क्या बिहार में कांग्रेस अकेले मैदान में उतरेगी? राजद से दूरी के बाद कन्हैया कुमार बनेंगे तेजस्वी यादव की चुनौती?

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राजद से दूरी के बाद कन्हैया कुमार बनेंगे तेजस्वी यादव की चुनौती?
राजद से दूरी के बाद कन्हैया कुमार बनेंगे तेजस्वी यादव की चुनौती?

बिहार में अगला विधानसभा चुनाव करीब है और कांग्रेस पार्टी इन दिनों चर्चा में है। हालांकि, पार्टी का जनाधार बाकी प्रमुख दलों से कमजोर है, फिर भी बिहार में कांग्रेस के भविष्य को लेकर कई सवाल उठ रहे हैं। सबसे बड़ी चर्चा यह हो रही है कि क्या कांग्रेस विधानसभा चुनाव अकेले लड़ेगी? इस संभावना को पार्टी के हालिया फैसलों से जोड़ा जा रहा है, जिनमें राजद के साथ बढ़ती दूरी की ओर इशारा किया गया है।

कांग्रेस ने हाल ही में बिहार प्रभारी के पद से मोहन प्रकाश को हटाकर कृष्णा अल्लावारू को पदस्थापित किया। इसके अलावा, जेएनयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष और भाकपा से कांग्रेस में आए कन्हैया कुमार को राज्य में रोजगार मुद्दे पर पदयात्रा की अनुमति दी। वहीं, राज्यसभा सदस्य डॉ. अखिलेश प्रसाद सिंह की जगह विधायक राजेश कुमार को प्रदेश अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया गया। इन सभी फैसलों को कांग्रेस द्वारा राजद की छाया से बाहर निकलने और पुराने जनाधार को वापस पाने के प्रयास के रूप में देखा जा रहा है।

कन्हैया कुमार को तेजस्वी यादव के विकल्प के रूप में पेश किया जा रहा है, क्योंकि रोजगार और सरकारी नौकरी का वादा राजद का प्रमुख चुनावी मुद्दा है। साथ ही, कांग्रेस की नई संरचना में यह भी चर्चा हो रही है कि पप्पू यादव, जो पहले निर्दलीय सांसद चुने गए थे, अब कांग्रेस के साथ सहयोग कर सकते हैं। हालांकि, यह सभी प्रयास कांग्रेस को मजबूती देंगे या नहीं, यह सवाल खड़ा है।

इतिहास को देखें तो 1990 में बिहार की सत्ता से अलग होने के बाद कांग्रेस हर विधानसभा चुनाव में कुछ नया प्रयोग करती आई है, लेकिन अधिकांश मामलों में पार्टी को नुकसान ही हुआ है। 2010 में राजद से अलग होकर चुनाव लड़ा गया, लेकिन उसे केवल चार सीटों पर ही सफलता मिली। 2015 में कांग्रेस ने राजद से गठबंधन किया और 27 सीटों पर जीत हासिल की। 2020 में पार्टी ने 70 सीटों पर चुनाव लड़ा और केवल 19 सीटों पर ही जीत दर्ज की।

कांग्रेस के लिए यह मुश्किल है कि वह अकेले चुनाव लड़कर इतनी सीटें जीतने की स्थिति में हो कि उसके बिना बिहार में कोई सरकार न बन पाए। पार्टी के कई पुराने नेता भी यह स्वीकार करते हैं कि सत्ता से बाहर होने के बाद कांग्रेस का जनाधार घटा है और इसे फिर से जोड़ने के लिए कोई ठोस प्रयास नहीं किए गए हैं। इसके साथ ही, सवर्ण वोटर एनडीए के साथ चले गए, मुसलमानों और पिछड़ों ने समाजवादी दलों का रुख किया, और अनुसूचित जाति के वोट भी विभिन्न दलों में बंट गए।

कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्षों का लगातार बदलना भी पार्टी के लिए एक चुनौती रहा है। अब राजेश कुमार के नेतृत्व में कांग्रेस सबको साथ लेकर चलने का दावा कर रहे हैं, लेकिन उनके समर्थक पहले ही निवर्तमान प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश सिंह के खिलाफ मोर्चा खोल चुके हैं। इस सबके बीच, कांग्रेस को अकेले चुनाव लड़े जाने के बारे में उत्साहित होने का कोई संकेत नहीं मिलता है। सभी स्थितियों को ध्यान में रखते हुए, यह साफ है कि न केवल कांग्रेस, बल्कि राजद भी अकेले चुनाव लड़ने की उम्मीद नहीं पाल सकता है।