‘अगर फ़िरदौस बर-रू-ए-ज़मीं अस्त , हमीं अस्त ओ हमीं अस्त ओ हमीं अस्त।’ कश्मीर के बारे में जब भी कुछ कहना होता है तो अक्सर यह शेर पढ़ा जाता है। इस शेर का अर्थ है धरती पर अगर कहीं स्वर्ग है, तो यहीं है, यहीं है, यही हैं। हिमालय और पीर पंजाल के बीच की ये वादी अक्सर हमारी सियासी बहसों का हिस्सा रहती है। लेकिन आखिर हम इसके बारे में जानते कितना हैं? कश्मीर पर बात करने से पहले हमें उसके बारे में जानना जरूर चाहिए और जब बात आती है कश्मीर पर लिखी कुछ अच्छी किताबों की तो जिक्र होता है लेखिका चंद्रकांता के उपन्यास ‘कथा सतीसर’ का।
आज हम जिसे कश्मीर कहते हैं उसे एक समय में सतीसर नाम से जाना जाता था उस समय ये वादी पूरी पानी से ढकी हुई थी। ऋषि कश्यप के नाम पर कैसे इस जगह का नाम कश्मीर पड़ा इसकी कहानी इस उपन्यास में कही गई है। घाटी में रहने वाले कश्मीरी पंडित रैना परिवार की पीढ़ी दर पीढ़ी को केंद्र में रखते हुए उपन्यास आगे बढ़ता है और वादी का इतिहास कहता है।
उपन्यास 1931 में शुरू होता है जब कश्मीर में शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में राजशाही के खिलाफ आवाज उठने लगी थी। राजा की नीतियों का विरोध घाटी में होने लगता है। हालांकि मुस्लिम समुदाय के साथ भाईचारा होने के बाद भी पंडितों का राजशाही के समर्थक के रूप में देखा जाता है और वे हिंसा का शिकार होते हैं।
1947 में भारत की आजादी के बाद महाराजा हरिसिंह आखिरी समय तक फैसला लेने में देरी करते हैं। जिससे कि राज्य में संशय और तनाव की स्थिति पैदा हो जाती है। इसके बाद कश्मीर पर पाकिस्तान समर्थित कबाइलियों का हमला हो जाता है। आखिरी मौके पर कश्मीर का भारत में विलय होता है और भारतीय सेना मदद के लिए आगे आती है। कश्मीर के विलय और वहां जनमत संग्रह कराने को लेकर भी उपन्यास टिप्पणी करता है।
उपन्यास बताता है कि कैसे 1953 आते-आते शेख अब्दुल्ला के सुर बदलने लगते हैं। नेहरू और शेख अब्दुल्ला के रिश्तों और अनुच्छेद 370 पर यह उपन्यास रोशनी डालने का काम करता है। इसके बाद शेख अब्दुल्ला को षड्यंत्र रचने के आरोप में गिरफ्तार किया जाता है और बख्शी गुलाम मोहम्मद को सरकार की जिम्मेदारी सौंपी जाती है। उपन्यास में बताया गया है कि बख्शी गुलाम अहमद के शासन काल में कश्मीर में शांति व्यवस्था रही और प्रदेश का विकास हुआ। यहां तक कि 1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध हुआ तो कश्मीरियों ने भारत का समर्थन किया।
इसके बाद 1975 में जब देशभर में आपातकाल लगा तो शेख अब्दुल्ला भी जनमत संग्रह को भूल गए और मुख्यमंत्री बनना स्वीकार किया। फिर 1987 के चुनाव में घाटी में बहुत कुछ बदला। नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस पर चुनाव में गड़बड़ी करने के आरोप लगे। आम लोगों में कट्टरता और गुस्सा बढ़ने लगा। जिससे जम्मू कश्मीर उग्रवाद की चपेट में आ गया और आजादी के नारों से वादी गूंजने लगी। वादी में जिहादी मुजाहिदीन घूमने लगे। हालात ऐसे बन गए कि कश्मीरी पंडितों को वादी से निष्कासित होना पड़ा। उपन्यास न सिर्फ मजहबी कट्टरता को बढ़ावा देने वालों बल्कि हुक्मरानों और प्रशासन पर भी सवाल खड़े करता है।
इस उपन्यास की विशेषता यह है कि यह कश्मीरियत और कश्मीर के प्राचीन इतिहास की गहरी समझ बनाने में मदद करता है। कैसे कश्मीर का बौद्ध धर्म से परिचय हुआ। कैसे कश्मीरी शैव दर्शन की नींव रखी गयी और कैसे यह लोकप्रिय हुआ। उपन्यास बताता है कि कारकोट साम्राज्य के शासक ललितादित्य के शासन में कश्मीर का प्रभाव बढ़ा। वहीं कोटा रानी ने वादी को बाढ़ से बचाने के लिए नहर का निर्माण कराया। शेख नूरुद्दीन नूरानी या नुंद ऋषि ने कश्मीरी शैव दर्शन का सूफीवाद से मेल कराया।
हालांकि सुल्तान सिकंदर के समय हिंदुओं पर अत्याचार हुए। लेकिन उनके बेटे सुल्तान जैन-उल-आबिदीन ने धार्मिक सहिष्णुता दिखाई। इसलिए उन्हें ‘बड़शाह’ के नाम से जाना गया। उनके शासन में मध्य एशिया और फारस से आए कलाकारों ने कश्मीरी संस्कृति को समृद्ध किया। कश्मीरी शॉल और कालीन इसी समय से मशहूर हुए। कश्मीरी कवियों ललद्यद, नुंद ऋषि और हब्बा खातून के काव्य का उल्लेख इस उपन्यास को और अधिक समृद्ध बनाता है।
किताब के बारे में:
लेखिका- चंद्रकांता
प्रकाशक-राजकमल प्रकाशन
मूल्य- 499 रुपये (पेपरबैक)