शहीद-ए-आजम भगत सिंह द्वारा लिखी गयी रचनाओं में सबसे ज्यादा अगर किसी रचना का जिक्र होता है तो वह है ‘मैं नास्तिक क्यों हूं?’ माना जाता है कि यह लेख भगत सिंह ने 5-6 अक्टूबर 1930 को लिखा था। इस रचना की शुरूआत में भगत सिंह बताते हैं कि उनके आस-पास के लोग उनको नास्तिक मानने लगे हैं और घमंडी तक करार देते हैं। जो अपने अहंकार के चलते ईश्वर के अस्तित्व को नकारता है। हालांकि लेख में क्रांतिकारी भगत सिंह स्वयं इस बात को स्वीकार करते हैं कि उनमें भी मानवीय कमजोरियां हैं लेकिन वे अहंकार के चलते नहीं अपितु आत्म अभिमान के चलते ईश्वर के अस्तित्व को खारिज करते हैं।
भगत सिंह इस लेख में बताते हैं कि वे एक साधारण मनुष्य हैं और स्वयं को ईश्वर से ऊपर या उसके बराबर नहीं मानते। भगत सिंह कहते हैं कि वे तो ईश्वर के अस्तित्व में ही यकीन नहीं करते। उन्होंने लेख में लिखा है कि उनकी परवरिश धार्मिक माहौल में हुई थी और वे खुद लंबे समय तक ईश्वर को मानते रहे लेकिन अध्य्यन करने के बाद उनके मन में ईश्वर को लेकर सवाल पैदा हुए और उन्होंने ईश्वर की आलोचना करनी शुरू कर दी।
भगत सिंह ने लिखा कि ऐसा नहीं था कि वे क्रांतिकारी थे तो इसलिए वे नास्तिक थे, बहुत से क्रांतिकारी उनके साथ ऐसे थे जो बहुत धार्मिक थे। भगत सिंह लिखते हैं कि जैसे-जैसे वे पढ़ते-लिखते चले गए वे तार्किक रूप से सोचने लगे। वे लिखते हैं कि 1926 तक आते-आते ईश्वर उन्हें कोरी बकवास लगने लगा था।
भगत सिंह लिखते हैं कि जब उनको पुलिस द्वारा धमकी दी गयी कि उन्हें फांसी पर चढ़ा दिया जाएगा तो भी उनके मन में ईश्वर को याद करने का विचार नहीं आया बल्कि मुश्किल समय में भी वे खुद की नास्तिकता की परीक्षा लेना चाहते थे।
उन्होंने लिखा , ‘मैं जानता हूं कि जिस क्षण रस्सी का फंदा मेरी गर्दन पर लगेगा और मेरे पैरों के नीचे से तख्ता हटेगा , वही पूर्ण विराम होगा -वही अंतिम क्षण होगा।’
अपने लेख में भगत सिंह कहते हैं कि हर विवेकशील मनुष्य अपने आस-पास के माहौल को तार्किकता के साथ समझना चाहता है। हम पुरानी मान्यताओं और विचारों को इसलिए लाद रहे होते हैं क्योंकि हम उसे तार्किकता की कसौटी पर कसना नहीं चाहते हैं। भगत सिंह ईश्वर पर विश्वास करने वालों से सवाल करते हैं कि आखिर ईश्वर ने इस दुनिया को क्यों बनाया जहां सारे लोग दुखी हैं?
भगत सिंह इस लेख में लोगों से वैज्ञानिक तरीके से सोचने और अंधविश्वास को मिटाने की अपील करते हैं। वे कहते हैं कि ईश्वर मानव मस्तिष्क की कल्पना है और लोगों को ईश्वर के अस्तित्व को मानने से इंकार करना चाहिए और इसका विरोध करना चाहिए।