फीसदी रह गई है। गांवों में हालात बहुत ज्यादा जुदा नहीं हैं। अगर दूसरे देशों की बात करें तो ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी जैसे देशों में इनकी संख्या तेजी से गिर रही है। रांची विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रोफेसर मो. रजिउद्दीन के अनुसार गौरैया कम हो गई हैं। खासकर शहरों से तो यह चिड़िया वाकई दूर हो गई है। शहरों में आंगन वाले घर अब नहीं बनते जहां अनाज के दाने उसे मिल जाया करते थे। जिन घरों में आंगन हैं वहां के दाने खाकर वह बीमार हो जाती हैं। धान और गेंहू में कीटनाशक का बेतहाशा इस्तेमाल भी गौरैया को दूर कर दिया है। शहरों के घरों में घोसला बनाने के लिए उसे पतली लकड़ी नहीं मिलती।
एक रिसर्च के मुताबिक, जैसे-जैसे मोबाइल टॉवर की तादाद बढ़ती गई, वैसे-वैसे गौरैया कम होती गईं। दरअसल, ऐसा दावा है कि इन टॉवर्स से जो तरंगें निकलती हैं, वो गौरैया की प्रजनन क्षमता को कम करती है। समय आ गया है कि अब हम अपने छतों को फिर से गुलजार बनाए। फिर से गौरैया की चहचहाहट सुनें। उसके लिए अपने पर्यावरण पर ध्यान देना होगा। गौरैया के भूख,प्यास का ख्याल रखना होगा। तब जाकर चूं-चूं की आवाज सुनाई देगी।