28 जून 1921 को आंध्र प्रदेश के करीमनगर में जन्मे पामुलापति वेंकट नरसिंह राव (पी. वी नरसिम्हा राव) को आज देश उनकी 18वीं पुण्यतिथि पर नमन कर रहा है। हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय, मुंबई विश्वविद्यालय एवं नागपुर विश्वविद्यालय से अपनी पढ़ाई पूरी करने वाले पी. वी. नरसिम्हा राव (PV Narasimha Rao) ने 21 जून 1991 से लेकर 16 मई 1996 तक देश के प्रधान मंत्री (Prime Minister) पद की कमान संभाली थी।
कैसे बने थे PV Narasimha Rao पीएम?
2 दिसंबर 1991 को तमिलनाडु के श्रीपेरंबदूर में हुई राजीव गांधी की हत्या के 18 घंटे बाद दिल्ली के 24 अकबर रोड़ स्थित कांग्रेस मुख्यालय में पार्टी के दिग्गज पदाधिकारियों की बैठक हुई। बैठक में कांग्रेस कार्य समिति के 12 सदस्य, दो स्थाई सदस्यों के अलावा चार विशेष आमंत्रित सदस्यों ने भी हिस्सा लिया। बैठक मे आदरांजलि स्वरूप राजीव गांधी के लिए जगह को खाली छोड़ दिया गया था। कोई अन्य वरिष्ठतम न होने के कारण नरसिम्हा राव (PV Narasimha Rao) को ही इस बैठक की अध्यक्षता सौंपी गई। मध्य प्रदेश से आने वाले कद्दावर नेता अर्जुन सिंह, महाराष्ट्र की राजनीति के क्षत्रप शरद पवार, डॉ. शंकरदयाल शर्मा (बाद मे राष्ट्रपति बने) के अलावा मध्य प्रदेश की ग्वालियर रियासत के महाराज माधवराव सिंधिया सहित कोई आधा दर्जन प्रधान मंत्री पद के दावेदार के बीच नरसिम्हा राव को पीएम पद के लिए चुना गया।
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नरसिम्हा राव का लंबा सियासी सफर
India के इतिहास में अगर हम आकस्मिक या अप्रत्याशित रूप से बनाए गए प्रधानमंत्रियों की बात करें तो सबसे पहले पीवी नरसिम्हा राव का नाम आता है। लंबे सियासी अनुभव वाले राजनीतिज्ञ नरसिम्हा राव ने देश के लिए कई महत्वपूर्ण काम किये थे। 1991 में देश की सत्ता संभालने के बाद से उन्होंने देश में राजनीतिक स्थिरता को स्थापित करने के लिए काफी काम किया इसके साथ ही राजीव गांधी की हत्या के बाद नेतृत्व को लेकर डगमगाती कांग्रेस को भी सहारा दिया। लेकिन राव ने जो सबसे बड़ा संदेश दिया वो ये था कि नेहरू-गांधी परिवारों के बगैर भी कांग्रेस को चलाया जा सकता है।
नरसिम्हा राव ने देश में आर्थिक सुधारों (Economic Reforms) को लेकर विशेष जोर दिया इसके साथ ही 1991 में सोवियत संघ के बिखरने के बाद हुई शीत युद्ध की समाप्ति के बाद से नये विश्व में भारत को विशेष पहचान और स्थान दिलाया। राव ने न सिर्फ अपना 5 साल के कार्यकाल को पूरा किया बल्कि अपनी नीतियों के जरिये उन्होंने देश को एक नई दिशा भी दी।
पेशे से कृषि विशेषज्ञ एवं वकील नरसिम्हा राव आंध्र प्रदेश (Andhra Pradesh) सरकार में 1962 से 1964 तक कानून एवं सूचना मंत्री, 1964 से 1967 तक कानून एवं विधि मंत्री, 1967 में स्वास्थ्य एवं चिकित्सा मंत्री के अलावा 1968 से 1971 तक शिक्षा मंत्री रहे। नौ साल तक अलग-अलग मंत्रालय संभालने के बाद 1971 से 1973 तक राव ने आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री की कुर्सी को भी संभाला। राव 1975 से 1976 तक अखिल भारतीय कांग्रेस समिति (AICC) के महासचिव भी रहे।
राव 1957 से 1977 तक 20 साल आंध्र प्रदेश विधान सभा के सदस्य रहे इसके बाद 1977 के लोकसभा चुनाव से उन्होंने केंद्र की राजनीति में कदम रखा इसके बाद दिसंबर 1984 में हुए लोकसभा चुनाव में रामटेक से लोकसभा चुनाव जीतकर दूसरी बार संसद पहुंचे।
14 जनवरी 1980 को राव को मंत्रिमंडल में शामिल किया गया और उन्हें विदेश मंत्री बनाया गया जिस पद पर वो 18 जुलाई 1984 तक रहे। इसके बाद 19 जुलाई 1984 से 31 दिसंबर 1984 तक उन्होंने देश के गृह मंत्री के रूप में तो वहीं 31 दिसंबर 1984 से 25 सितम्बर 1985 तक रक्षा मंत्री का पदभार संभाला इसके अलावा उन्होंने योजना मंत्रालय के साथ-साथ मानव संसाधन विकास (इस समय शिक्षा मंत्रालय) मंत्रालय का पदभार भी संभाला।
राव के आर्थिक सुधार जिन्होंने बदल दी देश की तकदीर
राव ने जो देश के लिए जो सबसे महत्वपूर्ण कार्य किए उनमें आर्थिक सुधारों को सबसे उपर रखा जाता है। अपने प्रधानमंत्रित्व काल में राव ने बड़े अर्थशास्त्री (Economist) और राजनीतिक अनुभव न रखने वाले डॉ। मनमोहन सिंह को वित्त मंत्रालय का जिम्मा सौंपा इसके साथ ही उन्हें आर्थिक सुधारों के लिए एक सकारात्मक वातावरण को तैयार किया। वह भी तब, जब मनमोहन सिंह को राजनीति का अनुभव नहीं था। राव ने मनमोहन सिंह को खुली छूट दी कि आर्थिक सुधारों के राह मे जितनी भी बाधाएं हैं उनको वे बगैर रोक टोक के हटाते चलें। नरसिम्हा राव द्वारा उठाये जा रहे आर्थिक कदमों से देश की अर्थव्यवस्था (Economy)में बड़े बदलावों का दौर भी शुरू हुआ।
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राव की साहित्य में रूचि
प्रधान मंत्री कार्यालय द्वारा जारी की गई उनकी प्रोफाईल के अनुसार नरसिम्हा राव संगीत, सिनेमा एवं नाटकशाला में विशेष रुचि रखते थे। इन सबके अलावा उनका भारतीय दर्शन एवं संस्कृति, कथा साहित्य एवं राजनीतिक टिप्पणी लिखने, भाषाएं सीखने के साथ-साथ तेलुगू एवं हिंदी में कविताएं लिखने एवं साहित्य में उनकी गहरी रुचि थी। राव ने स्वर्गीय विश्वनाथ सत्यनारायण के प्रसिद्ध तेलुगु उपन्यास ‘वेई पदागालू’ के हिंदी अनुवाद ‘सहस्रफन’ एवं केन्द्रीय साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित स्वर्गीय हरि नारायण आप्टे के प्रसिद्ध मराठी उपन्यास “पान लक्षत कोन घेटो” के तेलुगू अनुवाद ‘अंबाला जीवितम’ को भी प्रकाशित किया।
राव ने कई प्रमुख पुस्तकों का मराठी से तेलुगू एवं तेलुगु से हिंदी में अनुवाद किया इसके अलावा विभिन्न पत्रिकाओं में कई लेख एक उपनाम के अन्दर प्रकाशित किया। उन्होंने राजनीतिक मामलों से जुड़े हुए विषयों को लेकर अमेरिका और पश्चिम जर्मनी के कई विश्वविद्यालयों में व्याख्यान भी दिया।
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कैसा रहा मंत्री के रूप में कार्यकाल?
विदेश मंत्री के कार्यकाल के दौरान फरवरी 1981 में हुए गुट निरपेक्ष देशों के विदेश मंत्रियों के सम्मेलन में उनकी भूमिका के लिए राव की काफी प्रशंसा की गई थी। राव ने अंतरराष्ट्रीय आर्थिकी से जुड़े हुए मामलों में व्यक्तिगत रूप से गहरी रुचि दिखाई थी। वर्ष 1982 और 1983 भारत और भारत की विदेश नीति के लिए काफी महत्वपूर्ण वर्ष थें। इस दौरान खाड़ी युद्ध चल रहा था तो वहीं गुट निरपेक्ष आंदोलन का सातवां सम्मलेन भारत में आयोजित किया जा रहा था जिसकी अध्यक्षता प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने की थी।
राव विशेष गुट निरपेक्ष मिशन के नेता भी रहे जिसने दशकों से चले आ रहे फिलीस्तीनी मुक्ति आन्दोलन को सुलझाने के लिए नवंबर 1983 में कई पश्चिम एशियाई देशों का दौरा किया था।
कई भाषाओं के जानकार एवं विद्वान राव को देश की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खासा करीब माना जाता था। गांधी ने आंध प्रदेश के उस समय के बड़े नेताओं एम चेन्ना रेड्डी, ब्रह्मानंद रेड्डी और विजय भास्कर रेड्डी के विरोध को नकारते हुए राव को कई बड़े महत्वपूर्ण काम सौंपे। कई रिपोर्टों में इस बार में उल्लेख किया जाता है कि राव उन कुछ लोगों में शामिल थे जिनको देश की प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी के निवास में सीधे एंट्री दी जाती थी। इंदिरा गांधी के बाद प्रधान मंत्री बने राजीव गांधी भी राव को एक बड़े नेता के तौर पर देखते थे। गांधी परिवार से करीबी के बावजूद कांग्रेस के कई दिग्गज नेता उन्हें नुकसान न पहुंचाने वाले साथी के अलावा काम चलाऊ व्यवस्था के तहत लाये गये नेता या यूं कहे कि ऐसे नेता के तौर पर देखते जो जल्द ही रिटायर होने वाला है।
दिल्ली मे ली अंतिम सांस लेकिन दिल्ली में नहीं हो पाया अंतिम संस्कार
साल 2004 में केंद्र में सोनिया गांधी के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (UPA) की सरकार बनी और देश की सत्ता संभाली मनमोहन सिंह ने। देश में सत्ता परिवर्तन होने का आठ महीने के बाद 23 दिसंबर 2004 को पी.वी. नरसिम्हा राव ने नई दिल्ली के AIIMS अस्पताल में अंतिम सांस ली। उन दिनों एकांत, बीमारी के साथ कई और समस्याओं से जूझ रहे राव ने करीब 11 बजे एम्स में आखिरी सांस ली जिसके बाद शव को करीब ढाई बजे उनके आवास 9 मोती लाल नेहरू मार्ग लाया गया। उस समय उनके घर पर चर्चित आध्यात्मिक गुरु चंद्रास्वामी के अलावा राव के 8 बेटे-बेटियों के अलावा परिवार के अन्य लोग मौजूद थे।
अंतिम संस्कार को लेकर सियासत?
शव के घर पहुंचने के बाद तत्कालीन गृह मंत्री शिवराज पाटिल ने राव के छोटे बेटे प्रभाकरा को सुझाव दिया कि राव का अंतिम संस्कार हैदराबाद में किया जाए न की दिल्ली में। इसके पीछे वजह बताई गई कि पीएम बनने से पहले राव आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री भी रह चुके थे। लेकिन परिवार के लोग ने राव के अंतिम संस्कार को दिल्ली में ही करने पर अड़े रहे।
इसके थोड़ी देर बाद ही एक और केंद्रीय मंत्री गुलाब नबी आजाद भी राव के घर पहुंचे और उन्होंने भी परिवार से शव को हैदराबाद ले जाने की अपील की। इसी बीच राव के बेटे प्रभाकरा को आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता वाईएस राजशेखर रेड्डी ने फोन कर संवेदनाएं व्यक्त करते हुए कहा कि मैं दिल्ली पहुंच आ रहा हूं। हम शव को हैदराबाद लाएंगे और यहां पूरे राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया जाएगा।
अंतिम संस्कार को लेकर चल रही उहापोह की स्थिति के बीच शाम 6.30 बजे सोनिया गांधी, राव के घर पहुंची। उनके साथ प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह के अलावा बड़े कांग्रेसी नेता प्रणब मुखर्जी (बाद में राष्ट्रपति भी बने) भी थे। कुछ पल मौन धारण करने के बाद मनमोहन सिंह (नरसिम्हा राव ने ही वित्त मंत्री बनाया था) ने राव के लड़के प्रभाकरा से पूछा कि, आप लोगों ने क्या सोचा (अंतिम संस्कार के बारे में) है? ये लोग कह रहे हैं कि अंतिम संस्कार हैदराबाद में होना चाहिए’। प्रभाकरा ने कहा, ‘यह (दिल्ली) उनकी कर्मभूमि थी। आप अपने कैबिनेट सहयोगियों को मनाइये की इनका अंति अंतिम संस्कार यहीं किया जाए।
इसी बीच आंध्र प्रदेश के सीएम राजशेखर रेड्डी भी राव के घर पहुंच चुके थे और वह परिवार को मनाने में जुट थे। रेड्डी ने कहा कि, ‘आंध्र प्रदेश में हमारी सरकार है। भरोसा किजिए, पूरे सम्मान के साथ अंतिम संस्कार होगा। साथ ही भव्य मेमोरियल भी बनाया जायेगा. इसके बाद परिवार थोड़ा नरम पड़ा, लेकिन उन्होंने सरकार से उम्मीद थी कि वह दिल्ली में राव का समारक बनवाने का भरोसा दे। जिसको लेकर वहां मौजूद कांग्रेस नेताओं ने तत्काल हामी भर दी।
24 दिसंबर को गृह मंत्री शिवराज पाटिल ने प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह (Manmohan Singh) को राव के परिवार की समारक वाली इच्छा के बारे में तो सिंह ने कहा कि, ‘कोई दिक्कत नहीं है। हम इसे पूरा कर देंगे’।
नहीं खुला कांग्रेस के मुख्यालय का दरवाजा
इसके साथ ही 24 दिसंबर 2004 को तिरंगे में लिपटी राव की बॉडी को एक गन कैरिज में रखकर एयरपोर्ट ले जाया जाने लगा। एयरपोर्ट ले जाते वक्त 24 अकबर रोड़ (कांग्रेस मुख्यालय) का पता भी रास्ते में ही पड़ता था जो नरसिम्हा राव की 20 साल से अधिक की केंद्र की सियासी पारी का केंद्र बिंदु हुआ करता था। राव के परिवार ने तय किया कि एयरपोर्ट ले जाने से पहले उनके शव को कुछ समय के लिए Congress पार्टी मुख्यालय में रखा जाए ताकि आम कार्यकर्ता शव के दर्शन कर सकें, लेकिन पार्टी मुख्यालय का गेट बंद था। वहां कांग्रेस के तमाम नेता मौजूद थे, लेकिन सब चुप्पी साधे हुए थे।
करीब आधे घंटे तक शव को ले जा रही तोप गाड़ी 24 अकबर रोड़ के बाहर खड़ी रही लेकिन किसी ने गेट नहीं खोला। राव को लेकर विनय सीतापति द्वारा लिखी गई किताब ‘द हाफ लायन’ में सीतापति लिखते हैं कि जब राव के एक दोस्त ने एक कांग्रेस नेता से गेट खोलने के लिए कहा तो उन्होंने कहा, ‘गेट नहीं खुलता है’। वहीं पीएम मनमोहन सिंह ने कहा कि उन्हें इस बात की कोई जानकारी ही नहीं है। इसके बाद राव के शव को हैदराबाद ले जाया गया जहां उनका अंतिम संस्कार हुआ। सीतापति अपनी किताब में ये भी लिखते हैं, राव के बेटे प्रभाकरा बताया कि “हमें महसूस हुआ कि सोनिया जी नहीं चाहती थीं कि हमारे पिता का अंतिम संस्कार दिल्ली में हो। इसके अलावा वह यह भी नहीं चाहती थीं कि यहां उनका समारक बनाया जाये।
राव ने इस बात को भी स्वीकार किया था कि दिसंबर 1992 में हुए बाबरी मस्जिद विध्वंस ने उनके सुनहरे राजनीतिक करियर को तबाह कर के रख दिया।
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