नीति आयोग के सदस्य विवेक देबरॉय ने कबूतरों के दड़बे में बिल्ली छोड़ दी है। कई किसान नेता और ड्राइंग रुम नेता बौखला गए हैं। वे कह रहे हैं कि यदि किसानों पर आयकर लगाया गया तो देश में बगावत हो जाएगी। बगावत हो या न हो, नेताओं के वोट की मंडियां जरुर लुट सकती हैं। हमारे वित्तमंत्री अरुण जेटली ने अपने मुंह पर संविधान का दुशाला डाल लिया है और कह दिया है कि खेती तो राज्य का विषय है। केंद्र सरकार उस पर कर लगा ही नहीं सकती। सच बात तो यह है कि हिंदुस्तान का औसत किसान तो आयकर की सीमा में ही नहीं आता। भारत के ज्यादातर किसान तो मजदूर ही हैं।
नौ करोड़ किसान परिवारों की औसत आय 80 हजार रुपए प्रति परिवार भी नहीं है। उन पर आप क्या खाक टैक्स लगाएंगे? उनकी प्रति व्यक्ति आय 20 हजार रु. साल भी नहीं है। टैक्स की आम छूट तो दो-ढाई लाख रु. तक है। जिनकी खेती पर टैक्स लगाया जाना चाहिए, वे दो तरह के लोग हैं। एक तो जिनके पास 50 एकड़ से भी ज्यादा जमीन है और जिनकी आमदनी कम से कम 50 लाख या एक करोड़ रु. सालाना है। दूसरे किसान वे हैं, जो किसान ही नहीं हैं। उन्होंने किसानों का मुखौटा चढ़ा रखा है। वे या तो फैंसी फार्म हाउसों के अरबपति-खरबपति मालिक हैं या फिर बड़ी-बड़ी ट्रैक्टर सिंचाई यंत्र, बीज और खाद कंपनियों के मालिक हैं, जो हर साल करोड़ों-अरबों की अपनी कमाई को कृषि-आय बताकर बच निकलते हैं।
यदि विवेक देबराय ने इन लोगों पर टैक्स लगाने की सलाह दी है तो सरकार को उसे सिर माथे पर रखना चाहिए।यह टैक्स-चोरी और काले-धन का बड़ा स्त्रोत है। इस स्त्रोत को निचोड़ने से जो अरबों-खरबों रु. मिलेगा, उससे देश के करोड़ों किसानों को सस्ते बीज, सस्ती खाद, सस्ती बिजली और सस्ते फसल बीमा की सुविधाएं देकर सरकार उनका भला कर सकती है लेकिन नेता लोग ऐसे कदम उठाने से परहेज़ करते हैं क्योंकि धन्ना-सेठों और इन बड़ी कंपनियों से मिलने वाली नियमित नगद नारायण की सुविधा में बाधा पड़ जाती है। इन काले धनवाले ‘किसानों’ पर कौन नेता हाथ डाल सकते हैं?
डा. वेद प्रताप वैदिक
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