Dharamveer Bharti: आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रमुख लेखक, कवि, नाटककार और सामाजिक विचारक धर्मवीर भारती का आज जन्मदिन है। वे एक समय की प्रख्यात साप्ताहिक पत्रिका धर्मयुग के प्रधान संपादक भी रह चुके थे। धर्मवीर भारती को पद्मश्री से सम्मानित भी किया गया था। उन्होनें अपने जीवनकाल में बहुत सी रचनाएं लिखी। जिनमें से एक है “गुनाहों के देवता”, इस किताब को लोगों ने सबसे ज्यादा पसंद किया था।
Dharamveer Bharti का जीवन
Dharamveer Bharti का जन्म 25 दिसंबर 1926 को प्रयागराज में हुआ था। उन्हें हमेशा से ही पढ़ने-लिखने का बहुत शौक था। जब आठवीं कक्षा में पढ़ रहे थे तभी इनके पिता का देहांत हो गया जिसके बाद उनकी पढ़ाई की जिम्मेदारी इनके मामा ने उठायी।
आर्थिक तंगी के कारण यह चाह कर भी ज्यादा किताबें नहीं पढ़ पाते थे लेकिन उनके लगन को देखते हुए मोहल्ले के लाइब्रेरी से लाइब्रेरियन पांच-पांच दिनों के लिए किताबें पढ़ने के लिए देने लगी। 1943 में उन्होनें इलाहाबाद विश्वविद्यालय में स्नातक में दाखिला लिया। उन्होंने 1945 में स्नातक अंतिम वर्ष में प्रथम स्थान प्राप्त किया, जिसके लिए उन्हें चिंतामणि घोष पदक से नवाजा गया। धर्मवीर भारती प्रयागराज की संस्कृति को जीने वाले रचनाकार थे। 4 सितंबर 1997 को इन्होनें दुनिया को अलविदा कह दिया।
Dharamveer Bharti की रचनाएं
Dharamveer Bharti कहानी संग्रह : मुर्दों का गाँव, स्वर्ग और पृथ्वी, चाँद और टूटे हुए लोग, बंद गली का आखिरी मकान, साँस की कलम से, समस्त कहानियाँ एक साथ; Dharamveer Bharti काव्य रचनाएं : ठंडा लोहा(1952), सात गीत वर्ष(1959), कनुप्रिया(1959) सपना अभी भी(1993), आद्यन्त(1999), देशांतर(1960);
Dharamveer Bharti उपन्यास: गुनाहों का देवता, सूरज का सातवां घोड़ा, ग्यारह सपनों का देश, प्रारंभ व समापन; निबंध : ठेले पर हिमालय, पश्यंती; एकांकी; नाटक : नदी प्यासी थी, नीली झील, आवाज़ का नीलाम आदि; Dharamveer Bharti पद्य नाटक : अंधा युग; आलोचना : प्रगतिवाद : एक समीक्षा, मानव मूल्य और साहित्य
इनकी कुछ कविताएं बहुत प्रसिद्ध थीं जिसमे
गुनाह का गीत
अगर मैंने किसी के होठ के पाटल कभी चूमे
अगर मैंने किसी के नैन के बादल कभी चूमे
महज इससे किसी का प्यार मुझको पाप कैसे हो?
महज इससे किसी का स्वर्ग मुझ पर शाप कैसे हो?
तुम्हारा मन अगर सींचूँ
गुलाबी तन अगर सीचूँ तरल मलयज झकोरों से!
तुम्हारा चित्र खींचूँ प्यास के रंगीन डोरों से
कली-सा तन, किरन-सा मन, शिथिल सतरंगिया आँचल
उसी में खिल पड़ें यदि भूल से कुछ होठ के पाटल
किसी के होठ पर झुक जायँ कच्चे नैन के बादल
महज इससे किसी का प्यार मुझ पर पाप कैसे हो?
महज इससे किसी का स्वर्ग मुझ पर शाप कैसे हो?
किसी की गोद में सिर धर
घटा घनघोर बिखराकर, अगर विश्वास हो जाए
धड़कते वक्ष पर मेरा अगर अस्तित्व खो जाए?
न हो यह वासना तो ज़िन्दगी की माप कैसे हो?
किसी के रूप का सम्मान मुझ पर पाप कैसे हो?
नसों का रेशमी तूफान मुझ पर शाप कैसे हो?
किसी की साँस मैं चुन दूँ
किसी के होठ पर बुन दूँ अगर अंगूर की पर्तें
प्रणय में निभ नहीं पातीं कभी इस तौर की शर्तें
यहाँ तो हर कदम पर स्वर्ग की पगडण्डियाँ घूमीं
अगर मैंने किसी की मदभरी अँगड़ाइयाँ चूमीं
अगर मैंने किसी की साँस की पुरवाइयाँ चूमीं
महज इससे किसी का प्यार मुझ पर पाप कैसे हो?
महज इससे किसी का स्वर्ग मुझ पर शाप कैसे हो?
मुक्तक
एक :
ओस में भीगी हुई अमराईयों को चूमता
झूमता आता मलय का एक झोंका सर्द
काँपती-मन की मुँदी मासूम कलियाँ काँपतीं
और ख़ुशबू-सा बिखर जाता हृदय का दर्द!
दो :
ईश्वर न करे तुम कभी ये दर्द सहो
दर्द, हाँ अगर चाहो तो इसे दर्द कहो
मगर ये और भी बेदर्द सज़ा है ऐ दोस्त !
कि हाड़-बाड़ चिटख जाए मगर दर्द न हो !
तीन :
आज माथे पर, नज़र में बादलों को साध कर
रख दिये तुमने सरल संगीत से निर्मित अधर
आरती के दीपकों की झिलमिलाती छाँह में
बाँसुरी रखी हुई ज्यों भागवत के पृष्ठ पर
चार :
फीकी फीकी शाम हवाओं में घुटती घुटती आवाज़ें
यूँ तो कोई बात नहीं पर फिर भी भारी-भारी जी है,
माथे पर दु:ख का धुँधलापन, मन पर गहरी-गहरी छाया
मुझको शायद मेरी आत्मा नें आवाज़ कहीं से दी है!
सुभाष की मृत्यु पर
दूर देश में किसी विदेशी गगन खंड के नीचे
सोये होगे तुम किरनों के तीरों की शैय्या पर
मानवता के तरुण रक्त से लिखा संदेशा पाकर
मृत्यु देवताओं ने होंगे प्राण तुम्हारे खींचे
प्राण तुम्हारे धूमकेतु से चीर गगन पट झीना
जिस दिन पहुंचे होंगे देवलोक की सीमाओं पर
अमर हो गई होगी आसन से मौत मूर्च्छिता होकर
और फट गया होगा ईश्वर के मरघट का सीना
और देवताओं ने ले कर ध्रुव तारों की टेक –
छिड़के होंगे तुम पर तरुनाई के खूनी फूल
खुद ईश्वर ने चीर अंगूठा अपनी सत्ता भूल
उठ कर स्वयं किया होगा विद्रोही का अभिषेक
किंतु स्वर्ग से असंतुष्ट तुम, यह स्वागत का शोर
धीमे-धीमे जबकि पड़ गया होगा बिलकुल शांत
और रह गया होगा जब वह स्वर्ग देश
खोल कफ़न ताका होगा तुमने भारत का भोर।
खारे आँसू से धुले गाल
खारे आँसू से धुले गाल
रूखे हलके अधखुले बाल,
बालों में अजब सुनहरापन,
झरती ज्यों रेशम की किरनें,
संझा की बदरी से छन-छन !
मिसरी के होठों पर सूखी किन अरमानों की विकल प्यास !
तुम कितनी सुन्दर लगती हो जब तुम हो जाती हो उदास !
भँवरों की पाँतें उतर-उतर कानों में
झुककर गुनगुनकर हैं पूछ रहीं-‘क्या बात सखी ?
उन्मन पलकों की कोरों में क्यों दबी ढँकी बरसात सखी ?
चम्पई वक्ष को छूकर क्यों उड़ जाती केसर की उसाँस ?
तुम कितनी सुन्दर लगती हो
ज्यों किसी गुलाबी दुनिया में सूने खँडहर के आसपास
मदभरी चाँदनी जगती हो !
क्या थी Dharamveer Bharti की गुनाहों के देवता की कहानी
इनकी कहानियां भी बहुत प्रसिद्ध हुई थी जिसमें से एक थी गुनाहों का देवता। यह कहानी युवाओं के लिए सबसे दुखद प्रेम कहानियों में से एक है। आज भी युवा इसको उतने ही चाव से पढ़ते है जितने चाव से इसको शुरू में पढ़ा जाता था। गुनाहों का देवता साल 1959 में प्रकाशित हुई थी।
इस कहानी के चार मुख्य किरदार है- चंदर, सुधा, बिनती और पम्मी। बिनती और पम्मी को इसमें चंदर की दो दिवानियों के रुप में पेश किया गया है। इस कहानी में चंदर, सुधा के पिता का सबसे प्रिय छात्र था। वो जब चाहे घर में आ-जा सकता था, उसी दौरान न जाने कब सुधा चंदर को दिल दे बैठी थी। पर ये कहानी आज के प्रेम कहानियों से बिल्कुल अलग थी। सुधा चंदर को हमेशा भगवान के जैसा पुजती थी।
चंदर भी सुधा से प्यार तो करता था लेकिन उसके पिता के एहसान के कारण सुधा से अपनी मन की बात नहीं कह पाया। और अंत में सुधा की शादी कहीं और हो जाती है। जिसके बाद दोनों ही बिछड़न के दर्द के साथ जिंदगी बिताने को मजबुर हो जाते है और चंदर हमेशा के लिए सुधा का भगवान बनकर ही रह जाता है, जिसे हम चाह तो सकते है पर पा नहीं सकते।
इसके बाद पम्मी का किरदार आता है जो तलाकशुदा है पर फिर भी चंदर से आकर्षित हो जाती है। हालांकी, वो एक एंग्लो-इंडियन है पर वो फिर भी चंदर के साथ रहना चाहती है। इसमें धर्मवीर भारती ने पम्मी और चंदर के माध्यम से महिला और पुरूष के रिश्ते को बयां किया है लेकिन इसमें कहीं भी आपको अश्लीलता की दुर्गंध नहीं मिलेगी।
अंत में आती है बिनती, जो की चंदर की जीवनसाथी बनती है। बिनती को इस बात का पता है कि चंदर ने सुधा और पम्मी दोनों से अपना दिल लगा के दुख ही पाया है तब भी वो चंदर का साथ देती है। इस कहानी की आखिरी लाइनें बिनती के जज्बातों को बताती है, इसकी आखिरी लाइनें कुछ इस तरह है, “सितारे टूट चुके थे, तूफान खत्म हो चुका था, नाव किनारे पर आकर लग गयी थी, मल्लाह को चुपचाप रुपये देकर बिनती का हाथ थामकर चंदर ठोस धरती पर उतर पड़ा। मुर्दा चाँदनी में दोनों छायाएँ मिलती-जुलती हुई चल दी। गंगा की लहरों में बहता हुआ राख का साँप टूट-फूट कर बिखर चुका था और नदी फिर उसी तरह बहने लगी थी जैसे कभी कुछ हुआ ही न हो।
यानी सब कुछ जानते-समझते हुए भी बिनती इस तरह चंदर का साथ दे रही थी मानो जैसे कुछ हुआ ही न हो।
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