हल्दीघाटी में हार के बाद भी नहीं मानी थी हार, कुछ ऐसे महाराणा ने Mewar को फिर से किया था हासिल…

28 फरवरी 1572 को राणा उदय सिंह की मौत के बाद जब जगमाल सिंह राजगद्दी पर बैठने की तैयारी चल रही थी, तभी राज्य के मंत्रियों और सामंतों ने जगमाल सिंह के खिलाफ बगावत करते हुए उनके स्थान पर प्रतापसिंह को मेवाड़ का महाराणा बनाया गया।

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हल्दीघाटी में हार के बाद भी नहीं मानी थी हार, कुछ ऐसे महाराणा ने Mewar को फिर से किया था हासिल... - APN News
Maharana Pratap

9 मई 1540 को राजस्थान की तत्कालीन मेवाड़ (Mewar) रियासत स्थित कुंभलगढ़ दुर्ग में जन्मे महाराणा प्रताप की आज पुण्यतिथि है। महाराणा प्रताप के पिता का नाम राणा उदय सिंह द्वितीय और माता का नाम महारानी जयवंताबाई था। बचपन में ‘कीका’ के नाम से पुकारे जाने वाले महाराणा प्रताप अपने पिता के सबसे बड़े पुत्र थे। कहा जाता है कि राणा उदय सिंह 20 से अधिक रानियों के पति और 25 से अधिक पुत्रों के अलावा 20 पुत्रियों के पिता थे। राणा उदय सिंह ने एक वसीयत बनाई थी, जिसमें उन्होंने रानी धीरबाई भटियाणी के पुत्र जगमाल सिंह को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था।

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कैसे बने प्रताप सिंह मेवाड़ के महाराणा?

28 फरवरी 1572 को राणा उदय सिंह की मौत के बाद जब जगमाल सिंह राजगद्दी पर बैठने की तैयारी चल रही थी, तभी राज्य के मंत्रियों और सामंतों ने जगमाल सिंह के खिलाफ बगावत करते हुए उनके स्थान पर प्रतापसिंह को मेवाड़ का महाराणा बनाया गया। इसके पिछे का कारण ये बताया जाता है कि, प्रताप सिंह, उदय सिंह के सबसे बड़े बेटे होने के साथ-साथ जगमाल सिंह से हरेक मामले में ज्यादा योग्य थे।

रीमा हूजा द्वारा लिखी गई ‘Maharana Pratap: The Invincible Warrior’ में रीमा लिखती हैं कि है, “जब 1572 में महाराणा प्रताप को मेवाड़ का शासक बनाने से चार वर्ष पहले ही 1568 में मेवाड़ की राजधानी चितौड़ पर मुगलों का कब्जा हो चुका था। राज संभालते ही महाराणा प्रताप ने एक ओर तो मुगलों से संघर्ष की तैयारी की वहीं दूसरी ओर, खड़ी फसलों को नष्ट करने का आदेश दिया, ताकि अकबर की फौज को रसद मिलने में परेशानी हो।”

कुछ इतिहासकारों का यहां तक कहना है कि मेवाड़ का राजकोष चितौड़ के पतन के बाद और न ही हल्दीघाटी युद्ध के बाद मुगलों के हाथ लगा। अकबर ने महाराणा प्रताप को अपने खेमे में शामिल कराने को लेकर राजा मानसिंह, उनके पिता राजा भगवंत दास और राजा टोडरमल को 1573 से 1575 के बीच में तीन बार महाराणा प्रताप के पास भेजा था। लेकिन, ये तीनों ही महाराणा प्रताप को नहीं डिगा सके।

Maharana Pratap
Maharana Pratap –

हल्दीघाटी का युद्ध

हल्दीघाटी एक दर्रा है, जो उदयपुर से लगभग 40 किलोमीटर दूर स्थित है। हल्दीघाटी दर्रे की मिट्टी हल्दी के रंग जैसी पीली होने के कारण ही इसे हल्दीघाटी कहा जाता है। 18 जून 1576 को हुई हल्दीघाटी की लड़ाई महाराणा प्रताप और अकबर की मुगल सेना के बीच लड़ी गई थी जो करीब चार घंटे तक चली। रीमा हूजा ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि, “अकबर की बड़ी सेना के मुकाबले में महाराणा के पास सैनिकों की संख्या काफी कम थी। फिर भी शुरुआती लड़ाई में महाराणा की सेना बड़ी शक्तिशाली अकबर की सेना पर भारी पड़ी थी।”

इसके बाद से कई हाथियों को तीर लगने के साथ-साथ महाराणा के घोड़े को चोट लगने के बाद से अकबर की सेना का नेतृत्व कर रहे मानसिंह को खतरे में देख मुगल सेना ने महाराणा को घेर लिया। जिसके बाद महाराणा प्रताप के सैनिक सलाहकारों ने उन्हें इस बात के लिए जोर ड़ाला कि मौजूद रणनीति के तहत उन्हें यहां से निकल जाना चाहिए, ताकि वे फिर से लड़ाई लड़ सकें। इसके बाद वो अपने घोड़े चेतक पर सवार होकर युद्ध के मैदान से बाहर निकल गये थे।

हल्दीघाटी का युद्ध आखिर जीता कौन?

1576 में हुई हल्दीघाटी के युद्ध में अकबर की जीत हुई थी। लेकिन आज भी देश के कुछ इतिहासकारों का कहना है कि हल्दीघाटी के इस युद्ध में महाराणा प्रताप की जीत हुई थी।

मशहूर घास की रोटियों वाली कहानी और कविता के माध्यम से दिया गया संदेश

कहा जाता है कि एक बार महाराणा प्रताप अपने परिवार के साथ जंगली अनाज और पत्तियों की रोटी खा रहे थे। इसी दौरान जैसे ही महाराणा ने रोटी खानी शुरू की ही थी कि, उन्हें उनकी बेटी की चीख सुनाई दी। जैसे ही उन्होंने देखा कि एक जंगली जानवर उनकी बेटी के हाथ से रोटी छीनकर ले गया है। इस घटना के बाद महाराणा बहुत मर्माहत हुए और उन्होंने अकबर के सामने संधि प्रस्ताव भेजने का निर्णय लिया। निर्णय की सूचना जैसे ही अकबर को मिली, तो उन्होंने बीकानेर के महाकवि पृथ्वीराज राठौड़ को इसकी सच्चाई का पता लगाने के आदेश दिए।

जिसके बाद, पृथ्वीराज ने एक कविता संदेश महाराणा के पास भिजवाया, जिसका सार था कि, “यदि महाराणा प्रताप अकबर (मुगल शासक) को बादशाह मानेंगे, तो उस दिन सूरज पश्चिम से निकलेगा। इसके साथ ही लिखा गया था कि, अगर महाराणा भी राजपूतों की शान नहीं बचा पाए, तो हम सभी को अपना सिर शर्म से झुका लेना होगा।” जब महाराणा ने संदेश के तौर पर आई इस कविता को सुना, तो उन्होंने पृथ्वीराज को जवाब देते हुए लिखा था कि, “जब तक सांस चलती रहेगी, तब तक प्रताप (महाराणा) अकबर को सिर्फ ‘तुर्क’ कहकर ही बुलाएगा और सूरज जहां से हर रोज निकलता आया है वहीं से निकलता रहेगा।”

भामाशाह ने की थी मदद

1576 में हुए हल्दीघाटी के युद्ध के बाद से महाराणा ने अपनी रणनीति को बदला और वो जंगलों में चले गए। वे वहां परिवार सहित रहने लगे। महाराणा की जो सबसे बड़ी चिंता थी वो थी फिर से सेना को खड़ा करने को लेकर और इसके लिए उन्हें धन की जरूरत थी। इसके पिछे का कारण ये था कि, उनके साथ जो विश्वस्त सैनिक थे, उन्हें भी काफी समय से वेतन नहीं मिला था। महाराणा प्रताप की इन सब परेशानियों के बारे में जैस ही स्थानीय व्यापारी भामाशाह को पता लगा, तो उन्होंने उनकी मदद करना शुरू किया। यहां तक कहा जाता है कि भामाशाह ने उस समय 25 लाख रुपये की नकदी और 20 हजार अशर्फी महाराणा प्रताप को सौंप दी थी। इसके बाद से महाराणा प्रताप ने भीलों की मदद से सेना तैयार की जो गुरिल्ला रणनीति के जरिये महाराणा प्रताप गुरिल्ला युद्ध, यानी छापामार युद्ध करने लगे। वे मुगलों पर घात लगाकर हमला करते और फिर जंगलों की ओर चले जाते।

छापामार युद्ध के बाद 1582 में मुगल सेना और महाराणा प्रताप के बीच हुए दिवेर के युद्ध में मुगल सेना का नेतृत्व मुगल कमांडर सुल्तान खान कर रहा था। इसी लड़ाई में महाराणा के पुत्र अमर सिंह ने सुल्तान पर हमला करते हुए उसे घोड़े सहित मार गिराया। मुगल कमांडर की मौत के बाद मुगल सेना लड़ाई से भाग गई और इस युद्ध में महाराणा प्रताप की निर्णायक जीत हुई। इसके बाद महाराणा ने एक साथ मुगलों की 36 छावनियों को नष्ट करते हुए उन्होंने कुंभलगढ़, गोगुंदा और उदयपुर पर वापस अपना अधिकार स्थापित किया। 57 वर्ष की उम्र में 19 जनवरी 1597 को महाराणा प्रताप का निधन हो गया।

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