नोटबंदी ने हमारी अर्थ-व्यवस्था में कैसी तबाही मचाई है, यह अब सरकारी आंकड़े खुद बता रहे हैं। जब मैंने लिखा था कि नोटबंदी करके नरेंद्र मोदी अभिमन्यु की तरह चक्र-व्यूह में फंस गए हैं तो मोदी के कई मंदबुद्धि भक्तों ने मुझे असभ्य भाषा में प्रतिक्रिया दी थी लेकिन अब सरकारी आंकड़े बता रहे हैं कि 2017 की पहली तिमाही में भारतीय अर्थ-व्यवस्था में भयंकर गिरावट आ गई है। तीन साल में भारत का सकल घरेलू उत्पाद 8 प्रतिशत से घटकर 6.1 प्रतिशत रह गया है याने एक-चौथाई अर्थव्यवस्था चौपट हो गई है। कहने को यह सिर्फ दो प्रतिशत की गिरावट है लेकिन इस दो प्रतिशत का मतलब होता है, लाखों करोड़ रु., अरबों—खरबों रु.। इसके कारण लाखों लोग बेरोजगार हो गए हैं, कल-कारखाने ठप्प हो गए हैं, किसानों की दुर्दशा बढ़ गई है। हमारे पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहनसिंह ने इसकी भविष्यवाणी पहले ही कर दी थी। अब सरकारी अर्थशास्त्री बुरी तरह से हकला रहे हैं। वे लीपा-पोती कर रहे हैं। वे बोलें तो क्या बोलें ? जो स्वतंत्र अर्थशास्त्री हैं, वे मुंह खोल रहे हैं लेकिन उनकी भी आवाज घुटी-घुटी है। मोदी के डर के मारे वे देश का भला करने से कतरा रहे हैं। वे यह क्यों नहीं बताते कि इस नोटबंदी के कारण देश का कितना नुकसान हुआ है ? नए नोटों को छापने में 30 हजार करोड़ रु. बर्बाद हुए। 2 हजार के नोटों ने काले धन का भ्रष्टाचार बढ़ा दिया। डिजिटल लेन-देन ने बैंकों को जेबकतरी सिखा दी। अभी तक रिजर्व बैंक पुराने नोटों का हिसाब नहीं दे पाया। कितना काला धन अब तक पकड़ा गया, ठीक-ठीक पता नहीं। नेताओं, अफसरों और सेठों ने काले को सफेद करने के लिए क्या-क्या तिकड़में कर डालीं, इस पर एक श्वेत पत्र अभी तक आ जाना चाहिए था, नहीं आया। प्रधानमंत्री में इतना नैतिक साहस होना चाहिए था कि वे अपनी भूल स्वीकार करते और देश से माफी मांगते, खासकर उन लोगों से, जिनके परिजन बैंकों की लाइन में लगे-लगे परलोक पहुंच गए और पुणें के उस उत्साही समाजसेवी, अनिल बोकील, से भी, जिसकी योजना को अपना बनाकर अधकचरे ढंग से लागू कर दिया गया।
डा. वेद प्रताप वैदिक
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