Allahabad HC: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने गोरखपुर की पीपीगंज नगर पंचायत अध्यक्ष के वित्तीय अधिकार छीनने के जिलाधिकारी के आदेश को रद्द कर दिया है। कहा कि डीएम को अध्यक्ष के वित्तीय अधिकार जब्त करने का अधिकार नहीं है।
कोर्ट ने राज्य सरकार को छूट दी है कि यदि वह उचित समझे तो नियमानुसार नए सिरे से कार्रवाई कर सकती है।
ये आदेश न्यायमूर्ति एमके गुप्ता तथा न्यायमूर्ति सीके राय की खंडपीठ ने नगर पंचायत अध्यक्ष पीपीगंज गंगा प्रसाद जायसवाल की याचिका पर वकील अरविंद कुमार सिंह को सुनकर दिया है।
Allahabad HC: DM गोरखपुर के आदेश को दी थी चुनौती
नगर पंचायत अध्यक्ष पीपीगंज गंगा प्रसाद जायसवाल ने डीएम गोरखपुर के आदेश को याचिका के माध्यम से चुनौती दी थी। वकील अरविंद कुमार सिंह का कहना था कि डीएम गोरखपुर ने अध्यक्ष के खिलाफ कुछ सभासदों की ओर से वित्तीय अनियमितता की शिकायत मिलने के बाद वित्तीय अधिकार जब्त करने का आदेश दिया है।
उसके पूर्व अधिशासी अधिकारी ने इस मामले में एक कमेटी गठित कर जांच कराई, जिसकी रिपोर्ट राज्य सरकार को भेजी गई है। वकील का कहना था कि जिलाधिकारी को अध्यक्ष के वित्तीय अधिकार जब्त करने का अधिकार नहीं है।ये अधिकार सिर्फ राज्य सरकार में निहित है।
सरकारी वकील ने इस तर्क का कोई विरोध न करते हुए कोर्ट से अनुरोध किया कि राज्य सरकार को नए सिरे से आदेश करने का अवसर दिया जाए। कोर्ट ने तथ्यों के मद्देनजर जिलाधिकारी गोरखपुर के 13 मई 2022 के आदेश को रद्द कर दिया। साथ ही राज्य सरकार को छूट दी कि सरकार उचित समझे तो इस मामले में नए सिरे से आदेश कर सकती है।
Allahabad HC: मजिस्ट्रेट की पुलिस रिपोर्ट पर संज्ञान लेकर जारी समन नहीं किया जा सकता है रद्द
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि सत्र न्यायालय अपनी पुनरीक्षण शक्ति का इस्तेमाल करते हुए मजिस्ट्रेट द्वारा पारित संज्ञान और समन आदेश को रद्द नहीं कर सकता। उसका पुनरीक्षण क्षेत्राधिकार बहुत सीमित है।ये आदेश न्यायमूर्ति शमीम अहमद ने प्रभाकर पांडेय की पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई करते हुए दिया।
कोर्ट ने कहा कि यदि सत्र न्यायालय को पुनरीक्षण न्यायालय के रूप में कार्य करते समय कोई अवैधानिकता, अनियमितता या क्षेत्राधिकार में कोई त्रुटि मिलती है। उस कार्यवाही को रद्द करने की बजाय केवल मजिस्ट्रेट के आदेश में त्रुटि को इंगित करके निर्देश जारी करने की शक्ति है।
Allahabad HC: जांच अधिकारी ने रिपोर्ट की थी पेश
मामले में कथित तौर पर जांच अधिकारी ने एक रिपोर्ट पेश की। इसके बाद मजिस्ट्रेट ने आपत्ति पर विचार करने और मामले के रिकॉर्ड को देखने के बाद आरोपी को अप्रैल 2001 में धारा 379 सीआरपीसी के तहत तलब किया। इस आदेश को जिला एवं सत्र न्यायाधीश कन्नौज के समक्ष चुनौती दी गई। सत्र न्यायालय ने जांच अधिकारी द्वारा प्रस्तुत अंतिम रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया और मजिस्ट्रेट के समन आदेश को रद्द कर दिया।
जांच अधिकारी ने रिपोर्ट की थी पेश
कोर्ट ने कहा कि अगर जांच के बाद पुलिस इस निष्कर्ष पर पहुंचती है कि आरोपी को मुकदमे के लिए भेजने और कार्यवाही से छोड़ने के लिए अंतिम रिपोर्ट जमा करने को सही ठहराने के लिए कोई पर्याप्त सबूत या संदेह का कोई उचित आधार नहीं है, तो मजिस्ट्रेट के पास उपलब्ध चार तरीकों में से वह किसी एक को अपना सकता है। कोर्ट ने आदेश में उन तरीकों का भी जिक्र किया। कहा कि मामले में सत्र न्यायालय का आदेश पूरी तरह से आरोपी की दलील पर आधारित था। इसलिए कोर्ट ने पाया कि उक्त आदेश मजिस्ट्रेट के समन आदेश को रद्द करना विधिक तौर पर सही नहीं है।
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