भारत का अपने पड़ोसी मुल्क श्रीलंका के साथ बेहतरीन संबंध रहा है। लेकिन एक वक्त ऐसा भी था कि दोनों देशों के बीच तमिल संघर्ष को लेकर स्थिति बहुत तनावपूर्ण हो गई थी। तमिल विद्रोही अगल राष्ट्र यानी ईलम की मांग करने लगे।
तमिलों के अलग ईलम की मांग को श्रीलंका की सेना ने हथियारों के बल पर बुरी तरह से कुचल दिया था। इस संघर्ष में लाखों श्रीलंकाई तमिलियन मारे गये थे, उन्हीं की याद में देश और दुनिया में फैले एलटीटीई समर्थक आज Twitter पर #TamilEelamHeroes से ट्वीट कर रहे हैं और यह ट्रेंड कर रहा है।
दरअसल भारत और श्रीलंका के बीच साझी संस्कृति है और इसका मूल कारण श्रीलंका के तमिल लोग हैं क्योंकि अंग्रेज भारत से तमिल लोगों को चाय के बागान में खेती करने के लिए बतौर बंधुआ मजदूर श्रीलंका लेकर गये थे। समय बितने के साथ तमिलनाडु से गये तमिल वहीं के होकर रह गये। बीच में फासला था तो सिर्फ समंदर का, जिसे वो अक्सर नौका से पार कर लेते और इस तरह दोनों मुल्कों में रहने वाले तमिलों के बीच दूरी तो रही लेकिन वो करीब रहे।
असली परेशानी तब शुरू हुई जब सिंहलियों ने श्रीलंका पर एकाधिकार जमाते हुए तमिलों को दोयम दर्जे की तरह देखना शुरू कर दिया। श्रीलंका के सिंहली बौद्ध मान्यता को मानते हैं वहीं तमिल हिंदू देवताओं को पूजते हैं। सिंहलियों ने तमिलों के खिलाफ साजिश करते हुए उन्हें धीरे-धीरे मुख्य समाज से दूर करना शुरू कर दिया। सरकारी नौकरियों में उनके लिए मुश्किलें पैदा की जाने लगी।
सिंहलियों का तमिलों पर अत्याचार लगातार बढ़ता जा रहा था, जिसके परिणामस्वरूप श्रीलंका के तमिल लोगों ने सिंहली सरकार के खिलाफ विद्रोह कर दिया और इस सशस्त्र विद्रोह को प्रभाकरण ने एक छतरी के तले समेटा, जिसे नाम दिया गया लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (एलटीटीई या लिट्टे) यानी तमिलों ने हथियार के बल पर श्रीलंका से अलग होकर एक संप्रभु राष्ट्र की मांग रख दी।
करीब 4 दशकों तक मुल्लईटीवु, जाफना, कंकेसंथुरई, कालूथारा और बट्टीकलोवा में श्रीलंका सेना और तमिल विद्रोहियों के बीच जमकर संघर्ष चला। इस संघर्ष में भारत की तमिल जनता तो एलटीटीई के साथ थी लेकिन भारत सरकार तमिल विद्रोहियों को हथियार की जगह बातचीत के जरिए मामले को सुलझाने की बात करती रही।
भारत के साथ एलटीटीई के संबंध उस वक्त खराब हो गये जब भारत के तत्कालीन प्रधानमत्री ने 1987 में कोलंबो जाकर श्रीलंका के राष्ट्रपति जे जयवर्धने के साथ शांति समझौता किया और भारत की शातिसेना को तमिल विद्रोहियों से लड़ने के लिए श्रीलंका भेज दिया।
इसकी सबसे बड़ी कीमत खुद राजीव गांधी वे चुकाई। 21 मई 1991 को श्रीपेरंबदूर में एक तमिल आत्मघाती विस्फोट में वो मारे गये। भारत की शांतिसेना का सैन्य मिशन भी असफल रहा और उसे वीपी सिंह की सरकार ने देश वापस बुला लिया।
इसके बाद एलटीटीई का प्रमुख वी प्रभाकरण भी दो दशकों तक संघर्ष करने के बाद श्रीलंका सेना के हाथों मारा गया। इस पूरे मामले सबसे भयावह पक्ष यह रहा कि तमिल विद्रोहियों को दबाने के नाम पर श्रीलंका की सेना ने तमिलों बहुत अत्याचार किये।
वर्तमान स्थिति में श्रीलंका में मौजूद तमिल लोगों की स्थिति कथित तौर पर बहुत ही दयनीय है और वह परोक्षतौर पर दूसरे दर्जे के नागरिक के तौर पर जिंदगी गुजार रहे हैं। इस बात से दक्षिण भारत के तमिलनाडु की जनता खासी आहत रहती है।
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