30 अगस्त 2022 को सोवियत संघ के अंतिम नेता मिखाइल गोर्बाचेव (Mikhail Gorbachev) का 91 वर्ष की आयु में रूस की राजधानी मास्को में निधन हो गया. 25 दिसंबर 1991 को मिखाइल गोर्बाचेव ने सोवियत संघ के राष्ट्रपति का पद त्याग दिया था.

सोवियत संघ के आखिरी राष्ट्रपति रहे मिखाइल गोर्बाचेव के अंतिम संस्कार में रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन शामिल नहीं होंगे. पुतिन के दफ्तर से जारी एक वक्तव्य में बताया गया है कि “व्लादिमीर पुतिन इसलिए उनकी अंत्येष्टि में नहीं जा पाएंगे क्योंकि उनको पहले से निर्धारित कुछ कार्यक्रमों में हिस्सा लेना है”. लेकिन कुछ लोगों का इसके पिछे मत है कि पुतिन मिखाइल गोर्बाचेव को सोवियत संघ के विघटन को न रोक पाने का जिम्मेदार मानते हैं.
गोर्बाचेव (Mikhail Gorbachev) को आधुनिक रूस बनाने का श्रेय दिया जाता है, लेकिन इसके साथ ही उनको 26 दिसंबर 1991 में हुए सोवियत संघ के 15 देशों में विघटन के लिए भी जिम्मेदार माना जाता है.

सोवियत संघ के विघटन के करीब 25 साल बाद गोर्बाचेव ने एक इंटरव्यू कहा था कि उन्होंने सोवियत संघ को एक साथ रखने की कोशिश के लिए व्यापक स्तर पर बल प्रयोग करने का विचार इसलिए नहीं किया, क्योंकि उन्हें परमाणु संपन्न देश में अराजकता फैलने की आशंका थी.
गोर्बाचेव ने 1996 में राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ा लेकिन वह मजाक का पात्र बन गए और उन्हें पांच फीसदी से भी कम वोट मिले. गोर्बाचेव ने अपने पूर्ववर्ती जोसेफ स्टालिन की नीतियों में बदलाव के साथ लगभग पांच दशकों तक चले शीत युद्ध के दौर को खत्म करने पर काम किया.
अक्टूबर 1917 की रूसी क्रांति की हिंसक उथल-पुथल से उभरकर, सोवियत संघ एक शक्तिशाली शक्ति थी, जो 20वीं शताब्दी की दो महान शक्तियों नाजी जर्मनी और संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ आमने-सामने जाने में सक्षम थी.
जीवन
2 मार्च 1931 को दक्षिणी रूस के दक्षिण में स्थित स्टेवरोपोल क्षेत्र में जन्मे मिखाइल सर्गेईविच गोर्बाचेव (Mikhail Gorbachev) ने 1955 में अपने कॉलेज के दिनों में एक युवा नेता के रूप में सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हुए, और स्टालिन की मृत्यु के बाद वे निकिता ख्रुश्चेव के स्टालिन द्वारा लागू नीतियों में सुधार के प्रबल समर्थक बने.
गोर्बाचेव को वर्ष 1970 में स्टेवरोपोल क्षेत्रीय समिति के प्रथम पार्टी सचिव के रूप में चुना गया था. वर्ष 1985 में सत्तारूढ़ परिषद पोलित ब्यूरो के 54 वर्षीय सर्वाधिक युवा सदस्य गोर्बाचेव को सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव के रूप में चुना गया, अगर दूसरे शब्दों में कहें तो सोवियत सरकार के वास्तविक शासक के रूप में चुना गया था.
उपलब्धियां
गोर्बाचेव ने ग्लासनोस्त (खुलेपन) और पेरेस्त्रोइका (परिवर्तन) (Glasnost and Perestroika) की अवधारणाओं को पेश किया, जिसने भाषण एवं प्रेस की स्वतंत्रता और अर्थव्यवस्था के आर्थिक विस्तार में मदद की जिससे आम नागरिकों के जीवन में सुधार आया.
पेरेस्त्रोइका का अर्थ है- “पुनर्गठन” है, इसके तहत सोवियत संघ की साम्यवादी अर्थव्यवस्था और राजनीतिक व्यवस्था में बाजार आधारित अर्थव्यवस्था की कुछ विशेषताओं को शामिल किया गया. इसके परिणामस्वरूप सोवियत सरकार द्वारा एकतरफा लिये जाने वाले वित्तीय निर्णयों का भी विकेंद्रीकरण हुआ.
ग्लासनोस्त का अर्थ है- “खुलापन”, विशेष रूप से सूचनाओं के संदर्भ में पारदर्शिता, इसी क्रम में सोवियत संघ का लोकतंत्रीकरण शुरू हुआ. ग्लासनोस्त को 1986 के चेरनोबिल परमाणु आपदा (Chernobyl Nuclear Disaster) के बाद आए आर्थिक झटकों से उबरने के लिए बनाया गया था. गोर्बाचेव को ग्लासनोस्त (खुलेपन) और पेरेस्त्रोइका (परिवर्तन) (Glasnost and Perestroika) के कारण पश्चिम देशों में भी खासा पसंद किया जाता है.
हथियारों की कमी
गोर्बाचेव ने दो विश्व युद्ध (1914-1918 और 1939-45) के बाद से यूरोप को विभाजित करने वाले मुद्दों का समाधान करने, जर्मनी के एकीकरण (1990 में) एवं संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ हथियारों में कमी (1987 में समझौता) के लिये समझौते कर पश्चिमी शक्तियों के साथ साझेदारी की.

1945 में समाप्त हुए द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से ही सोवियत संघ द्वारा स्वयं और उसके आश्रित पूर्वी एवं मध्य यूरोपीय सहयोगियों को पश्चिम और अन्य गैर-साम्यवादी देशों के साथ मुक्त संपर्क का अभाव ही प्रमुख राजनीतिक, सैन्य और वैचारिक अवरोध था.
शीत युद्ध की समाप्ति
1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद शीत युद्ध लगभग समाप्त हो गया. शीत युद्ध को समाप्त करने का श्रेय भी गोर्बाचेव को दिया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप सोवियत संघ का विघटन होकर वो 15 देशों में बंट गया था.
नोबेल शांति पुरुस्कार
दो बड़ी वैश्विक शक्तिओं अमेरिका और सोवियत संघ के बीच 7 दशक लंबे चले शीत युद्ध को समाप्त करने के उनके प्रयासों के लिये गोर्बाचेव को वर्ष 1990 में नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था.

भारत के साथ संबंध
सोवियत संघ के राष्ट्रपति के तौर पर गोर्बाचेव ने दो बार वर्ष 1986 और वर्ष 1988 में भारत की यात्रा की.
गोर्बाचेव का मुख्य उद्देश्य यूरोप में जारी अपनी निरस्त्रीकरण की पहल को एशिया तक विस्तारित करने के साथ-साथ भारतीय सहयोग को भी सुनिश्चित करना था.
1985 में सोवियत संघ के प्रमुख का पदभार संभालने के बाद 1986 में हुई गोर्बाचेव की भारत यात्रा गैर-वारसा संधि वाले देश की पहली यात्रा थी.
तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने गोर्बाचेव को “शांति के धर्मयोद्धा” (Crusader for peace) की उपाधि से सम्मानित किया था.

भारतीय यात्रा के दौरान गोर्बाचेव द्वारा भारत की संसद में दिए गए संबोधन को वैश्विक मीडिया में अतिशयोक्तिपूर्ण कवरेज मिली और इसे भारतीय कूटनीति (Diplomacy) के एक उच्च बिंदु के रूप में देखा गया.
शीत युद्ध
शीत युद्ध 1945 में समाप्त हुए द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सोवियत संघ एवं उसके आश्रित देशों (पूर्वी यूरोपीय देश) और संयुक्त राज्य अमेरिका एवं उसके सहयोगी देशों (पश्चिमी यूरोपीय देश) के बीच भू-राजनीतिक तनाव (Geopolitical Tensions) की अवधि (1945-1991) को कहा जाता है. कुछ विद्वान शीत युद्ध का दौर 1947 से 1991 को भी मानते हैं.
शीत युद्ध में ‘शीत’ (Cold) शब्द का प्रयोग इसलिये किया जाता है क्योंकि 5 दशक तक चली इस तनातनी में दोनों पक्षों के बीच प्रत्यक्ष रूप से बड़े पैमाने पर कोई युद्ध नहीं हुआ था.
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद कुछ राष्ट्रों को छोड़कर विश्वभर के देश दो महाशक्तियों – सोवियत संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका के वर्चस्व वाले दो शक्ति समूहों में बंट गये थे।
शीत युद्ध पूंजीवादी संयुक्त राज्य अमेरिका और साम्यवादी सोवियत संघ के बीच एक वैचारिक युद्ध था जिसमें दोनों महाशक्तियां अपने-अपने समूह के देशों के साथ जुड़ी हुई थीं.
शीत युद्ध शब्द का पहली बार प्रयोग अंग्रेजी लेखक जॉर्ज ऑरवेल ने 9 अक्टूबर 1945 में प्रकाशित अपने एक लेख “You and the Atomic Bomb” में किया था.
शीत युद्ध सहयोगी देशों (Allied Countries), जिसमें अमेरिका के नेतृत्व में यूनाइटेड किंगडम, फ्रांस आदि शामिल थे, और सोवियत संघ एवं उसके आश्रित देशों (Satellite States) के बीच शुरू हुआ था.
गुटनिरपेक्ष आंदोलन (Non Aligned Movement)
1947 में मिली आजादी के बाद भारत द्वारा तटस्थ नीति को अपनाया गया, जिसके तहत भारत ने किसी भी गुट को साथ अपने को नहीं जोड़ा.
भारतीय विदेश मंत्रालय की वेबसाइट पर उपलब्ध दस्तावेजों के अनुसार गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) की मूल अवधारणा वर्ष 1955 में इंडोनेशिया में आयोजित हुए एशिया-अफ्रीका बांडुंग सम्मेलन में उत्पन्न हुई थी.
पहला गुट निरपेक्ष शिखर सम्मेलन सितंबर 1961 में बेलग्रेड, यूगोस्लाविया में आयोजित किया गया था.
गुटनिरपेक्ष आंदोलन की नीति के तहत भारत ने औपचारिक रूप से खुद को संयुक्त राज्य या सोवियत संघ के साथ न जुड़कर स्वतंत्र या तटस्थ रहने की मांग की.
उस समय ये गुट निरपेक्ष आंदोलन दुनिया में संयुक्त राष्ट्र संघ के बाद सबसे बड़ा देशों का समूह था.
गुट निरपेक्ष आंदोलन का उद्देश्य
वर्ष 1979 के हवाना घोषणा पत्र में गुट निरपेक्ष आंदोलन का उद्देश्य तय किया गया जिसके तहत साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद, नव-उपनिवेशवाद, नस्लवाद और विदेशी अधीनता के सभी रूपों के खिलाफ उनके संघर्ष में “गुटनिरपेक्ष देशों की राष्ट्रीय स्वतंत्रता, संप्रभुता, क्षेत्रीय अखंडता एवं सुरक्षा” सुनिश्चित करना था.
शीत युद्ध के दौर में गुटनिरपेक्ष आंदोलन ने विश्व व्यवस्था को स्थिर करने और शांति एवं सुरक्षा बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई.