Environment: उत्तराखंड में गंगा और यमुना की प्रमुख सहायक नदियां कभी मछलियों की बेहतर प्रजातियों के लिए जानी जाती थीं। जिन्हें देखने के लिए बड़ी संख्या में लोग पहुंचते थे, लेकिन पिछले दो माह से यहां आने वालों को निराशा मिल रही है। लगातार बढ़ते अवैध शिकार और हानिकारक रसायन के इस्तेमाल से यहां पाई जाने वालीं मछलियों की प्रजातियां घटती जा रही हैं। जोकि चिंता का विषय है।
अगर समय रहते इन सभी क्रियाकलापों पर रोक नहीं लगाई गई तो इन सहायक नदियों की जैव विविधता को खतरा पैदा हो सकता है। इसका सीधा असर गंगा और यमुना पर आ सकता है।
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Environment: सामूहिक मछली मेले व्यवस्थित हों – बोले वैज्ञानिक
भारतीय मृदा और जल संरक्षण संस्थान के वैज्ञानिकों ने यमुना की सहायक नदी अगलाड़ में इस बाबत एक अध्ययन किया। इसमें पाया गया कि मछलियां नदी क्षेत्रों के आसपास की बस्तियों में 30 से 40 प्रतिशत तक अपने भोजन की जरूरत को पूरा करती हैं। यहां मछली पकड़ना मुख्य काम है। इसके अलावा देहरादून, पौड़ी, उत्तरकाशी आदि जिलों में बेर्थीगाड़, डुंगरियारागाढ़, कमलगाढ़, मिनसगाढ़ नदियों में भी सामूहिक मछली पकड़ने के मेले होते हैं। ऐसे में वैज्ञानिकों ने इन्हें व्यवस्थित तरीके से मनाने का सुझाव दिया है।
Environment: इन रसायनों के इस्तेमाल से मर रहीं मछलियां
अवैध रूप से मछली पकड़ने के लिए अक्सर शिकारी डायनामाइट, ब्लीचिंग, टिमरू पाउडर के अलावा परंपरागत घन या हथौड़े का इस्तेमाल करते हैं। इनके इस्तेमाल से या तो मछलियां अचेत हो जातीं या मारी जाती हैं। ऐसे में आईसीएआर की टीम पिछले दो दशक से सहायक नदियों में उन स्थानों पर जा रही है, जहां ये काम होता है। लोगों को मछली के शिकार को कम करने को लेकर जागरूक कर रही है।
Environment: ये प्रजातियां हो रहीं लुप्त
सेला, महासीर-धन्सवी, सल्लाड़ी, पगमाच, गारा, लोबियो, गूज, स्नो ट्राउट और रोला।
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