वाराणसी से लगभग साढ़े छह किलोमीटर दूर बसा है लमही गांव। गांव में प्रवेश से पहले आगवानी के लिए तैयार खड़ा मिलता है मुख्य द्वार जो मुंशी प्रेमचंद की याद में बनाया गया है, गांव के मुख्य द्वार से सात सौ मीटर अन्दर जाने पर आपको नजर आएगी वो जगह जहाँ हिंदी साहित्य के महान रचनाकार का जन्म हुआ था। प्रेमचंद का घर जिसे स्मारक का रूप लेना था। उनके जिंदगी के आखरी उपन्यास “मंगलसूत्र” की तरह आज भी अधूरा ही है। कमरों में एक किताब तक नहीं है और फर्नीचर धूल फ़ांक रहा है।
गांव को भी हेरिटेज गांव का दर्जा दिया जाने वाला है पर उनके गांव में आज बहुत सारी समस्याएं है जो वहां के लोग खुद ब्यान करते है, आरोप है कि गांव के विकास का पैसा भ्रष्टाचार के अंधे कुएं में चला गया है। गांव के लोग भी लमही गांव और मुंशी जी से जुड़ी हुई चीजों को स्मारक का भव्य रूप नहीं देने से खासे नाराज हैं । मुंशी जी ने जिस समाज का ताना बाना अपने उपन्यासों और कहानियो में लिखा था आज भी वह सर्वत्र प्रासंगिक दिखती रही है।
सरकारें आई और गईं। वादे किए जाते रहे । लेकिन कलम के इस सिपाही की याद से जुड़ी चीजें बिखरती रहीं। साहित्यसेवी भी प्रेमचंद के नाम पर अपनी थिसिस तो पूरी करते रहे लेकिन कलम के इस सिपाही की धरोहर के प्रति उदासीन ही रहे। हम आपको बता दे कि मुंशी प्रेमचंद मेमोरियल रिसर्च इंस्टिट्यूट की जिम्म्मेदारी कभी काशी हिन्दू विश्विद्यालय ने भी ली थी। लेकिन अब तक वह योजना परवान नहीं चढ़ सकी है। मुंशी प्रेमचंद को भले ही हिन्दी कहानियों का भीष्म पितामाह कहा जाता रहा हो। लेकिन जिस तरह सरकार उनके गांव और स्मारक की अनदेखी कर रही है, वह अक्षम्य है।