Raj Kapoor and Shailendra : समाजवाद और समतामूलक समाज के लिए आजादी के बाद भारतीय सिनेमा अपने तरीके से लड़ाई लड़ रहा था। राज कूपर की फिल्में उस दौर में सामंतवाद और जाति-धर्म के बंधनों पर चोट करने में इसलिए सफल रहीं क्योंकि उसमें अपनी जान भर रहे थें राज कपूर के पुश्किन यानी शैलेंद्र।
कुछ लोग जो ज़्यादा जानते हैं, इन्सान को कम पहचानते हैं
ये पूरब है पूरबवाले, हर जान की कीमत जानते हैं
मेहमां जो हमारा होता है, वो जान से प्यारा होता है
ज़्यादा की नहीं लालच हमको, थोड़े में गुज़ारा होता है
साल 1960 में निर्देशक राधू कर्माकर की फिल्म ‘जिस देश में गंगा बहती है’ में गीतों के राजकुमार Shailendra की कलम से निकले इस गीत पर हिंदी सिनेमा के पहले शोमैन Raj Kapoor ने जो अभिनय किया वो अभिनय न होकर उस दौर की सच्चाई को बयां करने वाला मार्मिक दृश्य है।
आजादी के बाद भारतीय सिनेमा अपने तरीके से समाजवाद और समतामूलक समाज के लिए लड़ाई लड़ रहा था। सामंतवाद और जाति-धर्म के बंधनों पर चोट करने वाली राज कूपर की फिल्में उस दौर में इसलिए सफल रहीं क्योंकि उसमें कलम की कूंची चला रहे थे राज कपूर के पुश्किन यानी शैलेंद्र।
मरते दम तक 12 दिसंबर की तारीख राज कपूर की जींदगी में बेहद रहा। इसके दो कारण थे एक तो वो इसी तारीख को पेशावर में पैदा हुए थे दूसरे उनके कविराज शैलेंद्र उनके जन्मदिन पर ही दुनिया को छोड़ गये थे। हम आज दोनों की बात करेंगे कि कैसे दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे थे या फिर दोनों की शख्सियत एक दूसरे के बिना मुकम्मल ही नहीं हो सकती थी।
हिंदी सिनेमा के सबसे बड़े फिल्मी खानदान यानी कपूर खानदान के चश्मे चिराग थे राज कपूर। वहीं पाकिस्तान के रावलपिंडी में पैदा होने वाले बंटवारे की विभिषिका झेलते हुए पहले परिवार के साथ बिहार के आरा जिले के धूसपुर गांव पहुंचे और उसके बाद उत्तर प्रदेश के मथुरा।
एक तरफ राज कपूर ने आंख खोली तो पिता पृथ्वीराज कपूर के कारण उन्हें रंगमंच और अभिनय की दुनिया देखने को मिली तो दूसरी ओर शैलेंद्र फांकाकशी, मुफलिसी, बीमारी और तमाम तरह की मुसिबतों में पले बढ़े। ये कितने आश्चर्य कि बात है कि न कि राज कपूर औऱ शैलेंद्र दोनों पाकिस्तान में पैदा हुए। लेकिन एक का बचपन तब के बंबई में और दूसरे का बिहार-यूपी के कई छोटे-बड़े शहरों में कटा।
जब राज कपूर के पिता 30 के दशक में हिंदी सिनेमा की नींव में अभिनय की ईंट जोड़ रहे थे तब उन्हें भी यह नहीं सोचा होगा कि एक दिन उनका बड़ा लड़का राज कपूर इसपर गौरवशाली सिनेमा की इमारत खड़ी करेगा। साल 1931 में जब फिल्मकार आर्देशिर ईरानी भारत की पहली बोलती फिल्म ‘आलमआरा’ बना रहे थे तो उस फिल्म में राज कपूर के पिता पृथ्वीराज कपूर ने 8 अलग-अलग मेकअप में रोल निभाए थे।
भारत में बोलती सिनेमा का यात्रा के गवाह रहे पृथ्वीराज कपूर के बेटे राज कपूर के भीरत भी सिनोमा को लेकर वही जज्बा था. जिसे उनके पिता भी जीते थे। लेकिन पृथ्वीराज कपूर के अभिनय की समृद्ध परंपरा के बावजूद राज कपूर के लिए हिंदी सिनेमा में खुद को स्थापित करना इतना आसान नहीं था।
हमने कई बार विविध भारती में सुना था, जब पिता पृथ्वीराज ने बेचे राज को कहा ये काम इतना आसान नहीं है, यदि तुम करना ही चाहते हैं तो निचले पायदान से शुरू करो तभी एक दिन अव्वल दर्जे तक पहुंचोगे। राज कपूर ने अपने फिल्मी करियर की शुरूआत की और वो भी बेहद गुस्से वाले निर्देशक केदार शर्मा के साथ।
केदार शर्मा के असिस्टेंटों की लिस्त में राज कपूर सही में सबसे आखिरी यानि दसवें पायदान पर थे और वो भी एक एक क्लैपर ब्वॉय के तौर पर। कई बार तो सेट पर सबके सामने केदार शर्मा राज कपूर को थप्पड़ भी जड़ चुके थे लेकिन इसे लेकर राज कपूर के मन में न तो कभी गुस्सा रहा और न ही अफसोस।
यही से राज कपूर के शो मैन बनने का सिलसिला आरंभ होता है। आजादी के दौर में राज कपूर ने फिल्म निर्माण के क्षेत्र में कदम रखा था। देश टूट कर टुकड़ों में हो चुका था। इधर देश नेहरू के पैरों से खुद को खड़ा करने की कोशिश कर रहा था उधर राज कपूर सिनेमा में इस उथल पुथल भरे माहौल को पर्दे पर उतार रहे थे।
आजादी के दौर में राज कपूर सिनेमा के स्क्रीन पर राजू बनकर भारत की जनता को तरक्की के सपने दिखा रहे थे। घोर निराशा के दौर में राज कपूर अपनी फिल्मों के जरिये नौजवानों के लिए रोशनी की किरण बनकर पर्दे पर अवतरित हुए। राज कपूर सिनेमा के माध्यम से आम आदमी के सपने, शिकस्तों और सफलताओं की कहानी कह रहे थे.
राज कपूर सही मायने में कला के जोहरी थे। माटुंगा की बेहद तंग खोली में ढफली बजाने वाले शैलेंद्र को राज कपूर ने खोजा। सड़कों और जूतों पर गीत लिखने वाले शैलेंद्र सामाजिक व्यवस्था और ऊंची जाति के लोगों के तानों से अजीज ऐसे गीत गढ़े जो सिनेमा को आज भी उसके शीर्ष स्तर पर थामे हुए हैं।
कलम से निकले तरानों ने एक दिन शंकरदास केसरीलाल को हिंदी सिनेमा का बसे बड़ा चितेरा बना दिया औऱ वो शैलेंद्र के नाम से पुकारे गये। शैलेंद्र ने 17 साल की उम्र में अपना पहला गीत लिखा। भारतीय रेलवे में तीसरे दर्जे की नौकरी करने वाले शैलेंद्र के शुरूआती जीवन का एक बड़ा हिस्सा अभाव और गरीबी में बीता। बिहार के आरा में बचपन गुजारने वाले शैलेंद्र पिता की बीमारी के बाद अपने चाचा के साथ मथुरा आ गए।
मथुरा के किशोरीरमण विद्यालय से शैलेंद्र ने मैट्रिक की पढ़ाई पूरी की, लेकिन पढ़ाई के दौरान ही शैलेंद्र को जीवन के एक और, कड़वे अनुभव का सामना करना पड़ा। शैलेंद्र एक बार जब हॉकी खेल रहे थे, तो ऊंची जाति के कुछ युवकों ने उन्हें खेलने से यह कर रोक दिया कि उनके साथ छोटी जाति के लोग नहीं खेल सकते।
इस बात का शैलेंद्र के मन-मस्तिष्क पर बहुत गहरा असर पड़ा। इस बात को सुनकर शैलेंद्र ने हॉकी की स्टिक को वहीं तोड़ दिया और फिर कभी हॉकी नहीं उठाई, लेकिन ये बात शैलेंद्र के कवि मन में कील की तरह धंसी रही।
कवि और कलाकर का मन बहुत ही कोमल और नाजुक होता है। इस घटना ने शैलेंद्र के मन मस्तिष्क को बुरी तरह से झकझोर दिया था। इस घटना से मिले अनुभव को उन्होंने वक्त के साथ रह-रह कर गीतों की शक्ल में बयां किया। तभी वे कहते हैं- ‘होंगे राजे राजकुंवर, हम बिगड़े दिल शहजादे। सिंहासन पर जा बैठे जब जब करें इरादे।’
राजकपूर ने शैलेंद्र के इस तेवर को सबसे पहले पहचाना और उन्हें अपनी फिल्मों में गीत लिखने के लिए ऑफर दिया। पहले तो शैलेंद्र ने ना-नुकुर की लेकिन कहा न गरीबी के कारण अपनी कलम को सिनेमा के नाम के कर दिया। इसे बाद तो शैलेंद्र और राज कपूर की जोड़ी ने हिंदी सिनेमा की न सिर्फ दिशा और दशा बदली बल्कि सिनेमा के नये प्रतिमान की भी स्थापना की।
हिंदी सिनेमा को हर आम ओ खास भारतीय और सात संमदर पार तक पहुंचाने का पूरा शैर्य शैलेंद्र की कलम और राज कपूर के अभिनय को जाता है। ‘मेरा जूता है जापानी’ भारत का पहला ग्लोबल गीत हैं। इस गीत ने भारत और रूस के रिश्तों को एक नई पहचान दी। जिसका असर आज भी दोनों मुल्कों में एक समान है। यही कारण है कि 7-8 दशकों के बाद भी इस गीत का असर रुस में कम नहीं हुआ है।
शैलेंद्र जनवादी कवि थे, इप्टा के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। शैलेंद्र अपनी गीतों के जरिये एक बात को समझाने में पूरी तरह से सफल रहे कि मीडियम चाहे जो हो, जो बात आपको कहनी है, वो आसानी से कही जा सकती है। बस कहने का शऊर होना चाहिए। शैलेंद्र की कलम में यह शऊर लबालब था।
शैलेंद्र ने हिंदी साहित्य के पहले आंचलिक कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु के एक उपन्यास ‘मारे गये गुलफाम’ पर फिल्म ‘तीसरी कसम’ को बनाने का निर्णय लिया। इस फिल्म के लिए शैलेंद्र राज कपूर को लेना चाहते थे। फिल्म को लेकर जब शैलेंद्र राज कपूर से मिले तो, राज कपूर ने उन्हें इस फिल्म को बनाने का ख्याल दिमाग से निकाल देने की सलाह दी। लेकिन शैलेंद्र ने ऐसा करने से इंकार कर दिया।
राज कपूर फिल्म में काम करने के लिए राजी हो गए, लेकिन शैलेंद्र के सामने एक शर्त रख दी। ‘तीसरी कसम’ में काम करने के लिए राज कपूर ने शैलेंद्र के सामने अपने काम की फीस एडवांस में मांगी। राज कपूर उस जमाने में सुपर स्टार की श्रेष्णी के एक्टर थे, शैलेंद्र उनकी फीस अच्छे ढंग से जानते थे।
शैलेंद्र ये भी जानते हैं कि राज कपूर की फीस दे पाना, उनकी क्षमताओं से बाहर है। लेकिन जब शैलेंद्र के सामने एडवांस में अपनी पूरी फीस बताई तो शैलेंद्र के मन में राज कपूर को लेकर सम्मान और भी बढ़ गया है और उन्हें अपनी दोस्ती पर बहुत नाज आया।
फिल्म ‘तीसरी कसम’ के लिए राज कपूर ने एडवांस में अपनी फीस के रूप में सिर्फ एक रूपया ही शैलेंद्र से लिया था। वैसे अगर देखें तो राज कपूर ने अपने जीवन की सर्वश्रेष्ठ एक्टिंग इसी फिल्म में की थी। शैलेंद्र का ढफली से बेहद लगाव था। शैलेंद्र जब भी उदास होते थे तो वे ढफली बजाते थे। एक्टर राज कपूर ने शैलेंद्र के इस ढपली प्रेम को सिनेमा के पर्दे पर खूब प्रयोग किया। कई फिल्मों में राज कपूर ढफली बजाते नजर आए।
शैलेंद्र गंभीर से गंभीर विषय को भी गीत की शक्ल देने में उस्ताद थे। यही बात राज कपूर को सबसे ज्यादा प्रभावित करती थी। एक बार राज कपूर शैलेंद्र को लेकर अपने एक निर्माता निर्देशक मित्र ख्वाजा अहमद अब्बास के पास लेकर गए। वहां उनके मित्र ने एक फिल्म की कहानी सुनाई।
कहानी सुनने के बाद राज कपूर ने शैलेंद्र से कहानी के बारे में पूछा- कवि राज शैलेंद्र कहानी कैसी लगी?, इस बार शैलेंद्र ने पूरी कहानी का निचोड़ एक लाइन में समेट दिया और कहा- ‘आवारा है, पर गर्दिश में आसमान का तारा था।’ इस बात को सुनकर ख्वाजा अहमद अब्बास हैरान रह गए और राज कपूर से पूछा कि ये ज़नाब कौन हैं? जिन्होंने ढाई घंटे की फिल्म को एक लाइन में समेट दिया।
आज भी सड़कों पर जब कोई प्रदर्शन या आंदोलन होता है तो एक नारा जरूर गूंजता है। ‘हर जोर जुल्म की टक्कर में, हड़ताल हमार नारा है।’ इसे शैलेंद्र ने ही लिखा था। शैलेंद्र के इस नारे ने उस दौर के मजदूर और शोषितों की लड़ाई को एक नई दिशा थी। आजादी के आंदोलन का शैलेंद्र पर गहरा प्रभाव पड़ा था। इस पर उन्होंने एक गीत भी लिखा था। बाद में उनकी एक कविता जिसने उन्हें पहचान दिलाने का काम किया वह थी- ‘जलता है पंजाब।’
यह कविता ‘जलियांवाला कांड’ पर शैलेंद्र ने लिखी थी। ये वह कविता थी जिसे सुनकर राज कपूर शैलेंद्र की तरफ आकर्षित हुए थे। इस कविता को शैलेंद्र ने एक मुंबई के थिएटर में सुनाया था। इस कवि सम्मेलन में पृथ्वीराज कपूर और राज कपूर भी आए थे। शैलेंद्र ने जब ‘जलता है पंजाब’ कविता सुनाई तो लोगों ने इसे बहुत सराहा। कवि सम्मेलन समाप्त होने के बाद राज कपूर ने शैलेंद्र से फिल्मों में गीत लिखने का आग्रह किया, लेकिन शैलेंद्र ने राज कपूर से यह कहर उनका प्रस्ताव ठुकरा दिया कि वे पैसों के लिए नहीं लिखते हैं।
हालांकि बाद में दोनों में गहरी दोस्ती हो गई। शैलेंद्र की मृत्यु पर राज कपूर ने कहा था कि शंकर जयकिशन और शैलेंद्र मेरे दो हाथ हैं। शैलेंद्र ने अपने फिल्मी करियर में कुल 800 के गीत लिखे। भारत के कई बड़े गीतकार शैलेंद्र को गीतों का राजकुमार भी कहते हैं। दिनकर और नागार्जुन शैलेंद्र को आज का ‘रैदास’ कहते थे।
‘सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है।’ फिल्म ‘तीसरी कसम’ का ये गीत भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी का पसंदीदा गीतों में से एक था। ‘तीसरी कसम’ को कई राष्ट्रीय और अंर्तराष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजा गया था।
राज कपूर हिंदी सिनेमा के पहले शोमैन थे। उनके चाहने वाले आज भी अमेरिका, मध्य एशिया और यूरोप सहित कई देशों में हैं, जो 14 दिसंबर 1924 को पैदा होने वाले इस महान शो मैन सिनेमा के जरिये बस यही कहा ‘दिल का हाल सुने दिल वाला, छोटी सा बात न मिर्च मसाला कहता रहेगा कहने वाला…दिल का हाल सुने दिल वाला’। वहीं गीतों के राजकुमार शैलेंद्र ने जब 12 दिसंबर 1966 को दुनिया से अलविदा कहा तो उनके लिए ये अल्फाज आज भी उनकी याद दिलाते हैं।
होठों पे सच्चाई रहती है।
जहां दिल में सफ़ाई रहती है।
हम उस देश के वासी हैं, जिस देश में गंगा बहती है।
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