सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण टिपण्णी करते हुए कहा है कि बम धमाकों में निर्दोष लोगों की हत्या करने के आरोपियों को जमानत या पैरोल नहीं दी जा सकती है। कोर्ट ने आगे कहा है कि जघन्य अपराधों में लिप्त लोगों के लिए बेहतर होगा कि वह अपने घर परिवार को भूल जाएँ

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सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी दिल्ली के लाजपत नगर में 21 मई, 1996 को हुए बम धमाके में सजा काट रहे मोहम्मद नौशाद की अंतरिम जमानत याचिका को खारिज करते हुए की है। नौशाद ने अपनी बेटी की शादी में शामिल होने के लिए सुप्रीम कोर्ट में एक महीने के लिए अंतरिम जमानत देने की याचिका दाखिल की थी। नौशाद ने अपनी याचिका में कहा था कि वह 14 जून, 1996  से ही जेल में बंद है और उसे अब तक 20 साल से ज्यादा वक्त हो चुका है इसलिए 28 फरवरी को होने वाले निकाह में शामिल होने के लिए उसे जमानत दे दी जाए।

सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जे एस खेहर की अध्यक्षता वाली तीन जजों की पीठ ने मामले की सुनवाई करते हुए कहा, “आप निर्दोष लोगों को मारें और कहें कि मेरा परिवार है, मेरा बेटा है, मेरी बेटी है। आपकी मर्जी दोनों तरफ से नहीं चलेगी,दोनों में से किसी एक रास्ते को चुनना होगा। अगर आप लोगों की हत्या करते हैं तो आप जमानत के हक़दार नहीं हैं। आप परिवार का हवाला नहीं दे सकते हैं। ऐसे अपराध करने के बाद घर परिवार को भूल जाइये क्योंकि इसके बाद सब वहीं खत्म हो जाता है।”

सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर सुनवाई से पहले दिल्ली पुलिस से रिपोर्ट मांगी थी। अपनी रिपोर्ट में दिल्ली पुलिस ने कहा था कि नौशाद की बेटी की शादी 28 फरवरी को है लेकिन इसके बावजूद कोर्ट ने आज जमानत याचिका ख़ारिज कर दी है।

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