Death Penalty Cases in India: भारत में मृत्युदंड को लेकर बहस लगातार जारी है। जहां एक ओर निचली अदालतों में मौत की सजा सुनाए जाने की संख्या बढ़ रही है, वहीं दूसरी ओर सुप्रीम कोर्ट ने लगातार तीसरे वर्ष (5 मार्च 2025 तक) किसी भी मृत्युदंड की पुष्टि नहीं की। हाल ही में, रमेश ए. नायका बनाम रजिस्ट्रार जनरल मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने दो नाबालिग बच्चों की हत्या के दोषी व्यक्ति (पिता) की मौत की सजा को बिना किसी छूट के आजीवन कारावास में बदल दिया।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में इस बात पर जोर दिया कि मृत्युदंड को ‘दुर्लभतम मामलों’ में ही लागू किया जाना चाहिए, और दोषी की आपराधिक पृष्ठभूमि की गैर-मौजूदगी, सुधार की संभावना और अन्य परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए उसकी फांसी की सजा को बदलने का फैसला किया। यह मामला भारत में मौत की सजा को लेकर जारी न्यायिक बहस का एक महत्वपूर्ण उदाहरण बन गया है।
2024 तक मृत्युदंड का इंतजार करते कैदी
भारत में मौत की सजा से जुड़े मामलों में साल 2024 में कई महत्वपूर्ण घटनाक्रम सामने आए। जहां एक ओर सुप्रीम कोर्ट ने लगातार दो साल किसी भी मौत की सजा की पुष्टि नहीं की, जबकि निचली अदालतों में इस सजा को सुनाए जाने की संख्या में बढ़ोतरी देखी गई। इस वजह से देशभर की जेलों में फांसी का इंतजार कर रहे कैदियों की संख्या बढ़कर 564 हो गई, जो पिछले दो दशकों में सबसे अधिक मानी जा रही है।
मृत्युदंड को लेकर देश में हमेशा बहस होती रही है। जहां एक तरफ इसे अपराध रोकने का प्रभावी तरीका माना जाता है, वहीं दूसरी ओर न्याय प्रणाली की सख्ती और निष्पक्षता पर भी सवाल उठते हैं। सुप्रीम कोर्ट की सतर्कता, निचली अदालतों में बढ़ते मृत्युदंड के फैसले और विभिन्न राज्यों में सुनाई गई फांसी की सजा के आंकड़ों पर एक नजर डालते हैं।
सुप्रीम कोर्ट का रुख: मौत की सजा की पुष्टि में सावधानी
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने साल 2024 में मौत की सजा से जुड़े छह मामलों की समीक्षा की, लेकिन इनमें से किसी भी मामले में इस सजा की पुष्टि नहीं की। पांच मामलों में अदालत ने दोषियों की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया, जबकि एक मामले में आरोपी को बरी कर दिया गया।
यह लगातार दूसरा वर्ष है जब सुप्रीम कोर्ट ने किसी भी व्यक्ति की मौत की सजा को बरकरार नहीं रखा। यह रुख यह दर्शाता है कि देश की शीर्ष अदालत मृत्युदंड को लेकर बेहद सतर्कता बरत रही है और केवल उन मामलों में ही इसे उचित मान रही है जहां कोई और विकल्प न हो।
सुप्रीम कोर्ट का यह दृष्टिकोण भारतीय न्याय प्रणाली के विकसित होते मानकों को दर्शाता है। अदालत अब यह देख रही है कि क्या दोषी के पास सुधार का कोई अवसर है और क्या न्यायिक प्रक्रिया के दौरान उसके अधिकारों का उल्लंघन हुआ है।
निचली अदालतों में मौत की सजा: बढ़ती संख्या
जहां बीते वर्ष सुप्रीम कोर्ट ने किसी भी मौत की सजा को बरकरार नहीं रखा, वहीं निचली अदालतों द्वारा इस सजा को सुनाने की संख्या में बढ़ोतरी देखी गई।
- डीडब्ल्यू में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक, निचली अदालतों ने कुल 139 मामलों में मौत की सजा सुनाई।
- इनमें से 87 मामले हत्या से संबंधित थे, जबकि 35 मामले यौन अपराधों से संबंधित हत्याओं के थे।
- बाकी मामलों में आतंकवाद और संगठित अपराध से जुड़े दोषियों को मौत की सजा दी गई।
निचली अदालतों द्वारा सजा देने की यह दर यह दर्शाती है कि गंभीर अपराधों में सख्ती बरतने का रुख अपनाया जा रहा है। हालांकि, बड़ी संख्या में मामलों की उच्च न्यायालयों और सुप्रीम कोर्ट में अपील के कारण अंतिम रूप से कितने मामलों में यह सजा बरकरार रहती है, यह देखना बाकी है।
मौत की सजा के इंतजार में 500 से ज्यादा कैदी
निचली अदालतों द्वारा दी गई मौत की सजाओं में हत्या और यौन अपराधों से जुड़े मामले प्रमुख रूप से शामिल रहे। 2023 में निचली अदालतों ने 122 मामलों में मृत्युदंड दिया था, जिनमें 58 यौन अपराधों और 40 हत्याओं से जुड़े मामले थे। वर्तमान में, भारत की विभिन्न जेलों में 564 ऐसे कैदी हैं, जिन्हें फांसी की सजा मिल चुकी है, जो कि पिछले दो दशकों में सबसे ज्यादा संख्या है।
2019 से 2024 तक फांसी की सजा पाने वाले कैदियों की बढ़ती संख्या
रिपोर्ट के अनुसार, 2019 से अब तक मौत की सजा पाने वाले कैदियों की संख्या में लगातार इजाफा हुआ है।
वर्ष | मौत की सजा पाने वाले कैदी |
---|---|
2019 | 378 |
2020 | 404 |
2021 | 490 |
2022 | 539 |
2023 | 554 |
2024 | 564 |
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यह संख्या पिछले दो दशकों में सबसे अधिक है, जो इस बात को दर्शाती है कि मृत्युदंड के मामलों में अपील और पुनर्विचार प्रक्रिया लंबी चल रही है। कई मामलों में दोषी वर्षों तक जेल में बंद रहते हैं और उच्च न्यायालयों व सर्वोच्च न्यायालय में उनकी अपील पर सुनवाई लंबित रहती है।
राज्यवार आंकड़े: सबसे ज्यादा मौत की सजा कहां दी गई?
अगर राज्यों के आंकड़ों पर गौर करें तो उत्तर प्रदेश सबसे आगे रहा, जहां 2024 में 34 लोगों को मौत की सजा सुनाई गई।
राज्यवार आंकड़े:
- उत्तर प्रदेश – 34 कैदियों को मौत की सजा
- केरल – 20 कैदियों को मृत्युदंड
- पश्चिम बंगाल – 18 कैदियों को फांसी की सजा
- महाराष्ट्र – 15 मामलों में मृत्युदंड
- मध्य प्रदेश – 12 मौत की सजा
दिल्ली, त्रिपुरा, असम और जम्मू-कश्मीर जैसे राज्यों में 2024 में किसी भी कैदी को मौत की सजा नहीं सुनाई गई।
उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक मौत की सजा सुनाए जाने का कारण यहां अपराध दर का अधिक होना माना जा रहा है। वहीं, केरल और पश्चिम बंगाल में भी इस संख्या में इजाफा हुआ है, जो बताता है कि राज्य सरकारें अब गंभीर अपराधों के मामलों में अधिक कठोर रुख अपना रही हैं।
जेलों में बढ़ती संख्या के कारण:
- उच्च न्यायालयों में लंबित अपीलें – कई मामलों में उच्च न्यायालयों में अपील लंबित होने के कारण सजा की पुष्टि या बदलाव में देरी हो रही है।
- राष्ट्रपति के पास दया याचिकाएं – कई कैदी राष्ट्रपति के पास दया याचिका दायर कर चुके हैं, जिन पर फैसला आना बाकी है।
- न्यायिक प्रक्रिया में समय लगना – कई मामलों में पुनर्विचार याचिकाएं दायर की जाती हैं, जिससे प्रक्रिया लंबी खिंचती है।
क्या मृत्युदंड की जरूरत बनी रहेगी?
भारत में मृत्युदंड को लेकर हमेशा बहस होती रही है। एक तरफ यह तर्क दिया जाता है कि गंभीर अपराधों के लिए कठोरतम सजा जरूरी है, ताकि अपराधियों में डर बना रहे। वहीं, दूसरी ओर यह तर्क भी दिया जाता है कि अगर किसी निर्दोष को गलत तरीके से सजा मिल गई, तो उसकी भरपाई संभव नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट का हालिया रुख यह दर्शाता है कि न्यायपालिका अब इस सजा को लेकर अधिक सतर्क हो रही है। अगर अपील और पुनर्विचार प्रक्रिया तेजी से पूरी हो, तो मृत्युदंड से जुड़े मामलों में अधिक पारदर्शिता और निष्पक्षता लाई जा सकती है। इसके साथ ही विकसित देशों की तर्ज पर भारत में भी इस सजा पर पुनर्विचार करने की मांग उठ रही है।
मौत की सजा के मामलों में सुप्रीम कोर्ट की सतर्कता और निचली अदालतों में इस सजा को दिए जाने की बढ़ती संख्या ने एक नई बहस को जन्म दिया है। जहां निचली अदालतें संगीन अपराधों के लिए कठोर निर्णय ले रही हैं, वहीं सर्वोच्च न्यायालय का रुख अधिक संतुलित और विचारशील नजर आ रहा है।