2 जनवरी को ‘हल्ला बोल’ अधूरा छोड़ गए Safdar Hashmi

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Safdar Hashmi

आज Safdar Hashmi के कत्ल की ताऱीख है। जी हां, साल 1989 में 2 जनवरी के दिन दिल्ली से सटे गाजियाबाद के साहिबाबाद इलाके में एक राजनीतिक दल के कुछ उग्र गुंडों के कारण मात्र 32 साल की उम्र में सफ़दर को इस दुनिया से जाना पड़ा।

नुक्कड़-चौराहों पर मुल्क के लिए लड़ने वाले और बड़ी ही साफगोई से अपनी बात कहने वाले Safdar Hashmi अक्सर अवतार सिंह संधू ‘पाश’ की इन लाइनों को गुनगुनाया करते थे।

क़त्ल हुए जज़्बों की क़सम खाकर
बुझी हुई नज़रों की क़सम खाकर
हम लड़ेंगे साथी, उदास मौसम के लिए
हम लड़ेंगे साथी, ग़ुलाम इच्छाओं के लिए

कहते हैं कि हर युग में सच बोलने की कीमत चुकानी पड़ती है क्योंकि सच हर दौर में कड़वा होता है जबकि फरेब धोखे का नकाब ओढ़े रहती है। 2 जनवरी 1989 को सच बोलने की कीमत लगी सफ़दर की सांसों से।

Safdar Hashmi का कत्ल मात्र 32 साल की उम्र में कर दिया गया

तरबीयत से अपने हुनर के माहिर सफ़दर हाशमी ने 32 साल की उम्र में कुछ ऐसा मुकाम हासिल कर लिया था कि उनके जनाजे में दिल्ली की सड़कों पर हजारों लोग इकट्ठा थे। वो केवल एक नाटककार, रंगकर्मी और गीतकार ही नहीं थे, असल में वो समाज में दबे-कुचले और शोषित लोगों की आवाज़ थे।

Safdar Hashmi
सफ़दर हाशमी

सत्ता की कान में बीन बजाने वाले सफ़दर सिंहासन पर बैठे नहीं बल्कि सोये हुए लोगों को जगाने का काम किया करते थे। उनके नुक्कड़ नाटकों में हर वो तीखे सवाल होते थे, जिनसे सत्ताधीशों की गद्दी कांपती थी।

चलती हुई सड़क पर होने वाले उनके नाटक ठहरी हुई सरकारों को हांकने का काम किया करती थी। उनके नाटक आज भी समाज के हर गरीब की जेब में, उसकी पेट में और पेट में पलने वाली आग में जिंदा हैं। वो जम्हूरियत में उस मुखालफ़त की आवाज थे, जो कहने को आज भी लोकतांत्रिक है। अगर ऐसा था तो सरेराह ऐसे Safdar Hashmi का कत्ल नहीं किया जाता।

Safdar Hashmi जन नाट्य मंच के संस्थापक सदस्यों में से एक थे

12 अप्रैल 1954 को हनीफ और कौमर आजाद हाशमी के घर पैदा हुए सफ़दर हाशमी की परवरिश अलीगढ़ और दिल्ली में हुई। 70 के दशक में सफ़दर जन नाट्य मंच और दिल्ली में स्टूडेंट्स फेडरेशन आफ इंडिया(SFI) के संस्थापक सदस्यों में से एक थे।

Safdar Hashmi
सफ़दर हाशमी

दिल्ली यूनिवर्सिटी के सेंट स्टीफेन्स कॉलेज से अंग्रेजी में ग्रेजुएशन और पीजी करने वाले Safdar Hashmi ने जीवन के शुरूआती दौर में पत्रकार की, कई यूनिवर्सिटीज में लेक्चरर रहे और उसके बाद वो दिल्ली में पश्चिम बंगाल सरकार के ‘प्रेस सूचना अधिकारी के रूप में सेवा दी।

नौकरी छोड़ने के बाद सफ़दर ने खुद को पूरी तरह से नाटकों के हवाले कर दिया। 70 के दशक में सरकारी तंत्र में बढ़ते भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और शोषण के खिलाफ गहरे तंज करने वाले सफ़दर के नुक्कड़ नाटकों ने इंदिरा सरकार को काफी नुकसान पहुंचाया।

‘कुर्सी, कुर्सी, कुर्सी’ सफ़दर के लोकप्रिय नाटकों में से एक था

सत्ता के दमन के खिलाफ लिखा सफ़दर का नुक्कड़ नाटक ‘कुर्सी, कुर्सी, कुर्सी’ सबसे लोकप्रिय नाटकों में शुमार किया जाता है। मंझे हुए साथी कलाकारों के साथ जब Safdar Hashmi की टोली सड़कों पर निकलती थी तो ऐसा मजमा लगता था कि आसपास के बिल्डिंगों में काम करने वाले सरकारी कर्मचारी भी दफ्तर से निकलकर भीड़ का हिस्सा हो जाते थे और जिस सरकार के वो मुलाजिम थे, उसी के खिलाफ हो रहे नाटक को बड़ी तन्मयता देखा करते थे।

Safdar Hashmi
सफ़दर हाशमी

सफ़दर हाशमी ने छात्रों, महिलाओं और किसानों के खिलाफ हो रहे अत्याचार का विरोध अपने नाटकों से किया। मंडी हाउस को हमेशा अपनी जोशीले आवाज से जगाने वाले Safdar Hashmi ने साल 1979 में साथी नुक्कड़कर्मी मलयश्री से शादी कर ली। सफ़दर के कुछ मशहूर नाटकों में ‘गांव से शहर तक’, ‘हत्यारे’, ‘अपहरण भाईचारे का’, ‘तीन करोड़’, ‘औरत’ और ‘डीटीसी की धांधली’ शामिल हैं।

कैसे हुआ Safdar Hashmi का कत्ल

1 जनवरी 1989 को गाजियाबाद के झंडापुर में अंबेडकर पार्क के पास सफ़दर हाशमी जन नाट्य मंच (जनम) की अपनी टोली के साथ माकपा के उम्मीदवार रामानंद झा के समर्थन में नुक्कड़ नाटक ‘हल्ला बोल’ कर रहे थे। तभी कांग्रेस की ओर से चुनाव लड़ रहे मुकेश शर्मा का काफिला वहा्ं से निकल रहा था। मुकेश शर्मा के आदमियों ने सफ़दर से रास्ता खाली करने को कहा। जिसके जवाब में सफ़दर ने उन्हें थोड़ी देर ठहरने या फिर किसी दूसरे रास्ते से निकल जाने को कहा।

2 Jan. 1989

इस बात से मुकेश शर्मा के अहम को ठेस लगी और इस बात से गुस्से में आकर उन्होंने अपने समर्थकों से कहा कि वो लाठी-डंडों के बल पर रास्ते को खाली करा दें। इसके बाद मुकेश शर्मा के समर्थकों ने Safdar Hashmi की नाटक मंडली पर हमला बोल दिया। इस हमले में सफ़दर बुरी तरह जख्मी हुए वहीं एक मजदूर राम बहादुर की मौके पर ही मौत हो गई।

Safdar Hashmi
सफ़दर हाशमी

सफ़दर को गंभीर हालत में पास के सीटू (CITU) ऑफिस ले जाया गया। मुकेश शर्मा और उनके समर्थक सफ़दर के पीछे-पीछे वहां भी घुस आए और उन पर दोबारा हमला किया। लोगों ने किसी तरह वहां से सफ़दर को निकाला और उन्हें दिल्ली के राम मनोहर लोहिया अस्पताल ले गये। जहां 2 जनवरी को भारतीय वामपंथी आंदोलन के सांस्कृतिक प्रतिरोध की आवाज बुलंद करने वाले सफ़दर हाशमी हमेशा के लिए खामोश हो गये।

सफ़दर की मौत के 48 घंटे बाद यानी 4 जनवरी को उसी गाजियाबाद के झंडापुर में अंबेडकर पार्क के पास उनकी पत्नी मलयश्री हाशमी और उनके साथियों ने वही नाटक ‘हल्ला बोल’ किया, जिसे सफ़दर अधूरा छोड़ गये थे।

Safdar Hashmi की कविता- ‘किताबें’

किताबें
किताबें
करती हैं बातें
बीते ज़माने की
दुनिया की इंसानों की
आज की, कल की
एक – एक पल की
खुशियों की, ग़मों की
फूलों की, बमों की
जीत की, हार की
प्यार की, मार की !
क्या तुम नहीं सुनोगे

इन किताबों की बातें ?
किताबें कुछ कहना
चाहती हैं
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं
किताबों में चिड़ियां चहचहाती हैं
किताबों में खेतियां लहलहाती हैं
किताबों में झरने गुनगुनाते हैं
परियों के किस्से सुनाते हैं
किताबों में रोकेट का राज है
किताबों में साइंस की आवाज़ है
किताबों का कितना बड़ा संसार है
किताबों में ज्ञान का भंडार है
क्या तुम इस संसार में
नहीं जाना चाहोगे ?
किताबें कुछ कहना चाहती हैं
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं

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