– Shweta Rai
“तन्हा पसंद इंसान हूं मैं, तन्हाई में मुझे मौसिकी की धुन सोचने में अच्छा लगता है।”
Mehdi Hassan birthday:हम बात करने जा रहे हैं मौसिकी के उस महान फनकार की जिसमें मिट्टी की महक तो राजस्थान की थी लेकिन किस्मत ने उन्हें पाकिस्तान की सरजमीं पर ला कर रख दिया। जिन्होनें भारत से हमेशा लगाव रखा और यही वजह थी कि राजस्थान की मिट्टी की खुशबू आज भी उनकी गायकी में सुनायी देती है ।
Mehdi Hassan birthday: गज़लों के शहंशाह मेहदी हसन साहेब का जन्म हिन्दुस्तान की सरज़मी
राजस्थान (Rajasthan) के झुँझुनू (Jhunjhunu) जिले में हैं। इनके घराने के लोग कलावन्त घराने के नाम से मशहूर थे जिनकी कई पीढ़ियाँ सालों से संगीत और साज बजाने क्षेत्र में ही समर्पित थी। ये अपनी 16वीं पीढ़ी के कलावन्त थे। उस वक्त वह बहुत छोटे थे और बचपन से ही इनकी तालीम इनके चाचा इस्माइल खान और वालिद अजीम खान की देखरेख में हुयी। जो खुद ध्रुपद गायकी के महारथी थे। जिनकी देखरेख में मेहदी साहब ने संगीत की सभी बारीकियों को सीखना शुरू कर दिया ।
कहते हैं कि ईश्वर हुनर तो बचपन से ही दे देता हैं लेकिन उसे निखारने और परखने की समझ जौहरी के पास ही होती है । अपने चाचा और वालिद की शागिर्दी में इन्होने संगीत की बेहतरीन तालीम लेनी शुरू कर दी और बहुत छोटी सी उम्र में स्टेज परफॉरमेन्स शुरू कर दी और इनका पहला स्टेज शो पंजाब के फाजिलका में एक बंगले में हुआ । जो आज पंजाब के डिवीज़नल कमीशनर का रेजीडेन्स बन गया है ।यहीं पर उन्होंने अपने बड़े भाई के साथ ध्रुपद और गजल गायकी की शुरूआत की।

Mehdi Hassan:गायकी ही नहीं पहलवानी के भी उस्ताद थे खाँ साहेब…
बहुत कम लोग जानते हैं कि मेहदी हसन साहब पहलवानी भी किया करते थे। पहलवानी में भी इनका कोई जवाब नहीं था। उस वक्त ये गाड़ी को अपने हाथों से उठा लिया करते थे। 3 मन मसली गदा अपने कंधों पर रखकर सीढ़ियों पर सरपट दौड़ जाया करते थे और रियाज के दौरान महज 4-5 घंटे ही सोते थे। लेकिन 1947 में जब देश का बँटवारा हुआ तो न चाहते हुये भी मेंहदी हसन और उनके परिवार को देश छोड़कर जाना पड़ा । इसी के साथ राजस्थान की मिट्टी की वो खुशबू अपनी गायकी में बसा कर वो पाकिस्तान चले गये ।उस वक्त उनकी उम्र महज 20 साल की ही थी और यहीं से उनका संघर्ष शुरू हुआ ।
Mehdi Hassan: मजबूरी और मुफलिसी ने एक गायक को कैसे बनाया मैकेनिक…
बंटवारे के बाद पाकिस्तान (Pakistan) पहुंचे मेंहदी के परिवार को आर्थिक रूप से बुरे हालातों का सामना करना पड़ा था । जिसके कारण उन्होंने वहां खुद की एक साइकिल और स्कूटर रिपेयर की दुकान खोल ली। बाद में इस दुकान को उन्होंने अपने बड़े भाई को संभलाने के लिये दे दी और ख़ुद पाकिस्तान के ही सिन्ध प्रान्त स्थित शख़्खर नगर में गुलाम हसन डीजल इंजन ऑयल कंपनी में करीब छह माह काम किया।
कुछ समय बाद मेंहदी हसन यहां से कार मैकेनिक का काम सीखने बहावलपुर पहुंच गए। यहां उन्हें हर महीने पांच से 6 हजार रुपये की पगार मिलने लगी। इसके बाद उन्होंने एग्रीकल्चर इंजीनियर के रूप सरगोधा में काम किया और फिर यहां से वे कुछ वर्षों बाद वापस संगीत की दुनिया में लौट आए। पाकिस्तान में उन्होंने कई जगह अलग-अलग काम भी किए लेकिन वे संगीत से दूर नहीं हुए। वो सुबह 3 बजे उठकर रियाज़ किया करते थे। इसके साथ ही मेंहदी पहले की तरह ही शारीरिक कसरत भी प्रतिदिन किया करते थे।

Mehdi Hassan:रेत में लिपटकर यूं खेलने लगे जैसे मानो उनका बचपन लौट आया हो…
मेहदी हसन साहेब के लिये उनकी गायकी ईश्वर की उस इबादत की तरह थी जिसमें एक अलग तरह की रूहानियत औऱ सुकून था जिसने सभी को अपना दीवाना बनाया। ध्रुपद, ख्याल गायकी के साथ –साथ राजस्थान के लोक संगीत के समावेश ने उनकी गायकी को जिन सुरों में पिरोया वो अनमोल थे।
1978 मे जब खाँ साहेब भारत आये तो अपने गाँव की मिट्टी उन्हें वहाँ खींच लायी जिससे उन्हें बेहद प्यार था। गजलों के एक कार्यक्रम के लिए जब वे सरकारी मेहमान बनकर जयपुर गये। तो बस उनकी एक ख़्वाहिश थी कि एक बार उस जमीं का दीदार करें जहां उनके पुरखे दफन थे और उन्होंने अपना बचपन बिताया था।
जब वो अपने पैतृक गांव राजस्थान में झुंझुनूं के लूणा गांव में पहुँचे तो उन्होनें सभी गाड़ियों का काफिला रुकवा दिया। वो कार से उतरे। गांव में सड़क किनारे एक टीले पर छोटा-सा मंदिर बना था। उसके पास पड़ी रेत में लिपटकर यूं खेलने लगे जैसे मानो उनका बचपन लौट आया हो। मेहंदी हसन का ये प्यार देखकर वहां खड़े हर शख्स की आंखें नम हो गयी थीं । इस दौरे पर उन्होंने राजस्थान के राज्यपाल से अपने गांव में बिजली पहुंचाने और सड़क बनवाने की मांग की थी। उनके गांव में बिजली तो तीन दिन में पहुंचा दी गई, लेकिन सड़क खुद मेहदी हसन साहेब ने कार्यक्रम में मिली रकम और झुंझुनूं के सेठों से कहकर बनवाई।

ख्याल गायकी के महारथी और गजलों के बादशाह जिनकी आवाज में वो जादू था जिसे जिसने जब भी सुना वो उसी में खो गया । उनकी आवाज में उर्दू का तल्लफुस इतना खूबसूरत था कि कोई नहीं जानता था कि संस्कृत और हिन्दी में ध्रुपद और ख्याल गायकी सीखने वाले मेंहदी हसन साहेब ने उर्दू की कोई तालीम नहीं ली और न ही कभी उनकी गायकी से इस बात का एहसास ही हुआ कि वो बिना तालीम के इतनी अच्छी उर्दू जानते हैं।
इनकी मखमली आवाज़ को सुनकर खुद स्वर साम्राज्ञी लता ये कहने को मजबूर हो गयीं थी कि उनकी आवाज़ में भगवान का वास है। यही नहीं अगर किसी गज़ल गायक की गज़ल सुननी होती थी तो वह मेंहदी हसन साहब की गज़ल को ही सुनना पसंद करती थीं।
मेहदी हसन साहेब ने अपना पहली पेशकश महाराजा बड़ोदा के सामने उस वक्त की । जब वह महज़ 8 साल के थे। इतनी छोटी सी उम्र और उसमें भी इतनी सधी हुई गायकी कोई आसान बात नहीं थी। उन्होंने 40 मिनट तक ख्याल बसंत पंचम पर गाया जिसके बाद वहाँ के महाराजा इतने खुश हुये कि उन्होंने खुश होकर उन्हें एक सोने का कड़ा इनाम में दिया और यही नहीं उन्हें दरबारी गवैये से भी सम्मानित किया गया।
ये खाँ साहब की गायकी ही थी जो लोग उनके मुरीद बनते चले गये। हालाँकि उनकी गायकी की शुरुआत ध्रुपद और ठुमरी से हुई पर बाद में गजल की दुनिया के वो बेताज बादशाह बन गये। उन्होंने गाने के लिए बहुत सारे साजों का कभी इस्तेमाल नहीं किया । वह मात्र एक हारमोनियम और तबले पर ही गाते थे। यही नहीं उन्होंने गज़ल गायकी में शास्त्रीय के साथ-साथ पंजाबी और राजस्थनी लोक गीतों का भी अनोखा मेल किया जो उनकी गज़ल गायकी में एक नयी मिठास और माटी की महक का अहसास दिलाती है।
मेहदी हसन साहेब की शोहरत दूर -दूर तक थी। इनकी गायकी के मुरीद नेपाल के राजा भी थे जो उनकी गज़लों को सुनने के बेहद शौकीन थे और यही वजह थी की उन्होंने मेहदी हसन साहब को अपने दरबार में गज़ल सुनाने के लिये बुलाया लेकिन दरबार में कुछ ऐसा हुआ की वो गाते-गाते खामोश हो गये । आइये आपको बताते हैं कि वो क्या वजह थी कि गज़लो के शहशांह को भी खामोश होना पड़ा ।

Mehdi Hassan birthday:जब गज़लों के शहशांह को भी खामोश होना पड़ा था…
जब मेहदी हसन साहेब नेपाल नरेश के दरबार में गा रहे थे तो अचानक गाते गाते वो खामोश हो गये । इसकी वजह वो खास गज़ल थी। जिसका पहला मिसरा गाने के बाद मेंहदी हसन साहब अगला मिसरा गाना ही भूल गये और वो गज़ल थी ‘जिंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं’’। फिर क्या था अगला मिसरा किसी और ने गाना शुरू कर दिया और ये कोई और नहीं था बल्कि खुद नेपाल नरेश थे।
यही नहीं उनके इस्तकबाल में उन्होंने मेंहदी हसन साहब को 21 तोपों की सलामी भी दी। ऐसी थी खाँ साहब की शोहरत। 1983 में उन्होंने नेपाली में एक एलबम भी रिकॉर्ड किया और यही नहीं उन्हे नेपाल के सबसे बड़े अवार्ड “गोरखा दक्षिण बाहु” से भी सम्मानित किया गया।
आम हो या खास हर एक पर मेंहदी हसन साहब की आवाज का जादू अपना असर इस कद्र दिखाता कि हर कोई उनका ही मुरीद हो जाता था। उनके चाहने वालों की फेहरिस्त काफी लम्बी है इसी में एक नाम महान गायक मन्ना डे जी का भी जुड़ जाता है। कहा जाता है कि एक बार मन्ना दा ने उनकी एक गज़ल सुनी और उस गज़ल को सुनकर वे इतने मुत्तासिर हुये कि उनसे अपने अनुभवों को साझा करने के लिये सात पन्नों का खत तक लिख डाला औऱ वो गजल थी मशहूर शायर अहमद फराज़ साहब की “अबकी हम बिछड़े तो शायद ख्वाबों में मिले” जिसने मन्ना दा को भी अपना दीवाना बना लिया लेकिन और वो कौन था जिसके मुरीद खुद गज़ल के बादशाह मेंहदी हसन साहेब थे ।

गज़ल के बादशाह मेंहदी हसन साहेब को किसने अपना दीवाना बनाया…
ये उस वक्त की बात है जब देश का बँटवारा हो चुका था । सन् 1957 का वो दौर जब खाँ साहब का जीवन मुफलिसी में गुज़र रहा था तो उस वक्त उन्हें कराची में दो गजलें गाने का मौका मिला। ये उनकी जिन्दगी का बेहद अहम पल था और उस वक्त उन्होंने जो दो गज़ले गायी। उससे लोग सुनकर वाह -वाह कह उठे थे और वो दोनों गज़लें उन्होंने तलत महमूद साहब की गायी थी।
पहली गजल थी “एक मैं और बेकसी की शाम” और दूसरी गज़ल थी जिसके गीतकार शकील बदायूंवी और संगीतकार नौशाद साहेब थे जो बाबुल फिल्म से ली गयी थी। वो थी “ हुस्न वालो को दिल न दे”। वहाँ खड़े लोगों को ये गज़ल इतनी पसन्द आयी कि लोग खुश होकर उन पर रुपयों की बारिश करने लगे और इस शो से उन्हें उस वक्त 14000 रुपये मिले जो उस वक्त एक बहुत बड़ी रकम थी।
इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा । खुद खाँ साहेब भी तलत महमूद के दीवाने थे और यहीं नही अपने जीवन में अपनी सफलता का श्रेय वो हमेशा तलत साहब को ही दिया करते थे। वाकई में ये महान कलाकार का दूसरे महान कलाकार के लिये सम्मान था जिसे उन्होंने अपने साक्षात्कार के दौरान हमेशा साझा किया।
जब खाँ साहेब के आँखों से भी आँसू निकल जाया करते थे…
मेहदी हसन साहब की शख्सियत में न केवल अपने फन के लिये वो जुनून था बल्कि उसके प्रति ऐसा लगाव था कि इसके लिये न केवल वे खुदा के शुक्रगुज़ार थे बल्कि उन शायरों की नज़्म का शुक्रिया करना भी नहीं भूलते थे जिनकी कलम को उन्होंने अपनी आवाज़ से नवाज़ा था। बात कुछ सालों पहले 1987 -88 की होगी जब वे मध्य प्रदेश के प्रतिष्ठा प्रसंग लता अलंकरण समारोह में प्रस्तुति देने आये थे।
अपने कार्यक्रम से पहले वे ग्रीन रूम में एक तख्त पर बैठे ध्यान मग्न थे। तकरीबन दस मिनट बाद उनकी आँखों से आँसू बहने लगे। जब आँखे खुली तो वहीं पास बैठे एक व्यक्ति ने पूछा “खाँ साहब आपकी आँखों से आँसू क्यों निकल रहे थे।” तो उन्होंनें कुछ इस तरह से जवाब दिया “दरअसल मैं अपने उस्तादों के याद करने के बाद अपनी सारी गज़लो के शायरों का शुक्रिया अदा कर रहा था कि उनके करिश्माई अल्फाज़ों की वजह से तो मुझे दाद मिलती है। ” ऐसे थे खाँ साहेब …
खाँ साहब ने तो वैसे कई शायरों के कलाम को अपनी सुनहरी आवाज़ से नवाज़ा लेकिन उनकी कुछ गज़लें ऐसी हैं जिसे दुनिया ताउम्र तक याद करती रहेगी। ऐसी ही एक खुबसूरत गज़ल अहमद फराज़ की है जिसे जब मेंहदी हसन साहब ने यमन राग में गाया तो ये गज़ल सारी सरहदों और बंदिशों को तोड़कर एक ग्लोबल गज़ल बन गयी और इस गज़ल ने केवल खाँ साहब को गजल की दुनिया का शहंशाह बना दिया बल्कि अहमद फराज़ को भी एक नया मुकाम दिलाया और वो खूबसूरत गज़ल थी “रंजिश ही सही दिल दुखाने के लिये आ”
मौसिकी के फनकार ने कभी उर्दू की कोई तालीम नहीं ली…
खाँ साहब ने जो भी गजलें गायी बेहद उम्दा उर्दू शायरों की गायीं जिनमें मीर तकी मीर ,गालिब, फैज़, अहमद फाराज, कतील शिफई , हाफिज़ होशियारपुरी जैसे महान शायर थे जिनकी कलाम को उन्होंने अपनी आवाज दी। लेकिन ये बहुत कम लोग जानते हैं कि उन्हें उर्दू नहीं आती थी। इनकी संगीत की तरबियत केवल हिन्दी और संस्कृत में हुई थी।
पाकिस्तान में रहकर उन्होंने थोड़ी बहुत उर्दू सीखी थी और जिस शब्द का मतलब नहीं समझ आता तो वो गिलानी साहब से पूछकर और उसका मतलब समझकर खुबसूरत रागों में पिरोकर उसके भावों को बेहद दिलकश आवाज़ में पेश कर दिया करते थे । खाँ साहेब की उनकी संगीत के प्रति ऐसी इबादत थी कि उनके लफ्जों से कहीं भी ये बयां नही होता कि इनकी तरबियत उर्दू में नही हुयी है। ऐसे मंझे हुये फनकार थे खाँ साहेब।

अगर गज़लों की बात हो और फैज़ अहमद फैज़ की लिखी गज़लों का जिक्र न हो तो खाँ साहब का सफर अधूरा लगता है । साठ के दशक में दोनों के बीच ऐसा रिश्ता बन गया था कि मेहदी हसन के लिये कुछ गज़लें ऐसी मील का पत्थर साबित हुयीं कि न केवल लोगों के दिलों पर राज करती रहीं बल्कि पूरे दक्षिण एशिया में इन गज़लों ने धूम मचा दी मसलन वो गज़ल जो लोगों के दिलों में बसती है “गुलों में रंग भरे बादे नौबहार चले आओ,चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले”
इत्तेफाक देखिये या नसीब की बात कहिये खाँ साहेब की पहली गज़ल भी हिन्दुस्तान के लिये थी और आखिरी गज़ल भी हिन्दुस्तान के लिये ही गायी। जिसमें उन्होंने पहली और आखिरी बार लता मंगेशकर के साथ डूएट गीत गाया। इसकी रिकार्डिंग का किस्सा भी बेहद दिलचस्प है। आइये आपको बताते हैं क्या है वो किस्सा …
मेहदी हसन ने पहली और आखिरी गज़ल भी हिन्दुस्तान के लिये गायी…
मेहदी हसन साहब की आखिरी गज़ल उनके हिन्दुस्तान के प्रति उनके लगाव का ही मुज़ाहिरा करती है कि उन्हें हिन्दुस्तान से कितना लगाव था। अक्टूबर, 2012 में एचएमवी कंपनी ने उनका एक एल्बम ‘सरहदें’ रिलीज किया । खाँ साहेब की आखिरी गजल भी उन्होंने लता मंगेश्कर के साथ गायी।
उस वक्त खाँ साहेब की तबियत नासाज़ रहा करती थी। जिसकी वजह से इस गज़ल की रिकॉर्डिंग 2009 में मेहदी हसन साहब ने पाकिस्तान में रहकर की और उसी ट्रैक को सुनकर लता जी ने 2010 में हिन्दुस्तान में मुंबई में रिकॉर्डिंग की और इसी के साथ ये गज़ल दोनों मुल्कों के लिये यादगार गज़ल बन गई।
कहा ये भी जाता है कि मेहदी हसन साहब ने ये गजलें खुद लता जी के लिये सेलेक्ट की थी कि वे दोनों कभी साथ- साथ गायेंगे लेकिन ऊपर वाले का करम तो देखिये कि आखिरी गज़ल भले ही दोनों ने साथ न गायी हो लेकिन दोनों की गजलें एक साथ आयीं । इस गजल को फऱहत शहज़ाद ने लिखा था और गज़ल थी “तेरा मिलना बहुत अच्छा लगे है”। ये दोनों मुल्कों की महान हस्तियों की आवाज में रिकॉर्ड की गयी आखिरी गज़ल थी। एक अनुमान के मुताबिक खाँ साहेब ने 65 हज़ार से भी ज़्यादा गीत औऱ गज़लें गायीं।
कोई चीज मुझे दुनिया में अच्छी नहीं लगती सिवाय मौसिकी के…
खाँ साहेब आजीवन मौसिकी के लिये समर्पित रहे और यही नहीं जब एक रेडियो इंटरव्यू में उनसे पूछा गया कि “आपके और क्या- क्या शौक हैं” तो वो मुस्कुराने लगे और बोले कि “मेरा कोई शौक नहीं है कोई चीज मुझे दुनिया में अच्छी नहीं लगती सिवाय मौसिकी के ..तन्हा पसंद इंसान हूं मैं, तन्हाई में मुझे मौसिकी की धुन सोचने में अच्छा लगाता है।”
1957 से 1999 तक सक्रिय रहे मेहदी हसन साहेब ने गले के कैंसर के बाद कुछ सालों से गाना लगभग छोड़ दिया था। उनकी अंतिम रिकॉर्डिंग 2010 में सरहदें नाम से आयी। बीमारी के चलते मेंहदी हसन साहब की आवाज चली गई थी। इन्हें इतनी लोकप्रियता मिली कि वो “शहंशाह-ए-गज़ल” के खिताब से नवाज़े गए।13 जून 2012 को बीमारी की वजह से मेहदी हसन साहेब का इन्तकाल हो गया। हालांकि वो जून 2012 से 1 साल पहले इलाज के लिए भारत जाना चाहते थे, लेकिन डॉक्टरों ने उन्हें यात्रा नहीं करने की सलाह दी थी। जिस वजह से वो अपने अन्तिम दिनों में भारत नहीं आ पाये ।

महानायक दिलीप कुमार ने इनका इन्तकाल होने पर कुछ इस तरह से उन्हें याद किया था ,” उनकी आवाज़ खामोश हो गई है लेकिन वह आज भी हमारे कानों में गूंज रही है और गूंजती रहेगी।” तो वहीं बॉलीवुड के शहंशाह अमिताभ बच्चन ने भी इनके इन्तकाल पर ट्वीट करते हुए कहा कि -‘मेहदी हसन के रुख़सत होने के साथ ही गज़ल गायिकी का एक युग समाप्त हो गया है। मेरे जेहन में अब भी उनकी सुंदर यादें और उनसे हुई मुलाकातें शेष रह गई हैं।’
वाकई में शहंशाह- ए-गजल मेहदी हसन साहेब तो आज हमारे बीच में नहीं हैं लेकिन अपनी गज़लों के ज़रिये दुनिया के हर कोने को अपनी मौसिकी से सदा रौशन करते रहेंगे।
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