पतियों को निहत्थे जवानों की तरह न समझें और न ही उन्हें मशीन समझते हुए पत्नी को गुजरा की राशि देने का आदेश दिया जाए। यह आदेश है मद्रास हाई कोर्ट का जिसने फैमिली कोर्ट्स को पतियों के साथ थोड़ी नरमी बरतने को कहा है।
दरअसल यह फैसला कोर्ट ने वर्द्धराजन नाम के एक शख्स की याचिका पर सुनवाई करते हुए सुनाया है। वर्द्धराजन, जिसकी शादी फरवरी 2001 में हुई थी, उसकी पत्नी ने उस पर बेटी और पत्नी को नजरअंदाज करने का आरोप लगाते हुए चेन्नैई कोर्ट में याचिका दायर कर गुजारा खर्च की मांग की थी।
पत्नी की ही याचिका पर फैमिली कोर्ट ने 10,500 रुपये महीना कमाने वाले वर्द्धराजन को 7,000 रुपये अपनी पत्नी को गुजारा खर्च के रूप में देने का आदेश दिया था। जिसके बाद यह शख्स बचे हुए मात्र 3500 रूपए में अपने बूढ़े बाप और अपना खर्चा नहीं चला पा रहा था।
इससे परेशान होकर वर्द्धराजन ने फैमिली कोर्ट के फैसले के खिलाफ मद्रास हाई कोर्ट में अपील की। जिसके बाद कोर्ट ने फैमिली कोर्ट से कहा कि इतनी कम कमाई में से 7000 रुपये पत्नी को देने के बाद बचे 3500 रुपयों में अपना और अपने बूढ़े पिता का खर्च चलाना किसी के लिए भी बेहद मुश्किल है। जज ने कहा, ‘पत्नी और बच्चे के लिए गुजारा खर्च कितना हो, इस संबंध में फैसला लेते हुए कोर्ट को पुरुष की बाकी जिम्मेदारियों को भी ध्यान में रखना चाहिए।’
कोर्ट ने एक पुरुष के और तमाम जिम्मेवारियों के बारे में जिक्र करते हुए कहा कि ‘कोई भी पुरुष पति होने के साथ-साथ अपने माता-पिता का संतान भी होता है और उसे मां-बाप का भी ध्यान रखना होता है। फैमिली कोर्ट को इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए और कुछ मामलों में यह ध्यान रखना चाहिए कि अपनी कमाई का दो तिहाई हिस्सा पत्नी के गुजारे के देने के आदेश न दिए जाएं।’
जज ने यहां तक कहा कि इस तरह के गुजारा खर्च के आदेश की निंदा की जानी चाहिए। उन्होंने कहा, ‘ट्रायल कोर्ट को किसी भी फैसले तक पहुंचे से पहले एक शख्स के सभी हालात और पहलुओं पर ध्यान देना चाहिए, ताकि एक तरफा फैसला न हो और जिससे पति पर ज्यादा बोझ न पड़े।’