अप्रैल में हुए कश्मीरी उपचुनाव के दौरान पत्थरफेंकू नौजवानों को काबू करने वाले मेजर लीतुल गोगोई को फौज ने सम्मानित किया है। देर आयद, दुरुस्त आयद! जिस दिन इस घटना की खबरें देश में लहरें उठा रही थीं, उसी दिन मैंने किसी टीवी चैनल और अपने लेख में कहा था कि उस फौजी को सम्मानित किया जाना चाहिए। गोगोई को सम्मानित करने की बजाय उसके खिलाफ जांच बिठा दी गई थी। यह बिल्कुल गलत काम था लेकिन यह दबाव में किया गया था।
किसका दबाव था? हमारे कश्मीरी नेताओं का! कश्मीर के सभी अलगाववादी और अन्य नेताओं ने एक पत्थरफेंकू लड़के को जीप पर बांधकर घुमाने की कड़ी निंदा की थी। उन्होंने आरोप लगाया था कि भारतीय फौज ने उस नौजवान, फारुक डार, के मानव अधिकारों का उल्लंघन किया है। उसका यह काम अमानवीय और अनैतिक है। इस तर्क को भारत सरकार और फौज ज्यों का त्यों निगल गई। उसने अपना दिमाग लगाने की कोशिश भी नहीं की। हमारे मूरख-बक्सों (टीवी चैनलों) में बैठे कई महापंडित भी मेजर गोगोई पर बरस पड़े। लेकिन मैंने उसी दिन कहा था कि जिस फौजी ने यह पैंतरा मारा है, उसे मैं हृदय से बधाई देता हूं। उसे सभी कश्मीरियों की तरफ से भी बधाई मिलनी चाहिए, क्योंकि उसने एक पत्थरफेंकू को बांधकर जीप पर क्या घुमाया, कि सारी पत्थरबाजी अपने आप रुक गई।
यह वैसा ही हुआ, जैसा कि कुछ बादशाह युद्ध में अपनी फौज की आगे-आगे गायों के झुंड छोड़ देते थे। गोरक्षा के नाम पर उनकी फौज की रक्षा हो जाती थी। जीप पर बंधे नौजवान की वजह से न यहां पुलिस वाले पिटते थे और न ही कश्मीरी नौजवानों पर गोलियां चलती थीं। दोनों का भला होने लगा। ऐसा सुंदर और अहिंसक तरीका कोई फौज अपनाए, यह कितना अच्छा है। आज जिन कश्मीरी नेताओं ने मेजर गोगोई को सम्मानित करने की निंदा की है, उन्होंने बिना कहे ही यह बता दिया है कि उन्हें कश्मीरी नौजवानों की जान की कोई परवाह नहीं है। वे मरें तो मरें। नेताओं की राजनीति दनदनाती रहनी चाहिए। उनकी दुकान चलती रहनी चाहिए।
मुझे तो भारत के किसी भी नागरिक के मरने पर दुख होता है, चाहे वह कश्मीरी हो, नगा हो, मिजो हो या बिहारी हो। नागरिक तो नागरिक, फौजी भी क्यों मरे ? दोनों को बचाने का रास्ता मेजर गोगोई ने बड़ी सूझ-बूझ से निकाला। वे सारे देश और खासतौर से कश्मीरियों की ओर से बधाई और आभार के पात्र हैं।
डा. वेद प्रताप वैदिक
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