टीवी के श्याम-श्वेत डिब्बे से लेकर रंगीन डिजिटल खबरों के इस खुबसूरत सफरनामे के दमदार हस्ताक्षर बने रहे Vinod Dua का शनिवार शाम दिल्ली के एक अस्पताल में निधन हो गया। सहज, स्पष्ट और मधुर बोलने वाले विनोद दुआ के विषय में हम यह कह सकते हैं कि उन्होंने आजीवन पत्रकारिता के उन उच्च मानदंडो के साथ काम किया, जिसे आज के दौर में निभा पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन सा लगता है।
80 के दशक में जब टीवी का बक्सा पहेली बनकर भारत में पैर पसार रहा था, तब बड़े-बड़े लोगों के लिए उसे समझ पाना बड़ा मुश्किल भरा काम था। उसी समय मनोहन श्याम जोशी और कमलेश्वर जैसे कथा शिल्पी अपनी कलम से मनोरंजन की विधा में दूरदर्शन को पहचान देने का प्रयास कर रहे थे, ठीक उसी समय खबरों की दुनिया में विनोद दुआ भी उनके साथ जुड़ गये।
विनोद दुआ ने साल 1985 में जनवाणी शुरू किया
दिल्ली यूनिवर्सिटी से अंग्रेजी साहित्य में ग्रेजुएट होने के बाद नाटकों की ओर रूझान रखने वाले बेखौफ विनोद दुआ ने साल 1985 में जनवाणी शुरू किया। दूरदर्शन का प्रोग्राम और विनोद दुआ ने संभाली कमान। इस कार्यक्रम के एक एपिसोड में वर्तमान राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, जो उस समय प्रधानमंत्री राजीव गांधी के मंत्रीमंडल में कनिष्ठ सदस्य हुआ करते थे, भाग लेने के लिए पहुंचे।
विनोद दुआ ने शो में अशोक गहलोत से ऐसे तीखे प्रश्न पूछे कि अशोक गहलोत निरुत्तर हो गये। चारों तरफ आलोचना के शिकार हुए अशोक गहलोत को राजीव गांधी का मंत्रीमंडल तक छोड़ना पड़ा विनोद दुआ के उस शो के कारण। ध्यान दीजिए तो उस शो के लगभग एक दशक पहले इसी देश में इमरेंजी लागू हुई थी।
लालकृष्ण आडवाणी ने इमरजेंसी के दौर में मीडिया को रेंगने वाला बताया था
लालकृष्ण आडवाणी के शब्दों में याद करिये तो उस इमरजेंसी के दौर में मीडिया रेंगने लगा था इंदिरा सरकार के कदमों तले। उन्हीं इंदिरा गांधी की मौत के बाद जब राजीव गांधी के हाथ में सत्ता आती है तो विनोद दुआ उसी सत्ता से उसी सत्ता प्रतिष्ठान की एक संस्था (दूरदर्शन) के जरिये उसी सरकार के मंत्री से ऐसे तीखे सवाल पूछते हैं कि मंत्री को इस्तीफा देना पड़ा।
सच में यह साहस सिर्फ विनोद दुआ ही कर सकते थे। शायद सच करने का साहस उनमें इसलिए भी रहा हो क्योंकि दिल्ली के जंगपुरा और किंग्सवे कैंप की रिफ्यूजी बस्तियों से जिंदगी की शुरूआत करने वाले विनोद दुआ के शरीर में रीढ़ की ठसकदार हड्डी मौजूद थी। लगातार क्षय की ओर बढ़े रहे समाचार माध्यमों के बीच एक सुखद एहसास का दूसरा नाम थे विनोद दुआ।
80 के दशक की आखिरी बेला में विनोद दुआ ने प्रणय रॉय के साथ मिलकर भारत में होने वाले आम चुनावों का जिस तरह से विश्लेषण किया वो आज भी हिन्दी पत्रकारिता को एक नया आयाम देती है। अंग्रेज़ी में पढ़ाई करने बाद भी हिंदी या हिंदोस्तानी भाषा में खबरों के प्रस्तुति का तरीका उन्हें व्यक्ति नहीं एक संस्था के तौर पर देखे जाने की ओर बल देता है।
राजनीतिक पत्रकार होते हुए भी विनोद दुआ गीत-संगीत औऱ खाना-खजाना में भी दखल रखते थे
विशुद्ध राजनीतिक पत्रकार होते हुए भी उनका दखल जिस तरह से गीत-संगीत औऱ खाना-खजाना के क्षेत्र में भी था, इस बात की ओर इशारा करता था कि वो एक परिपूर्ण व्यक्तित्व के धनी इंसान थे। पूरे जीवन अपनी शर्तों पर जीने वाले इंसान आपको पत्रकारिता में कम ही दिखाई देंगे।
आज के दौर में राष्ट्रवाद की जो अंधी आंधी चल रही है, उसमें विनोद दुआ जैसे दीपक का बुझना निश्चित तौर पर पत्रकारिता के लिए एक बहुत बड़ा नुकसान है। अपनी वाकशैली से सब कुछ आसानी से कहने वाले विनोद दुआ पर देशद्रोह से लेकर #MeToo जैसे कई आरोप लगे।
हमें सोचना होगा कि 67 साल की उम्र में विनोद दुआ इस दुनिया को छोड़कर चले गये लेकिन एक जागरूक समाज होने के नाते हमने उन्हें उनके अंतिम सालों में क्या-क्या दिया। वक्त सबका हिसाब करता है। अपना बही-खाता लेकर विनोद दुआ तो चले गये। लेकिन याद रखिये उस कतार में कल हम और आप सभी खड़े होने वाले हैं।
(डिस्क्लेमर :इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति APN न्यूज उत्तरदायी नहीं है)
(लेखक आशीष पाण्डेय जाने-माने पत्रकार हैं, पिछले डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। राजनीति और अन्य सामाजिक मुद्दों पर लिखते रहे हैं)
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