Supreme Court: BJP की पूर्व नेता नूपुर शर्मा के मामले में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई। इस दौरान जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस पारदीवाला के द्वारा की गई टिप्पणियों की आलोचना करते हुए CJI को पत्र लिखा गया।नूपुर शर्मा मामले की सुनवाई के दौरान बेंच द्वारा की गई टिप्पणियों को दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए इस पत्र में कहा गया है कि बेंच द्वारा की टिप्पणी से लोग स्तब्ध हैं।
याची के द्वारा अपने ऊपर दर्ज मुकदमों को एक साथ किए जाने की मांग उसका कानूनी अधिकार है। बिना कारण याचिका को सुनने से भी मना कर दिया गया। फोरम फॉर ह्यूमन राइट्स एंड सोशल जस्टिस के द्वारा बयान जारी करते हुए CJI को पत्र लिखा गया है। जिन 117 गणमान्य लोगों ने अपने बयान जारी करते हुए पत्र लिखा है उसमें 15 पूर्व जज, जिसमें अलग-अलग हाईकोर्ट के मुख्यन्यायाधीश और न्यायाधीश , 77 पूर्व नौकरशाह, 25 पूर्व सेना के अधिकारी शामिल हैं।

Supreme Court: टिप्पणियों को दुर्भाग्यपूर्ण बताया
पत्र में इन गणमान्य लोगों ने कुल 11 बिंदुओं पर कोर्ट की टिप्पणियों की आलोचना करते हुए इन टिप्पणियों को दुर्भाग्यपूर्ण और न्यायिक नैतिकता एवम उसके सिद्धांतों के खिलाफ बताया है।
इन सबका कहना है कि नूपुर शर्मा न्यायिक प्रक्रिया और अपने अधिकारों के तहत संरक्षण और राहत के लिए सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाई थी, लेकिन याचिका के दिए गए आधार और प्रार्थनाओं को देखते हुए बेंच द्वारा की टिप्पणियां को कोई मेल नहीं है।
टिप्पणियों पर सवाल उठाते हुए कहा गया कि अगर मामले में की गई टिप्पणियां न्यायिक प्रक्रिया और उनके सिद्धांतों के मुताबिक थीं तो आदेश में उनका जिक्र क्यों नहीं किया गया था? नूपुर शर्मा को न्यायिक राहत देने से इंकार किया गया जो संविधान के मूलभूत सिद्धांतों के खिलाफ है।

Supreme Court: बिना ट्रायल पूरा हुए फैसला सुनाया
Supreme Court: कोर्ट की टिप्पणियों ने बिना ट्रायल पूरा हुए ही फैसला सुना दिया कि वही दोषी है। जबकि कोर्ट के सामने दायर याचिका में ये मुद्दा ही नहीं था।न्यायिक प्रक्रिया से जुड़े लोग बेंच की टिप्पणियों से स्तब्ध हैं क्योंकि पीठ की टिप्पणियों के मुताबिक तो FIR दर्ज होने के बाद गिरफ्तारी जरूरी है।
इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने नूपुर शर्मा को कानून के तहत मौजूद अन्य विकल्पों को चुनने का आदेश देते हुए, याचिका वापस लेने के आधार पर याचिका खारिज कर दी। जबकि जिस राहत की मांग नूपुर द्वारा की गई हैं वह राहत सिर्फ सुप्रीम कोर्ट ही दे सकता है।
पत्र में यह भी कहा गया है कि कोर्ट के द्वारा की गई टिप्पणियां लोकतांत्रिक मूल्यों को भी नुकसान पहुंचाने वाली हैं। इनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। कोर्ट के द्वारा की गई टिप्पणियों को वापस लिया जाना चाहिए।
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