भारत विभाजन की बुरी यादें आज भी लोगों के दिलों में जिंदा हैं। इस दौरान हुई हिंसा में करीब 10 लाख लोग मारे गए थे। वहीं, इस दौरान करीब 1.46 करोड़ शरणार्थियों को अपना घर-बार छोड़कर शरण लेनी पड़ी थी। इस विभाजन का बीज बंटवारे से कई वर्ष पहले पड़ गया था। दरअसल बंटवारे जैसी मानवीय त्रासदी के कई वर्ष पहले से ही कांग्रेस और मुस्लिम लीग जैसी पार्टियों के बीच इस बात को लेकर होड़ मच गई थी कि मुसलमानों का बड़ा रहनुमा कौन है? इस मामले में पहली चाल गांधी ने चली तो दूसरी चाल मोहम्मद अली जिन्ना ने चली। जिन्ना की चाल भारी पड़ी और पाकिस्तान का जन्म हुआ।

हुआ कुछ यूं कि 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेज हिंदू मुस्लिम एकता की बानगी देख चुके थे। कुछ साल बाद 1885 में कांग्रेस पार्टी की स्थापना हुई। एक वक्त में मोहम्मद अली जिन्ना कांग्रेस के सदस्य हुआ करते थे। वे पार्टी के नरम दल से थे और खुद हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रचार भी करते थे। यहां तक कि जिन्ना ने आगा खां के नेतृत्व वाले उस प्रतिनिधिमंडल का भी विरोध किया था, जिसने अंग्रेजों से कहा था कि भारतीय मुसलमानों की वफादारी अंग्रेजों के साथ है। यही नहीं मुस्लिम लीग की स्थापना हुई तो जिन्ना इसके खिलाफ थे।

हालांकि 1913 के बाद वे लीग और कांग्रेस दोनों के सदस्य रहे। लेकिन बाद में जिन्ना कांग्रेस के जिस गुट से आते थे वह फिरोजशाह मेहता और गोपालकृष्ण गोखले की मृत्यु के बाद से कमजोर पड़ने लगा था। यहां तक कि दादा भाई नौरोजी भी भारत में नहीं थे। इस बीच जिन्ना चाहते थे कि कांग्रेस और मुस्लिम लीग साथ आ जाएं। दोनों दलों के बीच लखनऊ समझौते पर भी हस्ताक्षर हुए।

इस बीच 1915 में महात्मा गांधी की भारतीय राजनीति में एंट्री हो चुकी थी और जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद वे भारतीयों के सबसे बड़े नेता के रूप में उभरे। पहले विश्वयुद्ध के बाद अली भाइयों, शौकत अली और मोहम्मद अली ने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ खिलाफत आंदोलन शुरू किया था। जो कि एक मजहबी आंदोलन था। गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने मुसलमानों को अपनी तरफ करने के लिए इस आंदोलन का समर्थन किया। जिन्ना मानते थे कि गांधी को भारत में खिलाफत का मुद्दा नहीं उठाना चाहिए क्योंकि इससे भारतीय मुस्लिमों में मजहबी कट्टरता को बढ़ावा मिलेगा। लेकिन समय गांधी के साथ था। नागपुर अधिवेशन के बाद तो कांग्रेस जैसे गांधी की हो गई थी। इसके बाद तो जिन्ना ने कांग्रेस को अलविदा कह दिया।

कुछ वर्षों के लिए जिन्ना भारत से बाहर चले गए थे। मोहम्मद इकबाल या जिन्हें अल्लामा इकबाल के नाम से जाना जाता है को इस बात का यकीन था कि मुसलमानों के हक की आवाज कोई उठा सकता हो तो वह मोहम्मद अली जिन्ना हैं। ये इकबाल ही थे जिन्होंने जिन्ना को राजी किया था कि वे भारत लौटें और मुस्लिम लीग की कमान संभालें। यही नहीं इकबाल ने ही जिन्ना को पाकिस्तान के विचार से परिचित कराया। 1934 में जिन्ना भारत लौटे और मुस्लिम लीग की कमान संभाली।
1937 के चुनाव के बाद सबकुछ बदल गया। दरअसल चुनाव नतीजों में कांग्रेस ने 7 सूबों में जीत हासिल की थी और बाकी जगह सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। मुस्लिम लीग कहीं भी सरकार नहीं बना सकी थी। यहां तक कि जहां मुस्लिम आबादी अधिक थी वहां भी लीग को निराशा हाथ लगी थी। मिसाल के तौर पर नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर यानी आज के ख़ैबर पख़्तूनख़्वा (पाकिस्तान) में भी कांग्रेस ने सरकार बनाई थी।

1937 के चुनाव के बाद जिन्ना ने देशभर में मुसलमानों के बीच लीग को मजबूत किया। लीग के दरवाजे आम मुसलमानों के लिए भी खोल दिए गए। अब वह राष्ट्रीय स्तर पर मुसलमानों की आवाज हो गई थी।

भारतीय मुस्लिम भी समझने लगे थे कि मुस्लिम लीग ही उनकी नुमाइंदगी कर सकती है। मुस्लिम लीग ने 23 मार्च 1940 को एक प्रस्ताव पारित कर साफ कर दिया कि उसे पाकिस्तान से कम कुछ भी मंजूर नहीं है। 1946 के चुनाव में मुस्लिम लीग ने मुसलमानों के लिए आरक्षित 90 प्रतिशत सीटों पर जीत हासिल की। ये एक तरह से पाकिस्तान की मांग पर जनमत संग्रह था। इन नतीजों ने गांधी और कांग्रेस को भी यकीन दिला दिया कि लीग को मुसलमानों का समर्थन हासिल है। फिर इसके बाद 1947 में बंटवारे का एलान हो गया और पाकिस्तान का जन्म हुआ।