चीन कभी भी प्रत्यक्ष रूप से वार नहीं करता, वह दूसरे देशों से अपनी बात मनवाने के लिए उनपर राजनीतिक और व्यापारिक दबाव बनाता है ताकि दूसरा देश मजबूर होकर या लालचवश उसकी बात मानने को राजी हो जाए। यही हाल उसने पाकिस्तान के साथ किया। उसने पाकिस्तान में इतना निवेश किया कि अब पाकिस्तान उसकी हर बात पर हां में हां मिलाने को मजबूर हो चुका है। इसी तरह वह अन्य एशियाई देशों के साथ भी कर रहा है। सबसे खास बात यह है कि इस तरह की चालें रचकर वह अपने सबसे बड़े प्रतिद्वंदी भारत को कूटनीतिक ढंग से घेरना चाहता है। इसी क्रम में पाकिस्तान के बाद उसका अगला टारगेट नेपाल है जहां वो निवेश पर निवेश किए जा रहा है।
जी हां, चीन अब भारत के खिलाफ नेपाल को इस्तेमाल करने के मूड में है। इसके लिए वह तैयारी भी कर रहा है। इस समय चीन ने नेपाल में अपना निवेश बढ़ा दिया है और अब वह नेपाल में सबसे बड़ा विदेशी निवेशक बन गया है। नेपाल में वित्त वर्ष 2017 में 15 अरब नेपाली रुपयों का विदेशी निवेश हुआ है। इसमें से आधे से भी ज्यादा यानी 8.35 अरब नेपाली रुपयों का निवेश चीन ने अकेले किया है। जबकि इसी साल भारत ने नेपाल में 1.99 अरब रुपयों का निवेश किया है तो वहीं दक्षिण कोरिया ने 1.88 अरब नेपाली रुपयों का निवेश किया है। इनवेस्टमेंट समिट के दौरान नेपाल को 7 देशों से कुल 13.52 अरब डॉलर का निवेश मिला था।
नेपाल में अपने पैठ को जमाने के लिए चीन नेपाल में भारत की कंपनियों को टक्कर दे रही है। चीनी कंपनियों ने भारत के बढ़ते इलेक्ट्रॉनिक मार्केट को भी पीछे छोड़ दिया है और नेपाल में 22 अरब डॉलर का व्यापार कर रही हैं। इसके अलावा नेपाल में 341 बड़े प्रोजेक्टस में 125 चीन के पास है। इसके साथ ही चीन ने नेपाल को 8.2 अरब डॉलर का आर्थिक मदद देने का वादा भी किया है।
सूचना के मुताबिक इन सब के पीछे धारचुला को वजह माना जा रहा है। जिस तरह डोकलाम में भारत,चीन और भूटान की सीमा मिलती है, ठीक उसी तरह धारचुला नेपाल, भारत और चीन के ट्राइजंक्शन में आता है। 1814-16 में हुए एंग्लो-नेपाली युद्ध के समय से ही भारत और नेपाल के बीच इस स्थान को लेकर संधि की गई थी। 1950 में तिब्बत पर चीन के कब्जा करने से पहले धारचुला तिब्बत-नेपाल-भारत के बीच व्यापार रास्ते के लिए एक अहम शहर था। ऐसे में नेपाल में बढ़ता चीन का निवेश भारत के लिए एक चुनौती है जिसका हल भारत को हर हाल में निकालना होगा।